प्रसिद्ध पत्रिका ‘इकोनॉमिस्ट’
ने लिखा है, आप कल्पना करें कि किसी टैक्सी में बैठे हैं और ड्राइवर
तेजी से चलाते हुए एक दीवार की और ले जाए और उससे कुछ इंच पहले रोककर कहे कि तीन
महीने बाद भी ऐसा ही करूँगा। अमेरिकी संसद द्वारा अंतिम क्षण में डैट सीलिंग पर
समझौता करके फिलहाल सरकार को डिफॉल्ट से बचाए जाने पर टिप्पणी करते हुए पत्रिका ने
लिखा है कि इस लड़ाई में सबसे बड़ी हार रिपब्लिकनों की हुई है। डैमोक्रैटिक पार्टी
को समझ में आता था कि अंततः इस संकट की जिम्मेदारी रिपब्लिकनों पर जाएगी। उन्होंने
हासिल सिर्फ इतना किया कि लाभ पाने वालों की आय की पुष्टि की जाएगी। पर क्या डैमोक्रेटों
की जीत इतने भर से है कि बंद सरकार खुल गई और डिफॉल्ट का मौका नहीं आया? वे हासिल सिर्फ इतना कर पाए कि डैट सीलिंग तीन महीने के लिए बढ़ा दी गई।
अब तमाशा नए साल पर होगा। यह संकट यों तो अमेरिका का अपना संकट लगता है, पर इसमें
भविष्य की कुछ संभावनाएं भी छिपीं हैं। अमेरिकी जीवन की महंगाई हमारे जैसे देशों
के लिए अच्छा संदेश लेकर भी आई है। कम से कम स्वास्थ्य सेवाओं के मामले में हम न
केवल विश्व स्तरीय है, बल्कि खासे किफायती भी हैं। इसके पहले अमेरिका में आर्थिक
प्रश्नों पर मतभेद सरकार के आकार, उसके ख़र्चों और अमीरों पर टैक्स लगाने को लेकर
होते थे, पर इस बार ओबामाकेयर का मसला था।
डैमोक्रेट और रिपब्लिकन पार्टियों के बीच बजट को लेकर कशमकश
यों भी जल्द खत्म होने वाली नहीं है। मामला आर्थिक नहीं राजनीतिक है। इसीलिए वहाँ
की जनता ही नहीं दुनिया भर की सरकारें अमेरिका से कह रहीं हैं कि अपने झगड़े कायदे
से निपटाओ। जनता की राय बताने वाले पोल कह रहे हैं कि पूरी संसद अपराधी है। ऐसे
समय में जब अमेरिकी अर्थव्यवस्था उठान पर थी यह काम अपराध की तरह था। इन दो हफ्तों
में अमेरिका सरकार अपने कर्जों को चुकाने लायक नहीं रही थी। उसके दिवालिया होने का
खतरा पैदा हो गया था। बुधवार की रात सीनेट के बहुमत नेता हैरी रीड और अल्पमत नेता
मिच मैकोनल ने पहले सदन में इस आशय की घोषणा की फिर संसद के दोनों सदनों में एक
बिल पास हुआ, जिसपर गुरुवार को राष्ट्रपति ओबामा ने दस्तखत किए और दुनिया ने राहत
की सांस ली। संघीय कर्मचारियों को 16 दिन की कामबंदी के बाद वापस काम पर बुला लिया
गया। वे गुरुवार की सुबह से काम पर वापस लौट आए।
तीसरा बड़ा शटडाउन
डैट-सीलिंग यानी सरकार के उधार लेने की सीमा बढ़ाने वाले
प्रस्ताव को पास करने के पहले रिपब्लिकन पार्टी चाहती थी कि ‘पेशेंट्स प्रोटेक्शन एंड अफोर्डेबल केयर एक्ट’ के उन प्रस्तावों को वापस लिया जाए
जिनसे सरकारी खजाने पर भारी बोझ पड़ेगा। इस एक्ट को संक्षेप में ओबामाकेयर
कहा जाता है। रिपब्लिकन पार्टी का कहना था कि डैट सीलिंग पर समझौता तभी हो सकता है, जब सरकार अपने ख़र्चों में कटौती करे। अमेरिकी शासन-व्यवस्था में ऐसे मौके कई
बार आते हैं जब राष्ट्रपति किसी एक पार्टी का होता है और संसद के एक या दोनों
सदनों में बहुमत दूसरी पार्टी का। हाल के वर्षों में अमेरिकी राज-व्यवस्था का यह
कौतुक तीसरी बार बड़े रूप में देखने को मिला है। यों पिछले 30 साल में 18 शटडाउन
हो चुके हैं। सन 1978 में 18 दिन का और सन 1995-96 में 21 दिन का शटडाउन चला था।
अगस्त 2011 में तब एक बड़ा ड्रामा हुआ जब रेटिंग एजेंसी ‘स्टैंडर्ड एंड पुअर’ ने अमेरिकी साख को
कम कर दिया। ऐसा इतिहास में पहली बार हुआ था। पर वह इसी संकट का संकेतक था। इस समय
डैमोक्रैट राष्ट्रपति हैं और प्रतिनिधि सदन में बहुमत रिपब्लिकन पार्टी का है। इस
व्यवस्था का दूसरा रोचक पहलू यह भी है कि जरूरी नहीं कि सत्तारूढ़ दल के सभी सांसद
सरकार का समर्थन करें या विपक्षी दल के सभी सांसद विरोध करें। इस बार भी ऐसा ही
हुआ है। जो समझौता हुआ है उसे रिपब्लिकन पार्टी के सांसदों ने समर्थन दिया है। सरकार
के पास 17 अक्तूबर तक 17.6 ट्रिलियन डॉलर तक का कर्ज लेने की सीमा थी। सरकारी
खजाने ने बता दिया था कि 17 के बाद हमारे पास सरकारी खर्च के लिए पैसा नहीं होगा।
यह सीमा पिछले मई में तय हुई थी।
यों भी अमेरिका में बजट का झगड़ा सालाना रस्म बन गया है।
तकनीकी रूप से वहाँ की संसद को राष्ट्रीय बजट को 30 सितंबर तक पास करना होता है। वहाँ 1 अक्तूबर से नया बजट लागू होता है। पिछले कुछ
साल से जब भी सरकार और संसद के बीच टकराव की हालत पैदा होती है कुछ सीमित अवधि के या
आंशिक बजट पास कर दिए जाते हैं ताकि देश चलता रहे। अमेरिका में कार्यपालिका नहीं
विधायिका या संसद यह तय करती है कि सरकार कामकाज चलाने के लिए कितना क़र्ज़ ले। इसके
पहले क़र्ज़ लेने की सीमा बिना किसी नाटकीय घटनाक्रम के बढ़ती रही है। साल 1960 से यह सीमा 78 बार बढ़ाई जा चुकी है। पिछले तीन साल से रिपब्लिकन पार्टी बराक ओबामा के साथ
इसे हथियार की तरह इस्तेमाल कर रही है। वे इन सुधारों के पास होने के बाद से 42 बार इस बिल को रद्द करने या इसमें व्यापक बदलाव के लिए वोट डाल चुके हैं।
संकट पैदा क्यों हुआ?
बिल पास होने में रिपब्लिकन सांसदों की मदद जरूरी थी, क्योंकि
निचले सदन में बहुमत उन्हीं के पास है। सीनेट ने 18 के मुकाबले 81 मतों से इसे पास किया। इसके बाद हाउस ऑफ रिप्रज़ेंटेटिव में बिल 144 के मुकाबले 285 मतों से पारित हुआ। रिपब्लिकन पार्टी के 87 सांसद डैमोक्रेट
सांसदों के साथ आए तब बिल पास हुआ। उन्होंने थोड़े समय के लिए कर्ज की सीमा बढ़ाने
और बजट बिल पास करने के लिए ओबामा के स्वास्थ्य सेवा योजना में बड़े परिवर्तन करने
की अपनी मांग छोड़ दी। इसी मांग के कारण अमेरिका दिवालिया होने की कगार पर पहुंच
गया था।
समझौते का मतलब है कि अमेरिकी वित्त विभाग अब अगले साल 15 जनवरी तक इतना कर्ज ले सकता है कि 7 फरवरी तक के लिए जरूरी ख़र्चों
को निपटाया जा सके। सरकार अपने काम-काज के लिए बाजार से ऋण लेती रहती है। सन 2010
में जब से हाउस ऑफ रिप्रज़ेंटेटिव में रिपब्लिकन पार्टी का बहुमत हुआ है तब से बजट
के झगड़े खड़े होने लगे हैं। रिपब्लिकन पार्टी का कहना है कि जनता ने ओबामाकेयर के
खिलाफ वोट दिया है। कर दाता के पैसे का यह दुरुपयोग है। इसके विपरीत डैमोक्रैटिक
पार्टी कहती है कि जून 2012 में सुप्रीम कोर्ट ने इस कानून की पुष्टि कर दी थी।
उसके बाद उस साल के अंत में हुए राष्ट्रपति चुनाव में ओबामा को जनता ने दूसरी बार
चुनकर ओबामाकेयर को अपनी स्वीकृति दे दी है।
स्टैंडर्ड एंड पुअर का अनुमान है कि 16 दिन के इस संकट ने
ही 24 अरब डॉलर का उत्पादन ह्रास कर दिया। इसका असर चौथी तिमाही के नतीजों में
दिखाई पड़ेगा। इस संकट की वजह से अमेरिका के 21 लाख में से सात लाख कर्मचारियों को
घर बैठना पड़ा। साथ ही बड़ी संख्या में गैर-सरकारी कर्मचारी भी बेरोजगार हुए।
सरकार के लिए काम करने वाले ठेकेदारों और एजेंटों का काम रुक गया। वृद्धावस्था
पेंशन के चेक रुक गए, नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हैल्थ तथा ऐसे ही अन्य संगठनों में काम
ठप हो गया। पर्यावरण संरक्षण से जुड़ी सभी एजेंसियों के कार्य रोक दिए गए। बच्चों
और महिलाओं के पोषण से जुड़े कार्यक्रम प्रभावित हुए। नेशनल पार्क, म्यूजियम, संघीय इमारतें और सेवाएं बंद हो गईं।
केवल अमेरिका की जनता पर ही नहीं वहाँ के संकट का असर सारी
दुनिया पर पड़ता है। दुनिया के सामने फिर से मंदी की तरफ बढ़ऩे का खतरा पैदा हो
गया है। हालांकि इस समझौते के कारण सरकार को तीन महीने की मोहलत मिल गई है। साथ ही
इस बार के समझौते के तहत आपात कालीन व्यवस्था के रूप में 7 फरवरी के बाद भी पैसा
लेती रहेगी। यानी कुछ हफ्ते तक काम और होता रहेगा। इसके अलावा इस बार के समझौते
में दोनों पार्टियों के सांसदों का एक ग्रुप बनाया गया है जो आगे के लिए समझौता
तैयार करेगा। उम्मीद है कि यह ग्रुप 13 दिसम्बर तक कोई आम राय बना लेगा। इसके
अलावा ओबामाकेयर के तहत लाभ पाने वाले अपनी आय कम न बताएं इसकी व्यवस्था भी की
जाएगी। हेल्थ इंश्योरेंस का भुगतान करने के लिए सरकारी मदद पाने वालों को अपनी आय
की पुष्टि करानी होगी। सीनेट में डैमोक्रैटिक पार्टी के नेता हैरी रीड ने कहा, हम लम्बे समय के बजट पर सहमति बनाने के लिए काम कर सकते है जिससे कि बार-बार आ
रही दिक्कतों को टाला जा सके।
इस विवाद के पीछे दोनों पार्टियों की बाहरी जद्दोजहद के
अलावा अपनी भीतरी खींच-तान भी कम नहीं है। और यह कशमकश जल्द खत्म होने की आशा नहीं
है। अमेरिकी बंदी से दुनिया के शेयर बाजारों पर भी विपरीत प्रभाव पड़ा था। समझौते
का सकारात्मक असर अब दिखाई पड़ रहा है। गुरुवार की सुबह, जापान,
ताइवान, हांगकांग, फिलिपींस और ऑस्ट्रेलिया के शेयर बाजारों में तेजी दिखाई पड़ी। भारत के
सेंसेक्स पर भी इसका असर दिखाई पड़ा है। विश्व बैंक के अध्यक्ष जिम योंग किम ने
कहा,
"वैश्विक अर्थव्यवस्था भूकम्प के अंदेशे से बच कर निकल आई है।
विकासशील देशों और दुनिया के गरीबों के लिए भी यह अच्छी खबर है।"
अमेरिकी शटडाउन के बावजूद दुनिया के शेयर बाजारों में
हड़बड़ी दिखाई नहीं दी। इसकी वजह अमेरिकी व्यवस्था पर कायम भरोसा है। दुनिया को
लगता है कि अमेरिका के भीतर संकटों का सामना करने की जबरदस्त सामर्थ्य है। पर वह वास्तव
में डिफॉल्ट कर देता तो क्या होता? या क्या
किसी दिन उसका डिफॉल्ट करना संभव तो नहीं? दुनिया भर के शेयर
बाजारों में भारी गिरावट आ जाती। ब्याज दरों में भी गिरावट आती। बांड होल्डरों का
पैसा वापस नहीं हो पाता तो बांड की कीमत घट जाती। चीन के पास सबसे ज्यादा अमेरिकी
ट्रेज़री बांड है। इस बांड का इस्तेमाल दुनिया भर में आर्थिक सौदों में जमानत की
तरह इस्तेमाल होता है। इसकी कीमत घटने का मतलब था वैश्विक कारोबार पर असर पड़ना। उसकी
अर्थव्यवस्था पर भी इसका असर पड़ता। चीन और भारत जैसे उन देशों का निर्यात ठप पड़
जाता जिनके लिए मुख्य बाजार है। अमेरिका की मंदी का मतलब था विश्व-व्यापी मंदी।
खासतौर से उस दौर में जब अमेरिकी अर्थव्यवस्था उठने की कोशिश कर रही है। यह
डिफॉल्ट इतना आसान भी नहीं है। अमेरिकी व्यवस्था केवल किसी की सनक पर नहीं चलती। उसके
पीछे गहरा सोच-विचार होता है। पर यह भी सही है कि इस रोग के मूल कारण तक पहुँचना
चाहिए। इसका फ़ौरी इलाज कोई दीर्घकालीन हल
नहीं है।
Box.1
डिफॉल्ट क्या होता है?
जब कोई व्यक्ति, कम्पनी या सरकार
कर्ज की किस्त समय से नहीं चुका पाए तो कहा जाता है कि उसने डिफॉल्ट कर दिया। कोई
व्यक्ति अपने होम लोन का ईएमआई समय से नहीं चुका पाता है तब भी यही कहा जाता है।
कोई देश ऐसा करे तो उसे सॉवरेन या सरकारी डिफाल्ट कहते हैं। अमेरिकी सरकार ऋण पत्र
या बांड जारी कर पैसा उधार लेती है। उसके डिफाल्ट का मतलब है कि वह बांड धारकों को
पैसा वापस नहीं कर पाएगी। अमेरिका सरकार का खर्च टैक्स से होने वाली आमदनी से
ज्यादा है। वह इस कमी को पूरा करने के लिए ट्रेजरी बांड जारी करके निवेशकों से
इसमें पैसा लगाने को कहती है। इस तरह उधार लेकर वह घाटा पूरा करती है। इन बांड में
निवेश करने वालों में सामान्य नागरिकों से लेकर कई देशों की सरकारें, पेंशन फंड
जैसी संस्थाएं होती है। चीन के पास अमेरिका के सबसे ज्यादा ट्रेज़री बांड हैं।
Box.2
क्या है 'ओबामाकेयर'?
अमेरिका अपनी अर्थव्यवस्था का पाँचवाँ हिस्सा स्वास्थ्य
सुविधाओं पर खर्च करता है और वहां निजी क्षेत्र की बड़ी कंपनियां स्वास्थ्य
सुविधाएं मुहैया करवाने के कामों में लगी हैं। पेशेंट्स प्रोटेक्शन एंड अफोर्डेबल
केयर एक्ट जिसे संक्षेप में ओबामाकेयर कहते हैं अमेरिका की महंगी स्वास्थ्य
व्यवस्था को किफायती और गरीबों की पहुँच तक लाने का कानूनी इंतज़ाम है। इसके तहत
हैल्थ इंश्योरेंस और उससे बाहर रहने वाले लोगों को स्वास्थ्य सेवाओं का लाभ देने
का विचार है। इस कानून पर राष्ट्रपति ने 23 मार्च 2010 को दस्तखत किए थे। यह
व्यवस्था साल 1965 के मेडिकेयर एंड मेडिकेड कानून के उपबंधों का स्थान ले रही है।
यों ओबामाकेयर सन 2010 से 2020 के बीच पूरी तरह लागू होना है। इस बीच इसकी
वैधानिकता को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई। सुप्रीम कोर्ट ने 28 जून 2012 के
फैसले में इसे पूरी तरह वैधानिक बताया। अब इसके रास्ते में वित्तीय अड़ंगे लगाए जा
रहे हैं। वर्ष 2010 में हाउस ऑफ रिप्रज़ेंटेटिव में रिपब्लिकन के बहुमत होने के बाद से ही बजट
पारित करने पर दोनों पार्टियों के बीच टकराव कई बार देखने को मिला है। केवल
रिपब्लिकन पार्टी ही नहीं तमाम कंपनियाँ भी इसका विरोध कर रहीं हैं क्योंकि उन्हें
अपने कर्मचारियों पर काफी खर्च करना होगा। इसलिए पिछले दिनों नियोक्ताओं के लिए इस
आदेश को लागू करने के लिए जिम्मेदार वित्त मंत्रालय ने इसे टालने की घोषणा की।
मंत्रालय ने कहा कि व्यावसायिक जगत द्वारा इस कानून की जटिलताओं के बारे में बताए
जाने के बाद इसे टालने का निर्णय लिया गया। एक्ट के तहत 50 या इससे अधिक कर्मचारियों वाली कंपनियों के लिए अपने कर्मचारियों को स्वास्थ्य
बीमा मुहैया कराना अनिवार्य है। ऐसा नहीं करने पर एक जनवरी 2014 से उन्हें दंडित किए जाने का प्रावधान था। अब इस प्रावधान को करीब एक साल के
लिए टाल दिया गया है। यह अब 2015 से लागू होगा। इसमें
देरी स्वास्थ्य कानून के अन्य प्रावधानों को प्रभावित नहीं करेगी।
रिपब्लिकनों का कहना है कि निम्न सदन में हमारे बहुमत का
मतलब ही यह है कि अमेरिकी जनता पेशेंट्स प्रोटेक्शन एंड अफोर्डेबल केयर एक्ट से
नाराज हैं जिसे रिपब्लिकन 'ओबामाकेयर'
कानून कहते हैं। इस कानून का काफी हिस्सा अब 1 अक्तूबर से लागू हुआ है। रिपब्लिकन ने अमेरिका में हेल्थकेयर की व्यवस्था में
आमूल बदलाव के ओबामा के इस प्रयास का तीव्रता से विरोध किया है। रिपब्लिकन इस बात
के लिए पूरा जोर लगा रहे हैं कि यह कानून लटका दिया जाए।
Box.3
क्या हैं डैट सीलिंग और शटडाउन?
शटडाउन माने सरकार का काम बंद। वह इसलिए कि सरकार के पास
काम कराने के लिए पैसा नहीं बचता। अमेरिकी संविधान के अनुसार देश का बजट हर साल 1
अक्तूबर से लागू होता है। राष्ट्रपति अपने बजट प्रस्ताव संसद के दोनों सदनों में
रखता है, जहाँ से उन्हें स्वीकृति मिलती है। यह बजट जनवरी के पहले सोमवार या उसके
बाद और फरवरी के पहले सोमवार या उसके पहले रखा जाता है। आमतौर पर राष्ट्रपति फरवरी
के पहले सोमवार को बजट रखते हैं। सन 1970 के बाद से अमेरिका में केवल चार साल को
छोड़ (1998-2001) हर साल घाटे के बजट पेश होते हैं। इस घाटे को पूरा करने के लिए
अमेरिकी सरकार जनता से, सरकारों और देशों से उधार लेती है। ऐसा नहीं कि
अर्थव्यवस्था किसी बड़े संकट में है या घाटा किसी खतरनाक सीमा पर है। वहाँ का बजट
घाटा जीडीपी का 3.4 फीसद है। भारत सरकार इससे ज्यादा बड़े घाटे पर भी आराम से है। अमेरिकी
सरकार कई बार डिफॉल्ट के करीब पहुंची है पर डिफॉल्ट हुआ नहीं। 1933 और 1790 में भी नहीं।
अमेरिका में डैमोक्रेट्स और रिपब्लिकन के बीच एक संसदीय समझौते
के तहत सरकार रोज़मर्रा का खर्चा चलाने और वेतन आदि देने के लिए एक तयशुदा सीमा तक
ही कर्ज़ ले सकती थी। इसे डैट सीलिंग या उधार लेने की सीमा कहते हैं। यह सीमा
अमेरिकी सांसदों द्वारा तय की जाती है। राष्ट्रपति के पास इसे बढ़ाने का अधिकार
नहीं है। अमेरिका सरकार की उधारी की मौजूदा 16.99 लाख करोड़ डॉलर
की सीमा मई में ही पूरी हो गई थी, जिसके बाद सरकार अपने
बिलों के भुगतान के लिए असाधारण व्यवस्था अपनाकर काम चला रही थी। यह भी 17 अक्तूबर तक पूरी हो रही थी। ओबामा प्रशासन चाहता था कि संसद फिर से बैठे और
इस सीमा को बढ़ाए। रिपब्लिकन पार्टी ने इसके लिए शर्त रखी कि ओबामा प्रशासन अपने
स्वास्थ्य संबंधी कार्यक्रम ओबामाकेयर को एक साल के लिए टाल
दे। इस बार यह झगड़ा मुख्य रूप से राष्ट्रपति स्वास्थ्य क्षेत्र में किए गए
सुधारों पर है। रिपब्लिकन किसी तरह से इसे लागू नहीं होने देना चाहते। ओबामा
द्वारा लाए गए बदलावों में से कई 1 अक्तूबर से लागू हो भी गए
हैं और कुछ रोक दिए गए हैं। पिछले राष्ट्रपति चुनाव में बराक ओबामा का यह मुख्य
चुनाव मुद्दा था।
Box.3
ओबामाकेयर से भारत को लाभ
अमेरिकी शटडाउन से भारत को भी वैसा ही नुकसान है जैसा किसी
दूसरे देश को। लोगों को तनख्वाह नहीं मिलेगी तो वे खर्चा नहीं करेंगे। वे खर्च
नहीं करेंगे तो अर्थव्यवस्था में मांग कम हो जाएगी और अर्थव्यवस्था और नीचे जाएगी।
अमेरिका में सुधार की वजह से भारत की अर्थव्यवस्था में भी सुधार हो रहा था, निर्यात बढ़ रहा था,
रुपए का मूल्य भी स्थिर हो रहा था क्योंकि अमेरिका और यूरोप
में खरीदारी बढ़ रही है। यह मामला लंबा खिंचता तो भारत, ब्राज़ील और चीन जैसी
उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं पर असर पड़ता। चीनी अर्थव्यवस्था की सफलता के पीछे
अमेरिका का बाजार है।
ओबामाकेयर से भारत को फायदा है। इसके कारण जेनेरिक दवाएं
बनाने वाली भारतीय कंपनियों को अमेरिका से अच्छे ऑर्डर मिलने की आशा है। अमेरिका
में इस्तेमाल होने वाली जेनेरिक दवाओं का चालीस प्रतिशत भारत से आता है। यह सप्लाई
और बढ़ेगी, क्योंकि अमेरिका में अब जेनेरिक दवाओं का इस्तेमाल बढ़ाने की मुहिम है।
भारत ने समय रहते अपने हैल्थ केयर ढाँचे को तैयार कर लिया होता तो अमेरिका के मरीज
यहाँ इलाज के लिए भी ने लगते। बीबीसी हिंदी के अनुसार अर्न्स्ट एंड यंग के
मुरलीधरन नायर का कहना है कि सस्ती दवाओं के ज़रिए अमेरिका में हर साल डेढ़ सौ अरब
डॉलर की बचत का लक्ष्य रखा गया है। इसका मतलब यह हुआ कि जेनेरिक दवाइयों के
क्षेत्र में काम कर रही कंपनियों के लिए मौका भी इतना ही बड़ा है। उनका कहना है, “अमेरिका में जिस तरह से जेनेरिक दवाओं का इस्तेमाल होता है उसमें ओबामाकेयर की
वजह से क्रांतिकारी बदलाव होगा। और ऐसी दवाओं की आपूर्ति करने वाले देश के तौर पर
भारत को भारी फ़ायदा होगा।”
अमेरिका में स्वास्थ्य इंश्योरेंस के बावजूद 90 प्रतिशत मरीज़ों को दवाइयों के लिए अपनी जेब से पैसे खर्च करने होते हैं। इसे
कम करने के लिए डॉक्टर भी अब जितना हो सके जेनेरिक दवाइयां ही सुझा रहे हैं।
स्वास्थ्य मामलों पर ओबामा प्रशासन की सलाहकार रह चुकीं कविता पटेल का कहना है कि
डॉक्टर जब दवा लिखते हैं तो उनके कंप्यूटर पर ब्रांडेड दवाओं का जेनेरिक विकल्प आ
जाता है और इससे मरीज़ों को काफ़ी बचत हो रही है। उनका कहना है, “आपको मैं कॉलेस्ट्रॉल का उदाहरण देती हूं जो यहां बड़ी समस्या है. इस बीमारी
के लिए जेनेरिक दवा की कीमत एक महीने में चार डॉलर होगी जबकि ब्रांडेड दवा के लिए
हर महीने 300 डॉलर का खर्च आएगा। और अगर आपने इंश्योरेंस भी ले रखा है तो ब्रांडेड दवा
खरीदने पर आपकी जेब से सौ से दो सौ डॉलर जाएंगे।”
इन दवाओं की क्वॉलिटी में कोई कमी नहीं हो इसके लिए अमरीकी
एजेंसी फ़ूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन भारत में भी इन पर नज़र रखती है. कई कंपनियों
को पिछले दिनों में ख़राब क्वॉलिटी का ख़ामियाज़ा भुगतना पड़ा है। जानकारों का
कहना है कि इस तरह की निगरानी अच्छी है क्योंकि इससे भारत में बनने वाली दवाओं पर
भरोसा और बढ़ेगा। दवाओं के अलावा स्वास्थ्य क्षेत्र में काम करने वाली भारतीय आईटी
कंपनियां भी बिज़नेस के नए मौके देख रही हैं।
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