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Sunday, November 24, 2013

‘तहलका’ मामला निजी नहीं

तरुण तेजपाल के मामले को बदलती जीवन शैली की दृष्टि से देखें, स्त्रियों के साथ हो रहे बर्ताव या पत्रकारिता या सिर्फ अपराध के नज़रिए से देखा जा सकता है। पर यह मामला ज्यादा बड़े फलक पर विचार करने को प्रेरित करता है। अगले महीने दिल्ली गैंग रेप मामले का एक साल पूरा होगा। लगता है एक साल में हम दो कदम भी आगे नहीं बढ़ पाए हैं। इस मसले ने पूरे देश को हिलाकर ज़रूर रख दिया, पर हमें बदला नहीं। गोवा पुलिस ने तरुण तेजपाल के ख़िलाफ़ एफ़आईआर दर्ज कर ली है। अब यह आपराधिक मामला है और जांच का विषय। केवल दो व्यक्तियों के बीच का मामला नहीं रहा। एक जाँच पुलिस करेगी। दूसरी तहलका में होगी। दोनों जाँचों के बाद घटना की वास्तविकता और उसके बाद उठाए गए कदमों की जानकारी मिलेगी। बात फिर भी खत्म नहीं होगी। मीडिया के भीतर की इस घटना को तूल देने के आरोप मीडिया पर ही लगे हैं। अफसोस कि मीडिया में काम करने वाली महिलाएं स्वयं को असुरक्षित पाती हैं।


यह मामला तहलका के इसी महीने गोवा में हुए थिंक फेस्टिवल के दौरान हुआ।  घटना 8 से 10 नवंबर के बीच की है। सवाल है इसे सामने आने में देर क्यों लगीइसे व्यक्तिगत स्तर पर निपटाने की कोशिश की गई। बात सामने आई भी तो तब जब तरुण तेजपाल ने अपने व्यवहार के लिए लड़की से माफी माँगी और प्रायश्चित्त के रूप में अगले छह महीने तक संपादक का पद छोड़ने का निर्णय किया। सम्बद्ध महिला पहली नज़र में 'तहलका' के जवाब से संतुष्ट नहीं लगतीं।

देश में स्टिंग पत्रकारिता की शुरुआत करने वाले तहलका पर कांग्रेस के प्रति नरम रुख रखने का आरोप लगता रहा है। भाजपा का रुख इस घटना के राजनीतिक निहितार्थ की ओर इशारा कर रहा है। कानूनी प्रक्रियाओं के शुरू होते ही तहलका और तरुण तेजपाल के दृष्टिकोण में भी बदलाव आया है। तहलका की मैनेजिंग एडिटर शोमा चौधरी को पहले उन्होंने लिखा था-मैं इसका पूरा दोष खुद पर लेता हूं। गलत निर्णय और स्थिति को गलत तरीके से समझने की वजह से यह दुर्भाग्यपूर्ण घटना हुई। यह उसके खिलाफ है, जिसके लिए हम लड़ते रहे हैं। मैं संबंधित पत्रकार से दुर्व्यवहार के लिए बिना शर्त माफी मांगता हूं। मैं इसका प्रायश्चित भी करना चाहता हूं।’ पर अब उनका कहना है कि मैंने लड़की की मर्यादा की रक्षा करने और शोमा चौधरी के नारीवादी सिद्धांतों पर अटल रहने के कारण यह माफी माँगी थी। उनका यह भी कहना है कि सीसीटीवी फुटेज से इस मामले की पूरी सचाई सामने आ जाएगी। पूरा सच वह नहीं है जो अब तक सामने आए तथ्यों से लग रहा है। उन्होंने गोवा पुलिस से अपील की है कि पूरा सीसीटीवी फुटेज देखने के बाद जारी भी करे। शोमा चौधरी कहती हैं कि यह आपराधिक मामला नहीं है, क्योंकि लड़की ने पुलिस से शिकायत नहीं की है। पर अपराध तो अपराध है। पीड़ित पक्ष शिकायत न करे तब भी न्याय-व्यवस्था की जिम्मेदारी है कि वह निर्णय करे।

तहलका का नाम मूल्यबद्ध पत्रकारिता से जुड़ा है। यह संस्था व्यक्तियों और संस्थाओं का भंडाफोड़ करती रही है। जिस कार्यक्रम के दौरान यह घटना हुई उसका आयोजन यह संस्था करती है। महिला पत्रकार इस आयोजन में मदद कर रही थी। उसके ऊपर विदेशी अतिथियों के साथ समन्वय करने की जिम्मेदारी थी। वह रिपोर्टिंग का पत्रकारीय दायित्व नहीं था, पर वह अपनी संस्था का काम ही कर रही थी। इस लिहाज से जो कुछ हुआ वह कार्यस्थल से जुड़ा था। तरुण तेजपाल और उसके बीच का रिश्ता वस्तुतः मालिक और कर्मचारी का था। ऐसे में कर्मचारी के दबाव में रहने का अंदेशा हमेशा रहता है। तहलका के सामने अपने मूल्यों-मर्यादाओं पर खरा उतरने की चुनौती है।

पत्रिका ने अब मामले की जांच के लिए एक समिति गठित की है, जो विशाखा दिशा निर्देशों के अनुरूप हरेक संस्था में होनी चाहिए। संस्था की मैनेजिंग एडिटर शोमा चौधरी के अनुसार इस मामले में महिला पत्रकार की सभी मांगें मानी जा रही हैं। वे चाहती थीं कि संस्थान इस मामले में कार्रवाई करे। हमने ऐसा किया, लेकिन मामला लीक हो गया और उसी आधार पर मीडिया इस बारे में अपनी कहानी बना रहा है। इस मामले का लीक होना गलत था या सही? लीक न होता तो शायद यह बात सामने आ ही नहीं पाती। क्या यह मीडिया के स्वास्थ्य के लिए ठीक होता? दिल्ली गैंग रेप के बाद संसद ने कानून को कड़ा करने की जो व्यवस्था की थी, अब उसकी भी परीक्षा है। भाजपा के वरिष्ठ नेता अरुण जेटली के अनुसार संसद ने बलात्कार की परिभाषा को संशोधित करते हुए जो नई परिस्थितियां जोड़ी हैं उसके आधार पर पीड़ित के ई-मेल को मामला दर्ज करने के लिए पर्याप्त आधार माना जा सकता है।

राजनीतिक विवाद को अलग छोड़ दें तब भी इस मामले को घरेलू स्तर पर निपटाने की कोशिश सही थी या नहीं, यह बात जाँच के बाद समझ में आएगी। हाँ, व्यक्तिगत रूप से तरुण तेजपाल का पश्चाताप कोई माने नहीं रखता। तहलका को इस मामले को घर में ही सुलझाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए थी। जीवन के हर क्षेत्र में महिलाओं की उपस्थिति बढ़ रही है, पर पत्रकारिता में उनके सामने जोखिम ज्यादा हैं। पिछले दिनों मुम्बई में एक महिला फोटोग्राफर के गैंगरेप के बाद से महिला पत्रकारों के मन में अजब सी बेचैनी है। उन्हें अपने दफ्तर में और बाहर कई तरह की प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करना होता है। यह बात स्त्रियों को लेकर हमारी सामाजिक समझ के कारण है। हालांकि सोशल मीडिया में पीड़िता के पक्ष में माहौल है, पर उसके गोपनीय ई-मेल में घटना का जो विवरण है उसे कुछ अखबारों की वेबसाइटों ने जिस तरह से प्रकाशित किया है वह अनुचित है। पिछले साल दिल्ली गैंग रेप मामले को व्यापक जन समर्थन मिला था। तब भी यह बात बार-बार कही जा रही थी कि हमारा समाज स्त्रियों को इनसान नहीं मानता। वे गरिमा और मर्यादा के साथ अपने काम को अंजाम देने से घबराती हैं। उन्हें सुरक्षा और मर्यादा देने वाली व्यवस्था चाहिए। मामला मीडिया का हो तो यह सुरक्षा और भी ज्यादा ज़रूरी है।   
हरिभूमि में प्रकाशित

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