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Wednesday, May 22, 2013

मीडिया को चाहिए हर रोज़ एक नया शिकार


विन्दु दारा सिंह की गिरफ्तारी की खबर ऐसी छाई कि मंगलवार को नरेन्द्र मोदी की दिल्ली यात्रा की खबर सामने आ ही नहीं पाई। कोलगेट, टूजी, सीबीआई वगैरह पीछे रह गए हैं।लद्दाख का मसला पिछले दिनों मीडिया पर छाया रहा, पर जब चीनी प्रधानमंत्री दिल्ली आए तो उसपर किसी ने ध्यान नहीं दिया। पाकिस्तान का चुनाव एक दिन का रोमांच पैदा कर पाए। मीडिया के मुँह में रोमांच का खून लग गया है। जंगल के शेर की तरह उसे हर रोज़ और हर समय रोमांच से भरा एक शिकार चाहिए। 

बेशक यह किसी की साज़िश नहीं है, पर लगता है कि टी-20 क्रिकेट ने कुछ समय के लिए दिल्ली सरकार को मीडिया-फोकस से बाहर कर दिया है। यीह अलग बात है कि यह फिक्सिंग का भूत भी भविष्य में जाकर राजनीति के किसी महारथी को न दबोच ले।

दिल्ली के पुलिस कमिशनर खुद इस मामले की पड़ताल कर रहे हैं। हाल में उन्हें कई मामलों में मीडिया से निगेटिव कवरेज मिली, जिसकी कमी वे परी कर रहे हैं। हर रोज़ कुछ न कुछ नया सामने आ रहा है। पर इन सब बातों से जनता की इस धारणा की पुष्टि हो रही है कि ऊपर सब ठीक-ठाक नहीं है।

हर सुबह मीडिया बोले तो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के न्यूज़ रूमों में विचार-विमर्श शुरू हो जाता है कि आज क्या खेला जाए। किस खबर में खेल का तत्व है। उसे उछाल देने मात्र से काम हो जाता है। बाकी बातें पीछे रह जाती है। इसे एग्रेशन कहते हैं। कस के, जरा ज़ोर लगा के। वे बहस भी चाहते हैं तो अर्णब के दरबार जैसी।

भाजपा और कांग्रेस के प्रवक्ता टाइप नेताओं की बुकिंग सुबह से ही होने लगती है। एनजीओ मार्का सोशल एक्टिविस्टों के भी नखरे हैं। उन्हें भी चैनलों का फर्क समझ में आने लगा है। उनकी कोशिश होती है कि टाइम्स नाव, सीएनएन-आईबीएन, एनडीटीवी, एबीपी न्यूज़, ज़ी न्यूज़, आईबीएन7 वगैरह पर बैठें। नए चैनलों के फोन वे नहीं उठाते है। उठाते भी है तो जवाब देते हैं, अरे भाई अर्णब ने बुलाया है। चैनलों के भीतर यह गट्स की बात होती है कि वे किसे ले आए। उधर नेता चाहते हैं कि पार्टी की कोई ज़रूरी बैठक प्राइम टाइम पर न हो।

अंग्रेजी चैनलों के कुछ पूर्व निर्धारित पत्रकार हैं। हिन्दी चैनल भी चाहते हैं कि 'कायदे के' पत्रकार उनके दरबार में शोभा बढ़ाएं। हिन्दी अखबारों के सम्पादक बहुत कम इन चर्चाओं में नज़र आते है. जिनके पास लिखने-पढ़ने का काम है उनके पास फुर्सत नहीं। जिनके पास दिनभर जन-सम्पर्क के अलावा कोई काम नहीं, उनके पास राजनीतिक धड़ेबाज़ी के अलावा व्यक्त करने के लिए विचार नहीं हैं। अक्सर पत्रकार और नेता का फर्क नज़र नहीं आता, क्योंकि एग्रेशन के चक्कर में सारे लोग विचार को त्याग कर दूसरे की ऐसी-तैसी करने पर ज्यादा ज़ोर देने लगे हैं। विचार सुनने को मिलते हैं करन थापर के 'लास्ट वर्ड' में।

टीवी के बाद अब इंटरनेट पर सबका ध्यान है। बताते हैं कि कांग्रेस पार्टी ने सोशल मीडिया के लिए कोई बड़ी योजना तैयार की है। मंगलवार को खुफिया मामलों के लेखक बी रामन ने ट्वीट किया, Heard from a source--zCong has set up a social media war room in Rakabganj Road headed by One Pachauri different from PM's …। उसी रोज़ भाजपा के संसदीय बोर्ड की बैठक में नरेन्द्र मोदी ने सुझाव दिया कि सोशल मीडिया को पकड़ो। लगता है ट्विटर और फेसबुक पर रोमांच आने वाला है। हो सकता है टीवी का तूफान गुज़र जाने के बाद वहाँ गंभीर विमर्श होने लगे। फिलहाल तो किसी में धीरज दिखाई पड़ता नहीं। 

1 comment:

  1. मिडिया को सनसनी चाहिये , रही सही कसर मिडिया में बैठे वामपंथी पत्रकार पूरी कर देते है |
    यही कारण है कि आज इलेक्रोनिक्स मिडिया जनता में अपनी विश्वसनीयता खो चूका है ,पर हाँ अभी तक उसकी दुकानदारी जमी हुई है इसलिए उसे फर्क महसूस नहीं हो रहा !!

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