चारा मामले में लालू यादव के अपराधी घोषित होने के बाद एक सवाल
मन में आता है कि क्या राहुल गांधी के दिमाग में कहीं बिहार की भावी राजनीति का नक्शा
तो नहीं था? उन्होंने यह सब सोचा हो या न सोचा हो, पर नीतीश
कुमार ने राहुल के वक्तव्य का तपाक से स्वागत किया। चारा घोटाले में उनके भी एक सांसद
शहीद हुए हैं, पर लालू की शिकस्त उनकी विजय है। अब राजनेताओं का गणित नए सिरे से बनेगा
और बिगड़ेगा। सीबीआई की राजनीतिक भूमिका और रंग लाएगी। सुप्रीम कोर्ट का 10 जुलाई का
फैसला दुधारी तलवार है, जिससे दोनों ओर की गर्दनें कटेंगी। राहुल गांधी की मंशा न जाने
क्या थी, पर निशाने पर मनमोहन सिंह भी आ गए हैं। उनका सीना भी जख्मी है। लालू का मामला
एक ओर सुधरती व्यवस्था को लेकर आश्वस्त करता है, वहीं राजनीति में बढ़ने वाले सम्भावित
अंतर्विरोधों की ओर इशारा भी कर रहा है।
चुनाव के इस दौर में राजनीति का रथ गहरे ढलान पर उतर गया है।
देखना यह है कि समतल पर पहुँचने के पहले इसके कितने चक्के बचेंगे। पिछले शुक्रवार को
राहुल ने जो कुछ कहा उससे उनकी राजनीति का कच्चापन सामने आता है। वे व्यवस्थावादी हैं,
यानी सिस्टम की बात करते हैं, व्यक्ति की नहीं। दूसरी नेता के रूप में उन्होंने शासन-व्यवस्था
को ढेर कर दिया। वे सत्ता के भीतर हैं या बाहर यह समझ में नहीं आता। शुद्धतावादी हैं
या व्यावहारिक राजनीति के क्रमबद्ध सुधार के समर्थक? उन्होंने जो लक्ष्मण रेखा खींची है उसे लाँघना सरकार के लिए मुश्किल होगा।
पर लालू इस ‘राहुल रेखा’ की पहली कैजुअल्टी
हैं। इससे बिहार का ही नहीं आने वाले समय की केन्द्रीय राजनीति का गणित बिगड़ेगा। राजनीति
का गटर फिर भी साफ नहीं होगा। पिछले तीन साल की उथल-पुथल के बावजूद व्यवस्था-सुधार
की सारी बातें पीछे रह गईं हैं। लोकपाल कानून, ह्विसिल ब्लोवर कानून, सिटिजन चार्टर
और चुनाव सुधार कहाँ चले गए?
चुनाव लड़ने के पहले प्रत्याशियों को अपनी मिल्कियत और आपराधिक
पृष्ठभूमि की जानकारी हलफनामा देकर बतानी पड़ती है। यह व्यवस्था दुनिया भर में अनूठी
है। यह व्यवस्था सरकार और सारे राजनीतिक दलों की अनिच्छा और विरोध के बावजूद लागू हो
पाई तो सिर्फ जन-मत और सुप्रीम कोर्ट के कारण। हाल में जन-प्रतिनिधित्व से जुड़े तीन
में से दो मसलों ने संसद को जन-भावनाओं का आदर करने को मजबूर किया है। पार्टियों को
आरटीआई के दायरे में लाने के आदेश को निष्प्रभावी करने वाला विधेयक स्थायी समिति के
पास भेजा गय़ा। दो साल से ज्यादा सजा पाने वाले जन-प्रतिनिधियों की सदस्यता समाप्ति
के सुप्रीम कोर्ट के आदेश को पलटने वाला विधेयक पास हुआ नहीं। हिरासत में रहते हुए
चुनाव लड़ने पर रोक लगाने वाले आदेश का परिष्कार करने वाला विधेयक पास हो गया। उसे
लेकर जनता का दबाव था भी नहीं। केवल हिरासत में होना किसी को दागी साबित नहीं करता।
अगस्त के पहले हफ्ते में जब संसद का मॉनसून सत्र शुरू होने जा रहा था तकरीबन सभी दलों
की राय थी कि सुप्रीम कोर्ट के 10 जुलाई के फैसलों को पलटना चाहिए। सत्र के आखिरी दिन
अचानक बीजेपी ने पैतरा बदला और हाथ खींच लिए। विधेयक राज्यसभा में पेश भी हो गया था।
बहरहाल अब सरकारी अध्यादेश गले की हड्डी है।
हमारे चुनाव पावर गेम है। इसमें ‘मसल और मनी’ मिलकर ‘माइंड’ पर हावी रहते हैं। जनता का बड़ा तबका भ्रष्टाचार
के खिलाफ आंदोलन का समर्थन सिर्फ इसलिए करता है क्योंकि उसे लगता है कि व्यवस्था पूरी
तरह ठीक न भी हो,
पर एक हद तक ढर्रे पर लाई जा सकती है। और यह भी कि व्यवस्था
जनता के लिए है,
जन-प्रतिनिधियों के लिए नहीं। पिछले शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट
ने नागरिकों के ‘राइट टु रिजेक्ट’ को मंजूरी
देकर एक और रास्ता खोला है। इसकी तार्किक परिणति है, ‘राइट टु
रिकॉल’ यानी चुन जाने के बाद भी छुट्टी। पर पहले हमें ‘राइट टु रिजेक्ट’ को परिभाषित करना होगा। यानी वोटर के
पास अधिकार हो कि वह कह सके कि इनमें से कोई प्रत्याशी चुने जाने लायक नहीं है। सबसे
ज्यादा वोट पाने वाले से भी ज्यादा वोट सबको खारिज करने वाले हों तो चुनाव दुबारा कराया
जाए।
चुनाव प्रणाली को न्यापूर्ण बनाने की जिम्मेदारी पार्टियों की
थी, पर उन्होंने अपनी सुविधा से काम किया। उन्होंने पारदर्शिता का स्वागत कभी नहीं
किया। हलफनामे की व्यवस्था रोकने के लिए उन्होंने पूरी ताकत लगा दी थी। अगस्त 2002
को को सरकार ने ऐसा ही एक अध्यादेश ज़ारी किया था, उसे राष्ट्रपति ने लौटाया था। फिर
भी जारी किया गया। इसके बाद संसद ने कानून में संशोधन करके वोटर के जानकारी पाने के
अधिकार को सीमित कर दिया। आखिरकार सुप्रीम कोर्ट ने 13 मार्च 2003 के अपने
फैसले में वोटर को प्रत्याशी के बारे में जानकारी पाने का अधिकार दिया। उसी अधिकार
के संदर्भ में इस महीने 13 सितंबर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि उम्मीदवार हलफनामे में शिक्षा, संपत्ति या पूर्व आपराधिक रिकार्ड पर कोई भी कॉलम खाली छोड़ता
है तो निर्वाचन अधिकारी उसका नामांकन खारिज कर सकता है। अभी तक हलफनामों में गलत विवरण
देने पर कठोर सजा की व्यवस्था नहीं है। अब जन प्रतिनिधित्व कानून 1951 की धारा 125
ए में बदलाव की ज़रूरत है। और यह भी कि क्या एक प्रत्याशी को एक से ज्यादा जगह से चुनाव
लड़ने की अनुमति होनी चाहिए?
राजनीति की भूलभुलैया को पार करना इतना आसान नहीं। शिक्षा का
प्रसार नहीं है। जानकारी के माध्यमों यानी मीडिया की दशा खराब है। फिर भी बदलाव हुआ
है। चुनाव के दौरान जो आचार संहिता लागू होती है, वह बाकी पाँच साल भी तो लागू रह सकती है। राजनीति को दो महीने मॉनीटर करने वाली व्यवस्था पाँचों साल भी
तो काम कर सकती है। हम सिर्फ प्रत्याशियों से पैसों का विवरण माँगते हैं। पार्टियों
से भी माँगना चाहिए। लालू यादव को सजा होना राजनीति के शुद्धीकरण की दिशा में एक बड़ा
कदम है। पर जातीय, धार्मिक और क्षेत्रीय पहचानों की राजनीति इतने मात्र से शुद्ध नहीं
होगी। हाँ, बर्तनों के खटकने से लगता है कि कुछ बदल रहा है।
हिन्दू में केशव का कार्टून |
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