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Tuesday, March 5, 2013

हम भी छू सकते हैं सूरज और चाँद बशर्ते...


बजट सत्र की शुरूआत करते हुए राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने घोषणा की कि भारत इस साल अपना उपग्रह मंगल ग्रह की ओर भेजेगा। केवल मंगलयान ही नहीं। हमारा चन्द्रयान-2 कार्यक्रम तैयार है। सन 2016 में पहली बार दो भारतीय अंतरिक्ष यात्री स्वदेशी यान में बैठकर पृथ्वी की परिक्रमा करेंगे। सन 2015 या 16 में हमारा आदित्य-1 प्रोब सूर्य की ओर रवाना होगा। और सन 2020 तक हम चन्द्रमा पर अपना यात्री भेजना चाहते हैं। किसी चीनी यात्री के चन्द्रमा पहुँचने के पाँच साल पहले। देश का हाइपरसोनिक स्पेसक्राफ्ट अब किसी भी समय सामने आ सकता है। अगले दशक के लिए न्यूक्लियर इनर्जी का महत्वाकांक्षी कार्यक्रम तैयार है। एटमी शक्ति से चलने वाली भारतीय पनडुब्बी अरिहंत नौसेना के बेड़े में शामिल हो चुकी है। हमारा अपना बनाया तेजस विमान तैयार है। युद्धक टैंक अर्जुन-2 दुनिया के सबसे अच्छे टैंकों से भी बेहतर बताया जा रहा है। भारत के डिज़ाइन से तैयार हो रहा है अपना विमानवाहक पोत। हम रूस के साथ मिलकर पाँचवी पीढ़ी का युद्धक विमान विकसित कर रहे हैं। रूस के साथ मिलकर ही बहुउद्देश्यीय माल-वाहक विमान भी हम डिज़ाइन करने जा रहे हैं।

नए राजमार्गों और बुलेट ट्रेनों का दौर भी शुरू होने वाला है। पिछले साल के रेलवे बजट में रेलमंत्री दिनेश त्रिवेदी ने जानकारी दी थी कि छह मार्गों पर हाईस्पीड यानी 300 किलोमीटर की गति से ज्यादा तेजी से रेलगाड़ियाँ चलाने का अध्ययन किया जा रहा है। 25 जुलाई 2012 को रेल विकास निगम के अंतर्गत हाई स्पीड रेल कॉरपोरेशन के नाम से एक नई कम्पनी बनाई गई है। अभी हम जापान, जर्मनी, फ्रांस और चीन की हाई स्पीड व्यवस्थाओं का अध्ययन कर रहे हैं। वर्तमान रेलगाड़ियों की स्पीड 200 किलोमीटर या उससे ऊपर करने की एक परियोजना आईआईटी, खड़गपुर के रेलवे रिसर्च सेंटर को सौंपी गई है। उम्मीद है इसकी रिपोर्ट सन 2015 तक मिलेगी। प्रायः सभी बड़े शहरों में मेट्रो ट्रेन चलाने की योजना है। देश की ज्ञान-आधारित संस्थाओं को जानकारी उपलब्ध कराने के लिए हाईस्पीड नेशनल नॉलेज नेटवर्क काम करने लगा है। भारत विज्ञान और तकनीक के नए दौर में प्रवेश कर रहा है। क्या हम किसी रोज दुनिया की सबसे अगली पंक्ति के देश बनेंगे? क्या हम आज के सुपर पावर अमेरिका के बराबर आ सकते हैं या उसे पीछे भी छोड़ सकते हैं?
यह सब कुछ सम्भव है, पर आज का भारत आधुनिक विज्ञान और टेक्नॉलजी में यूरोप और अमेरिका से बहुत पीछे हैं। आधुनिक विज्ञान की क्रांति यूरोप में जिस दौर में हुई उसे एज ऑफ डिसकवरी कहते हैं। ज्ञान-विज्ञान आधारित इस क्रांति के साथ भी भारत का सम्पर्क सबसे पहले हुआ। सन 1928 में सर सीवी रामन को जब नोबेल पुरस्कार मिला तो यूरोप और अमेरिका की सीमा पहली बार टूटी थी। सन 1945 में जब मुम्बई में टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च की स्थापना हुई थी तब विचार यही था कि आधुनिक भारत विज्ञान और तकनीक के सहारे उसी तरह आगे बढ़ेगा जैसे यूरोप बढ़ा। पर ऐसा हुआ नहीं। अमेरिका और यूरोप की बात छोड़िए हम अभी चीन से काफी पीछे हैं। पिछले साल भुवनेश्वर में राष्ट्रीय विज्ञान कांग्रेस के उद्घाटन समारोह में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा कि हम विज्ञान और तकनीक में चीन से पिछड़ गए हैं। प्रति व्यक्ति आय, सकल आय और विकास दर, विदेशी निवेश, साक्षरता, विदेशी मुद्रा भंडार, विदेश-व्यापार हर मामले में चीन हमसे काफी आगे है।
भारत में आज भी विदेशी निवेश उतना नहीं है, जितना चीन में सन 1996 में था। हमारे सकल घरेलू उत्पाद का एक फीसदी पैसा भी विज्ञान और तकनीक में नहीं लग रहा है। अमेरिकी तकनीकी शिक्षा संस्थान एमआईटी की तर्ज पर आईआईटी खड़गपुर की स्थापना करके भारत सरकार ने इस रास्ते पर कदम बढ़ाए भी। पर जिस गति से इसका विस्तार होना चाहिए वह नहीं हो पाया। आज हमारे पास सोलह आईआईटी हैं। तीस एनआईटी हैं। इनके अलावा तकरीबन तीन हजार दूसरे इंजीनियरी कॉलेजों से पढ़कर करीब पाँच लाख इंजीनियर हर साल बाहर निकल रहे हैं। बायो टेक्नॉलजी, मेडिकल कॉलेजों और भारतीय प्रबंध संस्थानों के अलावा तमाम निजी कॉलेजों से नौजवानों की टोलियाँ पढ़कर निकल रहीं हैं। नेशनल नॉलेज कमीशन के अनुसार हमें अभी 1500 नए विश्वविद्यालयों की ज़रूरत है। पर केवल विश्वविद्यालयों के खुलने से काम नहीं होता। शिक्षा की गुणवत्ता सबसे ज़रूरी है।
इतने विश्वविद्यालय और इंजीनियरी कॉलेज खोलने के साथ-साथ यह भी देखना होगा कि क्या हमारे पास पढ़ाने वाले काबिल अध्यापकों की संख्या क्या है। तीन लाख इंजीनियरी ग्रेजुएटों की तुलना में हम हर साल तकरीबन 20 हजार इंजीनियरी में मास्टर्स डिग्रीधारी और तकरीबन एक हजार पीएचडी ही तैयार कर पा रहे हैं। इनमें भी बेहतर लोग भारत से बाहर चले जाते हैं। देखना होगा कि यूरोप और अमेरिका के समाज ने ऐसा क्या किया जो वे वैज्ञानिक प्रगति कर पाए। विज्ञान और तकनीक की बात करें तो चीन ही नहीं जापान, ताइवान, हांगकांग, सिंगापुर और इस्राइल हमसे आगे हैं। किसी देश को पछाड़ने के बजाय अपनी समस्याओं को समझना और उनके समाधान खोजना वैज्ञानिकता है। उसी तरह जैसे दूसरे विश्वयुद्ध में पराजित जापान ने अपने पुनर्निर्माण के वक्त किया। सन 1964 के ओलिम्पिक खेलों के साथ जापान ने अपनी बुलेट ट्रेन का उद्घाटन किया था। सारी दुनिया को यह बताने के लिए कि द्वितीय विश्व युद्ध में ध्वस्त हो चुके देश ने किस तरह से सिर्फ दो दशक में अपनी शक्ल बदल दी।
अमेरिका के रैंड कॉरपोरेशन ने भारत और चीन की सन 2025 की संभावनाओं पर एक रिपोर्ट तैयार की है। इसके अनुसार सन 2025 में दोनों देशों की जनसंख्या लगभग बराबर होगी। भारत में इस वक्त जनसंख्या वृद्धि की दर 1.55 फीसदी है और चीन में 0.66 फीसदी। पर जहाँ भारत की युवा जनसंख्या बढ़ रही है वहीं चीन में वृद्धों की संख्या बढ़ रही है। युवा वर्ग की उत्पादकता बेहतर होती है। इस लिहाज से अगले कुछ साल के अंदर भारत बेहतर स्थिति में होगा। चीन में प्रति व्यक्ति स्वास्थ्य भारत के लोगों से बेहतर है। उसका साक्षरता-प्रतिशत भी भारत की तुलना में अच्छा है। चीन ने दुनिया की सबसे तेज चलने वाली ट्रेनों का नेटवर्क तैयार किया है। तिब्बत तक रेलवे लाइन तैयार कर दी। स्पेस स्टेशन का प्रक्षेपण करके अमेरिका और रूस की मोनोपली खत्म कर दी है। उसके विज्ञान और तकनीकी संस्थानों का स्तर काफी अच्छा है। वे अपनी भाषा में विज्ञान की उच्चस्तरीय शिक्षा दे पाने में सफल हैं। 
भारत ने हाल के वर्षों में कुछ काम सफलता के साथ किए हैं। इनमें हरित क्रांति, अंतरिक्ष कार्यक्रम, एटमी ऊर्जा कार्यक्रम, दुग्ध क्रांति, दूरसंचार और सॉफ्टवेयर उद्योग शामिल हैं। व्यवस्था के सफल होने के बुनियादी आधार हैं आर्थिक प्रतियोगी व्यवस्था, विज्ञान, लोकतांत्रिक प्रतिनिधित्व, आधुनिक चिकित्सा व्यवस्था, उपभोक्ता की चेतना और काम का माहौल। अमेरिका की प्रगति के पीछे है इनोवेशन यानी नवोन्मेष। पिछले दो सौ साल में अमेरिकी व्यवस्था इन्हीं बातों के सहारे बढ़ी। अमेरिका ने सारी दुनिया के विशेषज्ञों को अपने यहाँ बुलाया। हालांकि यूरोप ने दुनिया को बड़े वैज्ञानिक दिए, पर संकट काल में यूरोप के वैज्ञानिक भी अमेरिका चले गए। अलेक्जेंडर ग्राहम बैल, चार्ल्स स्टाइनमेट्ज़, व्लादिमिर ज्वोरीकिन, निकोला टेस्टा, अल्बर्ट आइंस्टीन और एर्निको फर्मी जैसे वैज्ञानिक अपने देश छोड़कर यहाँ आए। उस समाज में तमाम खामियाँ हैं, पर वहाँ मेरिट और काम का सम्मान है। दुनिया के आधे नोबेल पुरस्कार अमेरिका के लोगों को मिले हैं।
विज्ञान और वैज्ञानिकता पूरे समाज में होती है। सीवी रामन, रामानुजम या होमी भाभा जैसे कई नाम हम खोज सकते हैं। पर व्यक्तिगत उपलब्धियों के मुकाबले असली कसौटी पूरा समाज होता है। भारत के लोग अमेरिका जाकर जिम्मेदारी से काम करते हैं, अपने देश में नहीं करते। इसके कारणों को खोजिए। और यह भी देखिए कि जापान और दक्षिणी कोरिया के नागरिकों ने किस तरह मेहनत करके अपने जीवन को बेहतर बनाया है। मेहनत करेंगे तो आगे क्यों नहीं बढ़ेंगे?


नेशनल दुनिया में प्रकाशित

1 comment:

  1. Anonymous9:15 PM

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