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Thursday, November 7, 2013

स्पेस रिसर्च फिजूलखर्ची नहीं

 मंगलयान के प्रक्षेपण के बाद कुछ सवाल उठे हैं। गरीबों के देश को ऐसी फिजूलखर्ची क्या शोभा देती है? इसके बाद क्या भारत-चीन अंतरिक्ष रेस शुरू होगी? भारत की शान बढ़ेगी? क्या यह यूपीए सरकार की उपलब्धियों को शोकेस करना है? प्रक्षेपण के ठीक पहले व़ॉल स्ट्रीट जरनल ने लिखा, इस सफलता के बाद भारत अंतरग्रहीय अनुसंधान में चीन और जापान को पीछे छोड़ देगा. इकोनॉमिस्ट ने लिखा कि जो देश 80 करोड़ डॉलर (लगभग 5000 करोड़ रुपए) दीवाली के पटाखों पर खर्च कर देता है उसके लिए 7.4 करोड़ डॉलर (450 करोड़ रुपए) का यह एक रॉकेट दीवाली जैसा रोमांच पैदा करेगा. प्रक्षेपण के वक्त सुशील कुमार शिंदे भी यही बात कह रहे थे. पर क्या यह परीक्षण हमारे जीवन में बढ़ती वैज्ञानिकता का प्रतीक है? क्या हम विज्ञान की शिक्षा में अग्रणी देश हैं?   

जुलाई 1955 में अमेरिकी राष्ट्रपति के सचिव ने घोषणा की कि अंतरराष्ट्रीय भू-भौतिकी वर्ष पर अमेरिका के योगदान के रूप में दुनिया का पहला उपग्रह छोड़ा जाएगा. 1जुलाई से 31दिसम्बर 1957 के बीच यह कार्यक्रम मनाया जाना था. वैज्ञानिक जानते थे कि उस दौरान सौर सक्रियता का चक्र उच्च स्तर पर होगा. धरती की सतह को नापने के लिए वह उपयुक्त समय था. उस ज़माने में अंतरिक्ष के असैनिक उपयोग की बात सोची नहीं जाती थी. रॉकेट माने फौजी रॉकेट. बहरहाल यह काम अमेरिकी नौसेना को सौंपा गया. उन्होंने मान लिया कि अमेरिका ही उपग्रह भेजेगा. दूसरा है ही कौन? पर ऐसा हुआ नहीं. 4 अक्तूबर 1957 को सोवियत संघ ने स्पूतनिक-1 नाम से दुनिया का पहला उपग्रह धरती की कक्षा में स्थापित कर दिया. रूस ने अक्तूबर क्रांति की 40वीं वर्षगाँठ और अमेरिका ने राष्ट्रीय शोक मनाया. अमेरिका ने तकरीबन डेढ़ किलो वज़न के उपग्रह की योजना बनाई थी, पर रूस ने 83 किलो वज़न का उपग्रह अमेरिका के सिर पर तैनात कर दिया. अमेरिका के लिए वह सबसे बड़ा सदी का सदमा था. अचानक सोवियत संघ की साख बढ़ गई.

स्पूतनिक ने दुनिया की जीवन शैली बदली. उसकी वजह से ही अमेरिका का नेशनल एरोनॉटिक्स एंड स्पेस एक्ट नाम से नया कानून और नासा नाम का नया संगठन बना. रूस और अमेरिका के बीच पूरा शीत-युद्ध स्पेस में लड़ा गया, जिसकी परिणति हम अभी देख रहे हैं. अलबत्ता एक विज्ञान के रूप में स्पेस रिसर्च विकसित हुई जो राष्ट्रीय शक्ति की प्रतीक बनी और मानव कल्याण का सार्वभौमिक लक्ष्य भी. उदाहरण है अंतरराष्ट्रीय स्पेस स्टेशन. दूसरी दुनियाओं की खोज के अलावा इनसान प्राकृतिक चुनौतियों को वैश्विक संकट मानने लगा है. पर तमाम कमज़ोरियों के साथ हम इनसान भी हैं.
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने पिछले साल 15 अगस्त के अपने भाषण में मंगल अभियान का ज़िक्र किया था. हाल में भारत ने अपने नेवीगेशन सैटेलाइट का प्रक्षेपण करके विज्ञान और तकनीक के मामले में एक और लम्बा कदम रखा. इस बार के बजट अभिभाषण में राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने कहा था कि भारत इस साल अपना उपग्रह मंगल की ओर भेजेगा. केवल मंगलयान ही नहीं, चन्द्रयान-2 कार्यक्रम भी तैयार है। समानव उड़ान और सूर्य की जानकारी लेने के लिए आदित्य-1 प्रोब की योजना भी तैयार है. स्पेस रिसर्च क्या सिर्फ राष्ट्रीय गौरव के लिए पैसा फूँकना है? गरीबी, भुखमरी और फटेहाली को भूलकर हम चाँद-सितारों की बात क्यों कर रहे हैं?

जिस महीने हमने नेवीगेशन सैटेलाइट छोड़ा उसी महीने उत्तराखंड में भयानक बाढ़ आई थी. हम विज्ञान-मुखी होते तो क्या वैसी तबाही सम्भव थी? क्या हम गरीबों और फटेहालों के बारे में संज़ीदगी से सोचते हैं? यह सवाल अभी क्यों उठा? अंतरिक्ष कार्यक्रम से प्रतिष्ठा बनती है, पर तभी जब पूरे समाज में विज्ञान प्रतिष्ठित हो. आलोचक कहते हैं कि साधनों का इस्तेमाल गरीबों की खुशहाली, स्वास्थ्य, आवास और शिक्षा के लिए करना चाहिए. नागरिकों का जीवन स्वस्थ और सुखद होगा तो वे अनेक मंगल अभियान भेजेंगे. तब हम बुनियादी सवाल क्यों नहीं उठाते? क्या हमें ऊँची इमारतों की तकनीक विकसित करनी चाहिए? शहरों में मेट्रो चलानी चाहिए? बसें और मोटर गाड़ियाँ चाहिए? इनसे रिक्शा चलाने वालों की रोज़ी पर चोट लगती है. शहरों का विकास करना चाहिए?  हाल में एमएस स्वामीनाथन ने कहा कि हमें नौजवानों को कृषि विज्ञान से जुड़े अनुसंधान की और प्रेरित करना चाहिए. हमें एक और हरित क्रांति की ज़रूरत है. देखना यह होगा कि क्या अंतरिक्ष अनुसंधान का हमारी दूरगामी सामाजिक प्राथमिकताओं से कोई रिश्ता है. तालियाँ पिटवाने वाली बातें करने से काम नहीं होता.

भारत के मुकाबले नाइजीरिया पिछड़ा देश है. उसकी तकनीक भी विकसित नहीं है. पर इस वक्त नाइजीरिया के तीन उपग्रह पृथ्वी की कक्षा में चक्कर लगा रहे हैं. सन 2003 से नाइजीरिया अंतरिक्ष विज्ञान में महारत हासिल करने के प्रयास में है. उसके ये उपग्रह इंटरनेट और दूरसंचार सेवाओं के अलावा मौसम की जानकारी देने का काम कर रहे हैं. नाइजीरिया ने शुरू में ब्रिटेन, रूस और बाद में चीन की मदद ली है. उसके पास न तो रॉकेट हैं और न रॉकेट छोड़ पाने की तकनीक, पर वह अंतरिक्ष कार्यक्रम का लाभ लेना चाहता है. उसकी ज़मीन के नीचे पेट्रोलियम है. उसकी तलाश और पेट्रोलियम के कारण सागर तट के प्रदूषण की जानकारी उसे उपग्रहों से मिलती है.
नाइजीरिया के अलावा श्रीलंका, बोलीविया और बेलारूस जैसे छोटे देश भी अंतरिक्ष विज्ञान में आगे रहने को उत्सुक हैं. दुनिया के 70 देशों में अंतरिक्ष कार्यक्रम चल रहे हैं, हालांकि प्रक्षेपण तकनीक थोड़े से देशों के पास ही है. हाल में उड़ीसा में आया फेलिनी तूफान हज़ारों की जान ले सकता था. पर सही समय पर वैज्ञानिक सूचना मिली और आबादी को सागर तट से हटा लिया गया. 1999 के ऐसे ही एक तूफान ने 10 हजार से ज्यादा लोगों की जान ले ली थी. सुनामी के बाद राहत कार्य चलाने में हमारे उपग्रहों के साथ नाइजीरिया के उपग्रहों ने भी मदद की थी. अंतरिक्ष की तकनीक के साथ चिकित्सा, खेती, परिवहन, संचार जैसी तमाम तकनीकें जुड़ी हैं. तबाही मचाने वाली फौजी तकनीकें भी. प्राथमिकता समाज की है. नब्बे के दशक में मोबाइल टेलीफोन के भारत आते समय लगता था कि यह अमीरों की तकनीक है, पर इसने बड़ी संख्या में गरीबों की मदद की.

कहा जाता है कि चंद्रमा पर 40 साल पहले ही सारी खोज हो गई, अब वहाँ क्या मिलेगा? पर चन्द्रयान-1 ने बताया कि चन्द्रमा पर कभी पानी था. अभी हम धरती के ही सारे रहस्यों को नहीं जानते. विज्ञान की खोज चलती रहेगी। पर उसकी सीढ़ियाँ हैं. हम जितनी ऊँची सीढ़ी चढ़ेंगे उतना दूर तक देखेंगे. इन खोजों को बंद कर दें तब भी सामाजिक कल्याण की गारंटी नहीं है. उसकी गारंटी देने वाला समाज बनाने के लिए आधुनिक शिक्षा की ज़रूरत है. अंतरिक्ष कार्यक्रम विज्ञान की मदद से आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है. आतिशबाजी पर मुग्ध समाज के लिए भी मंगल अभियान फिजूलखर्ची नहीं होना चाहिए.  

प्रभात खबर में प्रकाशित

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