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Monday, June 10, 2013

अब तो शुरू हुई है मोदी की परीक्षा

रविवार की शाम नरेन्द्र मोदी ने नए दायित्व की प्राप्ति के बाद ट्वीट किया : 'आडवाणी जी से फोन पर बात हुई. अपना आशीर्वाद दिया. उनका आशीर्वाद और सम्मान प्राप्त करने के लिए अत्यंत आभारी.' पर अभी तक आडवाणी जी ने सार्वजनिक रूप से मोदी को आशीर्वाद नहीं दिया है। यह व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं का टकराव है या कोई सैद्धांतिक मतभेद है? उमा भारती, सुषमा स्वराज और यशवंत सिन्हा ने सार्वजनिक रूप से मोदी को स्वीकार कर लिया है। इसके बाद क्या लालकृष्ण आडवाणी अलग-थलग पड़ जाएंगे? या राजनाथ सिंह उन्हें मनाने में कामयाब होंगे? और यह भी समझना होगा कि पार्टी किस कारण से मोदी का समर्थन कर रही है? 


भारतीय जनता पार्टी को एक ज़माने तक पार्टी विद अ डिफरेंस कहा जाता था। कम से कम इस पार्टी को यह इलहाम था। आज उसे पार्टी विद डिफरेंसेज़ कहा जा रहा है। मतभेदों का होना यों तो लोकतंत्र के लिए शुभ है, पर क्या इस वक्त जो मतभेद हैं वे सामान्य असहमति के दायरे में आते हैं? क्या यह पार्टी विभाजन की ओर बढ़ रही है? और क्या इस प्रकार के मतभेदों को ढो रही पार्टी 2014 के चुनाव में सफल हो सकेगी?

ये सवाल भाजपा के सामान्य कार्यकर्ता से लेकर शिखर नेतृत्व तक के मन में हैं। लालकृष्ण आडवाणी की अनुपस्थिति में और सहमति के बगैर नरेन्द्र मोदी को सन 2014 के चुनाव की बागडोर थमा तो दी गई, पर उसके पीछे वह सामूहिक बल नहीं है, जिसकी भाजपा को ज़रूरत है। इस बात पर पार्टी नहीं टूटेगी, पर आडवाणी जी को मनाने की कोशिशें करनी होंगी। यह काम कौन करेगा?


जिस तरह कांग्रेस को नेहरू गांधी परिवार बिखरने से बचाता है उसी तरह भाजपा को संघ परिवार एकताबद्ध रखता है। इसका मतलब यह भी नहीं कि आडवाणी को अपमानित करके काम हो जाएगा। पार्टी के भीतर राय बन रही है कि आज के हालात को देखते हुए भाजपा ज्यादा से ज्यादा 150-160 सीटें जीत सकती है। इस प्रदर्शन को बेहतरीन कहा जाएगा, पर यह भी सरकार बनाने के लिए पर्याप्त नहीं होगा। 

कुछ लोगों का मानना है कि मोदी के आगे आने से यह संख्या 180 के आगे जा सकती है। सन 2009 के चुनाव में भाजपा को 116 111171171116, 2004 में 137 और 1999 और 1998  में 182 सीटें मिलीं थीं। 180 के ऊपर जाने का मतलब है भाजपा का आज तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन। क्या मोदी यह चमत्कार कर सकते हैं?

बीजेपी नेतृत्व में बिखराव नई बात नहीं, पर पहली बार खुलेआम दिखाई पड़ा है। माना जाता है कि भारतीय जनता पार्टी की कोर विचारधारा हिन्दुत्व है, क्योंकि यह पार्टी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पहल पर बनी है। यह बात काफी हद तक सही है, पर पूरी तरह नहीं। 

हिन्दुत्व या राष्ट्रवाद इसका केन्द्रीय विचार है, पर अपने जन्म से ही यह तरह के भ्रमों से उलझी रही है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ स्वतंत्रता को लेकर बहुत उत्साहित नहीं था। पर जब सब कुछ तय हो गया तो यह विचार बनने लगा कि उसे अब एक राजनीतिक दल के रूप में संगठित होना चाहिए। जुलाई 1947 से ऑर्गनाइज़र नाम से अखबार निकलना शुरू हो गया था, जिसमें कमल नाम से बलराज मधोक ने लेख लिखकर संघ का आह्वान किया कि वह कुछ करे। पर संघ के पास नेता नहीं था। अगले दो-ढाई साल चिंतन मनन में बीते।

संयोग से 1950 में श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने केन्द्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफा दिया। वे पूर्वी पाकिस्तान में हिन्दुओं की दुर्दशा को लेकर नाराज़ थे। 19 अप्रेल 1950 को जिस रोज़ उन्होंने सरकार से इस्तीफा दिया उसी शाम दिल्ली के कुछ नागरिकों ने उनका अभिनंदन किया। इनमें संघ के काफी कार्यकर्ता थे। इसे हम दिल्ली ग्रुप कह सकते हैं।

श्यामा प्रसाद ने राजनीतिक जीवन की शुरूआत कांग्रेस से की थी, पर बाद में वे हिन्दू महसभा में चले गए थे। उनका हिन्दुत्व अपेक्षाकृत उदार था। महासभा को वे केवल हिन्दुओं तक सीमित नहीं रखना चाहते थे। बहरहाल श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने 5 मई 1951 को कलकत्ता में पीपुल्स पार्टी की स्थापना की। उधर 27 मई को दिल्ली के उसी ग्रुप के लोगों ने जिन्होंने श्यामा प्रसाद का अभिनंदन किया था, जालंधर में भारतीय जनसंघ बनाने की अनौपचारिक घोषणा कर दी। इस बीच गुरु गोलवलकर के साथ बातचीत के बाद श्यामा प्रसाद मुखर्जी जनसंघ में आने को तैयार हो गए और औपचारिक रूप से इसका गठन 21अक्टूबर को दिल्ली में हुआ।

बेशक यह संघ का संगठन है, पर श्यामा प्रसाद मुखर्जी का पहला अध्यक्षीय भाषण गुरु गोलवलकर की स्थापनाओं के मुकाबले उदार और असाम्प्रदायिक था। शुरू से ही जनसंघ के मूल तत्व में दो बातें घुली-मिली हैं। एक, राष्ट्रवाद या हिन्दुत्व और दूसरा कांग्रेस से विरोध। श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने संघ के व्यापक आधार का सहारा लिया और पार्टी को व्यापक आधार दिया। एक हद तक अटल बिहारी वाजपेयी ने भी यही काम किया।

लालकृष्ण आडवाणी ने भी पाकिस्तान में जिन्ना के मज़ार पर जाकर अपने आधार को व्यापक बनाने की कोशिश की जिसमें वे नाकाम रहे और भाजपा के सामने नेतृत्व का वह संकट पैदा हुआ जो आजतक कायम है। जून 2005 में आडवाणी जी ने अपनी पाकिस्तान यात्रा के दौरान अपनी छवि को बदलने की कोशिश की, पर जिन्ना की तारीफ का प्रसंग उनके खिलाफ गया। आडवाणी दिल्ली वापस आए तो हिंदू जागरण मंच ने हवाई अड्डे पर नारा लगाया- जिन्ना समर्थक, पाकिस्तान प्रेमी आडवाणी वापस जाओ। उन्हें अध्यक्ष पद से इस्तीफा देना पड़ा।

बीजेपी का हिन्दुत्व अब वोट दिलाऊ अवधारणा नहीं है। साफ-सुथरी पार्टी की छवि भी अब उसके पास नहीं है। नरेन्द्र मोदी ने अपनी छवि कारोबार-मित्र और कुशल प्रशासक की बनाई है। उनका हिन्दुत्व कारोबारी रूप में सामने आया है। देश के कॉरपोरेट सेक्टर का समर्थन उन्हें प्राप्त है। पर पार्टी के अनेक नेता खुद को मोदी से ज्यादा सीनियर मानते हैं। यह शुद्ध रूप से अहं की लड़ाई है। कांग्रेस का कहना है कि जो पार्टी शीर्ष स्तर पर इस कदर विभाजित है, वह देश कैसे चला सकती है?

नरेन्द्र मोदी विवादास्पद नेता हैं। उनसे नफरत करने वालों की संख्या काफी बड़ी है तो पसंद करने वाले भी कम नहीं हैं। उनके आलोचक मानते हैं कि मोदी के पक्ष में चल रहा अभियान मीडिया की देन है। पर उनके प्रति नफरत में भी तो मीडिया का हाथ है। सन 2002 में गुजरात की हिंसा को सामने लाने वाला कौन था?

समूचा मीडिया मोदी समर्थक नहीं है। मीडिया में भाजपा समर्थक हैं तो कांग्रेस समर्थक भी हैं। वास्तव में मीडिया की भूमिका है। मसलन पिछले दिनों असम के दंगों को लें। चूंकि मीडिया की पहुँच असम में उतनी नहीं थी, जितनी 2002 के गुजरात में थी, इसलिए असम के दंगों की कमरेज नहीं हो पाई। दुष्प्रचार करने वालों ने असम के दंगों की चंद गलत-सलत तस्वीरें सोशल मीडिया के मार्फत प्रचारित करके भारत में माहौल बिगाड़ने की कोशिश ज़रूर की, पर इसके पीछे भाजपाई समझ नहीं थी। इसलिए यह बात राजनीतिक रंग नहीं ले पाई।

दो साल पहले तक नरेन्द्र मोदी 2002 के दंगों के कारण बदनाम थे। गुजरात के पिछले चुनाव के दो साल पहले से कांग्रेस ने मोदी को साम्प्रदायिक सवाल के बजाय विकास के सवाल पर घेरने की कोशिश की। मोदी अब विकास के सवाल पर ही राजनीति कर रहे हैं। उनकी राजनीति में हिन्दुत्व पीछे चला गया है। 

वे कॉरपोरेट सेक्टर के पक्षधर हैं, पर क्या वे कांग्रेस से ज्यादा बड़े कॉरपोरेट परस्त हैं? कांग्रेस भी घोषित नहीं कर सकती कि वह कॉरपोरेट सेक्टर विरोधी पार्टी है।

मोदी विनम्र नहीं हैं और अपनी तारीफ खुद करते हैं। इसीलिए उनका नाम किसी ने फेंकू रखा है। यह गुण इंदिरा गांधी का भी था। इंदिरा गांधी 1969-70 में अपनी पार्टी के खुर्राट नेताओं के मुकाबले जिस तरह खड़ी हुईं थी, कुछ वैसा ही हमें आज भाजपा में देखने को मिल रहा है। राजनीति में नेता और संगठन दोनों का महत्व होता है। कई बार संगठन को नेता की तलाश होती है।  

सवाल है लालकृष्ण आडवाणी और कुछ दूसरे नेता जिस बात के पक्ष में नहीं हैं, उसे मनवाने पर भाजपा ज़ोर क्यों दे रही है? कार्यकर्ता का दबाव है। पार्टी के सामने जीवन-मरण का प्रश्न है। सफलता के लिए उसे कोई जोखिम उठाना होगा। कांग्रेस-विरोध का ध्वज इस दौर में मोदी के हाथ में है।

कांग्रेस को भी मोदी महत्वपूर्ण लगते हैं, भाजपा नहीं। पिछली 4 अप्रैल को सीआईआई के सामने कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गाँधी ने कहा, यह सोचना गलत होगा कि सफेद घोड़े पर सवार कोई व्यक्ति इस देश की समस्याओं का समाधान कर देगा। उनका इशारा आडवाणी या सुषमा स्वराज की ओर नहीं था। 

कांग्रेस क्या मोदी से घबराती है? एक वजह है युवा वोटर। मोदी के समर्थकों में मध्यवर्गीय युवा वोटरों की संख्या काफी है। यह मोदी का अपना आभा मंडल है, संघ का नहीं। मोदी के आभा मंडल के क्रमशः विस्तार का महत्वपूर्ण चरण पूरा हुआ। परिणाम मिलने में अभी समय है। उसके पहले अभी कई किन्तु-परन्तु और हैं।
सी एक्सप्रेस में प्रकाशित

सतीश आचार्य का कार्टून सतीश आचार्य के कार्टूनों में आमतौर पर भाजपा का समर्थन होता है।

हिन्दू में केशव का कार्टून

5 comments:

  1. प्रमोद जी बहुत बढ़िया लिखा है आपने

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  2. बिलकुल सटीक बात कही है अपनें..

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  3. भारत कि जनता को एक नेता कि अरसे से तलाश हैं. जो उनके स्वप्नों को पूरा कर सके. भारत को एक महाशक्ति बना सके. जनता को मोदी में ये बात दिखाई देती हैं. एक बार मोदी जी जब चलेंगे, तो उनकी हवा एक तूफ़ान में परिवर्तित हो जायेगी, जिसमे यह कांग्रेस, सपा, बसपा, आदि मुस्लिम परस्त दल उड़ जायेंगे.

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  4. आगे आगे देखिये होता है क्या !

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  5. प्रमोद जी ! पिछले दो-तीन बरस में , हमारी बडी किरकिरी हुई है , देश की समस्याओं के आगे, प्रधानमन्त्री का मौन, यक्षप्रश्न की तरह , सम्पूर्ण देश को निगल रहा है, ऐसे में एकमात्र नरेन्द्र मोदी ही हैं जो युधिष्ठिर की तरह उभर कर आए हैं । अभी जिस तरह की परिस्थितियॉं हैं , उसको संभालने का साहस, किसी पार्टी के किसी व्यक्ति में नहीं है । एकमात्र नरेंद्र मोदी ही है , जिनमें यह क्षमता है । वे एक संन्यासी की तरह हैं और मात्र भारत-स्वाभिमान उनके जीवन का उद्देश्य है । देश की जनता यह जान गई है और इसलिए , देश की बागडोर उनके हाथ में देना चाहती है ।

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