भारत और चीन के बीच जितने
अच्छे रिश्ते व्यापारिक धरातल पर हैं उतने अच्छे राजनीतिक मसलों में नहीं हैं। लद्दाख
का विवाद कोई बड़ी शक्ल ले सके पहले ही इसका हल निकाल लिया जाना चाहए। पर उसके पहले
सवाल है कि क्या यह विवाद अनायास खड़ा हो गया है या कोई योजना है। हाल के वर्षों में
चीन के व्यवहार में एक खास तरह की तल्खी नज़र आने लगी है। इसे गुरूर भी कह सकते हैं।
यह गुरूर केवल भारत के संदर्भ में ही नहीं है। उसके अपने दूसरे पड़ोसियों के संदर्भ
में भी है। जापान के साथ एक द्वीप को लेकर उसकी तनातनी काफी बढ़ गई थी। दक्षिण चीन
सागर में तेल की खोज को लेकर वियतनाम के साथ उसके रिश्तों में तल्खी आ गई है। संयोग
से भारत भी उस विवाद में शामिल है। दक्षिणी चीन सागर में अधिकार को लेकर चीन का वियतनाम,
फिलीपींस, ताइवान, ब्रुनेई और मलेशिया
के साथ विवाद है। चीन इस पूरे सागर पर अपना दावा जताता है जिसका पड़ोसी देश विरोध करते
है। चीन के सबसे अच्छे मित्रों में पाकिस्तान का नाम है। यह इसलिए है कि हमारा पाकिस्तान
के साथ विवाद है या पाकिस्तान ने चीन का साथ इसलिए पकड़ा है कि वह भविष्य में भी हमारा
प्रतिस्पर्धी रहेगा, कहना मुश्किल है।
हाल के वर्षों में अरुणाचल
के कुछ अधिकारियों की यात्रा, स्टैपल्ड वीज़ा, तिब्बत में नदियों पर बनाए जा रहे बाँधों
और सीमा पर घुसपैठ को लेकर दोनों देशों के बीच विवाद खड़े हुए हैं। दोनों देशों के
बीच सीमा इतनी बड़ी और ऐसे भौगोलिक क्षेत्र में है, जहाँ फौजियों के भटक कर एक-दूसरे
के इलाके में पहुँच जाने का अंदेशा हमेशा बना रहता है। पर इस बार यह भटकाव नहीं है,
क्योंकि चीनी सैनिक 10 किलोमीटर भीतर तक आ गए हैं। दूसरे चीन इस बात पर जोर देकर कह
रहा है कि हमारी सेना अपने क्षेत्र में है। यानी उस भूभाग के स्वामित्व के बारे में
उसकी और हमारी राय एक नहीं है। दोनों देशों के फौजी अधिकारियों के बीच दो फ्लैग मीटिंग
हो चुकी हैं, जिनमें कोई रास्ता नहीं निकला है। तीसरी मीटिंग सम्भवतः अगले हफ्ते शुक्रवार
को होगी। दूसरी मीटिंग में चीन की ओर से एक माँग आई है कि भारत लद्दाख के किसी दूसरे
क्षेत्र से अपनी चौकी हटा ले तो हम यहाँ से हट जाएंगे। इसका मतलब क्या यह है कि वह
कोई मोलभाव कर रहा है? क्या इस क्षेत्र का कोई विशेष
सामरिक महत्व है? कराकोरम दर्रे और सियाचिन
ग्लेशियर से इस इलाके की नज़दीकी को देखते हुए ऐसे सवाल भी मन में आते हैं।
चीन के प्रधानमंत्री ली ख
छ्यांग मई के तीसरे सप्ताह में भारत आने वाले हैं। पिछले छह सात साल का अनुभव है कि
जब भी कोई महत्वपूर्ण चीनी राजनेता भारत आता है कोई न कोई विवाद उसके पहले खड़ा हो
चुका होता है। क्या इस बार भी चीन की कोई रणनीति है? या यह उसके सहज रूप
से बढ़ते आत्मविश्वास का संकेत मात्र है? इसके बरक्स यह सवाल
भी है कि क्या भारत सरकार दबकर काम कर रही है? यह बात समझ में आती
है कि सरकार को भड़काऊ बातें नहीं बोलनी चाहिए, पर 10 दिन से मीडिया में इसकी कवरेज
के बावज़ूद भारत सरकार ने कोई वक्तव्य जारी नहीं किया। विदेश मंत्री ने कोई बात तभी
कही जब भारतीय मीडिया की कवरेज के जवाब में चीन सरकार ने कहा कि हमारी सेना अपनी सीमा
के भीतर है। इसके अलावा भारतीय जनता पार्टी ने इसे राजनीति का मुद्दा भी बनाया। जब
इतना बड़ा सवाल सामने था तब जनता के सामने अपना पक्ष न रखना बताता है कि सरकार दुविधा
में है। दोनों देशों के बीच 11 अप्रेल सन 2005 के समझौते के तहत
सीमा पर तनाव घटाने के तरीकों का जिक्र है। इसमें यह भी बताया गया है वास्तविक नियंत्रण
रेखा की परिभाषा को लेकर विवाद हो तो उसे किस तरह सुलझाया जाए। हाल के वर्षों में दोनों
देशों ने व्यापारिक सहयोग को प्राथमिकता दी है और यह विश्वास व्यक्त किया है कि सीमा
विवाद के कारण व्यापारिक रिश्ते नहीं रोके जाएंगे। और यह भी कोशिश की जाएगी कि सीमा
पर तनाव की दशा में कोई भी पक्ष बल का प्रयोग नहीं करेगा। दोनों पक्ष यथास्थिति बनाए
रखेंगे और आगे बढ़े हुए स्थान पर कोई स्थायी चौकी नहीं बनाएगा। लद्दाख के जिस क्षेत्र
में चीनी सेनाएं देखी गईं हैं वहाँ उन्होंने कोई चौकी नहीं बनाई है। केवल तम्बू लगाए
गए हैं। किसी प्रकार के निर्माण की गतिविधि भी वहाँ नहीं है। इसलिए नहीं कहा जा सकता
कि चीन के खतरनाक इरादे हैं। चूंकि चीनी प्रधानमंत्री की भारत यात्रा के रक्षा मंत्री
के चीन जाने का कार्यक्रम है। विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद भी चीन जाने वाले हैं। इन
दौरों के पहले यदि यह मसला नहीं निबटा तो विवाद बढ़ सकता है।
हाल के वर्षों में चीनी सेना
ने कई बार सीमा पार की है। चीनी सेना भारतीय प्रशासित इलाके में पहचान के तौर पर अपने
प्रतीक चिह्न भी बना जाती है। पर इस बार की घुसपैठ अभूतपूर्व रूप से गहरी है। चीन पूर्वोत्तर
में अरुणाचल प्रदेश के 90,000 वर्ग किलोमीटर इलाके
पर अपना दावा जताता है। भारत का आरोप है कि कश्मीर में 38,000 वर्ग किलोमीटर जमीन चीन के कब्जे में है। सीमा
विवाद को लेकर दोनों देशों के बीच अब तक 15 दौर की बातचीत भी हो चुकी है लेकिन कोई ठोस नतीजा नहीं निकला। दलाई लामा का भारत
में रहना भी चीन को नापसंद है। वह दक्षिण चीन सागर में वियतनाम के साथ काम कर रही भारतीय
कंपनियों के रुख से भी नाराज रहता है।
पिछले साल 18 नवम्बर को श्रीलंका
के हम्बनटोटा बन्दरगाह का उद्घाटन करते हुए प्रधानमंत्री महीन्दा राजपक्षे ने कहा था,
चीन और भारत के नेतृत्व में तेजी से विकसित होते
एशिया के साथ हमारा देश भी आगे बढ़ेगा। इस वक्तव्य को पोलिटिकली करेक्ट करने के लिए
क्या चीन के साथ भारत का नाम सायास जोड़ा गया था? हम यह जानते हैं कि तकरीबन डेढ़ अरब डॉलर की राशि से विकसित
हो रहा हम्बनटोटा बन्दरगाह श्रीलंका और चीन के मैत्री सम्बन्धों की कहानी है। भारत
सरकार के लिए श्रीलंका का तमिल प्रश्न गले की हड्डी बन गया है। लिट्टे और श्रीलंका
सरकार दोनों हमारे खिलाफ रहे। इस बीच श्रीलंका सरकार ने चीन के साथ रिश्ते बेहतर बना
लिए हैं। चीन ने श्रीलंका में केवल हम्बनटोटा बंदरगाह बनाने में ही मदद नहीं दी है।
हम्बनटोटा के उद्घाटन के दो महीने पहले सितम्बर में चीन के रक्षामंत्री लियांग गुआंग
ली श्रीलंका आए थे। चीन ने श्रीलंका को 10 करोड़ डॉलर (तकरीबन 550 करोड़ रु) की सैन्य
सहायता दी है।
पाकिस्तान-ईरान सीमा पर चीन
ने पाकिस्तान के लिए न सिर्फ ग्वादर बंदरगाह तैयार कर दिया है, उसका संचालन भी उसके पास आ गया है। पाकिस्तान ने
सन 2007 में पोर्ट ऑफ सिंगापुर अथॉरिटी के साथ 40 साल तक बंदरगाह के प्रबंध का समझौता
किया था। यह समझौता अचानक अक्टूबर 2012 में खत्म हो गया। और अब यह चीन के हवाले है।
पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के गिलगित क्षेत्र में चीन सड़क बना रहा है, जो उसके जिनशियांग
प्रांत को पाकिस्तान से जोड़ेगी। यह सड़क अंततः ग्वादर तक जाएगी। इस प्रकार चीन को
अरब सागर तक जाने का जमीनी रास्ता मिल जाएगा। बंगाल की खाड़ी के उत्तर में कोको द्वीपों
को म्यांमार सरकार ने 1994 में चीन को सौंप दिया। हालांकि म्यांमार या चीन सरकार ने
कभी आधिकारिक रूप से इसकी पुष्टि नहीं की, पर यह खुली जानकारी में है कि अंडमान निकोबार से तकरीबन 20 किलोमीटर दूर चीन ने
सैनिक अड्डा बना लिया है, जहाँ से भारतीय नौसेना
की गतिविधियों पर नज़र रखी जाती है। यह सिर्फ संयोग नहीं था कि मालदीव के माले हवाई
अड्डे का काम भारतीय कम्पनी जीएमआर के हाथों से ले लिया गया। वहाँ चीनी गतिविधियाँ
बढ़ रहीं हैं। पिछले साल 7 फरवरी को मालदीव के राष्ट्रपति मुहम्मद नशीद के तख्ता पलट
को हमने गम्भीरता से नहीं लिया। वहाँ के पूर्व राष्ट्रपति नशीद ने फरवरी 2012 में इंडियन
एक्सप्रेस को दिए एक इंटरव्यू में कहा था कि हमने चीन के साथ एक रक्षा करार को नामंज़ूर
कर दिया था। अब वहाँ चीनी प्रभाव बढ़ेगा। यह बातें कई तरह के संदेह पैदा करती हैं।
इनके मूल में हालांकि चीन के आर्थिक विस्तार की मनोकामना है, पर आर्थिक विस्तार तभी
सम्भव है जब सामरिक शक्ति उसे सहारा दे। यह बात चीन पर जितनी लागू होती है, उतनी ही
हम पर भी लागू होती है। नेशनल दुनिया में प्रकाशित
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