पिछला हफ्ता राजनीतिक तूफानों
का था तो अगला हफ्ता होली का होगा। संसद के बजट सत्र का इंटरवल चल है। अब 22 अप्रेल
को फिर शुरू होगा, जो 10 मई तक चलेगा। पिछले हफ्ते डीएमके, समाजवादी पार्टी और कांग्रेस
के बीच के रिश्तों ने अचानक मोड़ ले लिया। किसी की मंशा सरकार गिराने की नहीं है, पर
लगता है कि अंत का प्रारम्भ हो गया है। किसी को किसी के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने
की ज़रूरत नहीं है। शायद सरकार खुद ही तकरीबन छह महीने पहले चुनाव कराने का प्रस्ताव
लेकर आए। पर उसके पहले कुछ बातें साफ हो जाएंगी। एक तो यह कि उदारीकरण के जुड़े कानून
संसद के शेष दिनों में पास करा दिए जाएंगे और दूसरे चुनाव पूर्व के गठबंधन भले ही तय
न हो पाएं, चुनावोत्तर गठबंधनों की सम्भावनाओं पर गहरा विमर्श हो जाएगा।
बेनी प्रसाद वर्मा का मुलायम
सिंह के बाबत बयान यों ही नहीं था। हो सकता है कि शब्दावली में कुछ हेर-फेर हो, पर
दोनों ओर से तीर सोच-समझकर चलाए गए हैं। एंटी रेप बिल और श्रीलंका के मामले में बसपा
का स्पष्ट रुख बताता है कि समाजवादी पार्टी कांग्रेस के विपरीत दिशा में देखने लगी
है। मुलायम सिंह यादव ने दिल्ली में वरिष्ठ राजनीतिक नेताओं से मुलाकात शुरू कर दी
है। इनमें शरद पवार भी हैं, जो समय आने पर कोई बड़ा फैसला भी कर सकते हैं। बिहार के
नीतीश कुमार ने कांग्रेस की ओर कदम बढ़ा दिए हैं, पर भाजपा से गठबंधन तोड़ने का एलान
करने से घबराते हैं। इधर सुषमा स्वराज ने लोकसभा में मुलायम सिंह की वरिष्ठता और सम्मान
की रक्षा की घोषणा की तो और उधर मुलायमसिंह यादव ने लालकृष्ण आडवाणी की तारीफ करते
हुए कहा कि वे कभी झूठ नहीं बोलते। क्या भाजपा और सपा की दोस्ती भी सम्भव है? असम्भव कुछ नहीं है, पर जो सामने है उसका मतलब यह नहीं कि भाजपा
और सपा में किसी किस्म का गठबंधन होने जा रहा है। दोनों का अपना वोट बैंक है। दोनों
को सैद्धांतिक रूप से आपसी विरोध से ही लाभ मिलता है, पर दोनों अपनी असहमतियों पर तो
सहमत हो ही सकते हैं।
कर्नाटक की विधानसभा का कार्यकाल
30 जून तक है, पर वहाँ 5 मई को चुनाव हो जाएगा, 8 को नतीजे आएंगे। किसी एक पार्टी या
समूह को बहुमत मिला तो 15 तक नई सरकार बन जाएगी। अन्यथा डेढ़ महीने का समय जोड़-गाँठ
के लिए पास में है। अगले लोकसभा चुनाव का यह वार्म-अप मैच होगा। मध्य प्रदेश, दिल्ली
और राजस्थान विधान सभाओं का कार्यकाल दिसम्बर में खत्म हो रहा है। छत्तीसगढ़ विधानसभा
का कार्यकाल 1 जनवरी 2014 तक है। यानी नवम्बर-दिसम्बर में इन राज्यों के चुनाव भी हो
जाएंगे। कर्नाटक में कांग्रेस के लिए खुशखबरी हुई भी तो इन चार राज्यों में सदमा मिलने
का अंदेशा भी है। इसका गलत संदेशा जाने से बेहतर होगा कि इन चार विधानसभाओं के साथ
लोकसभा चुनाव भी हो जाएं। यानी संसद के बजट सत्र के बाद शायद मॉनसून सत्र और हो।
इस साल के शुरू होते ही सरकार
ने कंडीशनल कैश ट्रांसफर का कार्यक्रम शुरू किया है। इसे आगे बढ़ाते हुए इसी सत्र में
भोजन का अधिकार विधेयक आने की उम्मीद है। वस्तुतः 22 मार्च को यह विधेयक पेश होने की
आशा थी। ऐसा हो नहीं पाया। उम्मीद है कि अब यह 22 अप्रेल के बाद आएगा। हाल के जनांदोलनों
की नकारात्मक छाया से बचने के लिए केन्द्रीय कैबिनेट ने पहले लोकपाल विधेयक के संशोधित
प्रारूप को मंज़ूरी दी और उसके बाद स्त्रियों के खिलाफ होने वाले अपराधों को रोकने
के लिए कानून में बदलाव की पहल करते हुए अध्यादेश जारी किया। बहरहाल एंटी रेप किसी
तरह पास हो गया। अभी लोकपाल बिल का नम्बर नहीं आया है। यों संसद के सामने जो महत्वपूर्ण
विधेयक पड़े हैं उनमें इंश्योरेंस और पेंशन फंड से जुड़े विधेयक हैं, कम्पनी कानून
में संशोधन का एक बिल, भूमि अधिग्रहण कानून, फॉरवर्ड कॉण्ट्रैक्ट कानून, डायरेक्ट टैक्स
कोड और न्यायिक मानदंडों से जुड़ा विधेयक भी है। कार्यस्थल पर यौन शोषण से स्त्रियों
की रक्षा का विधेयक 2010 से अटका पड़ा है। ह्विसिल ब्लोवर कानून अटका पड़ा है। विधायिका
में महिला आरक्षण पता नहीं कब पास होगा। और सपा बसपा के बीच रस्साकसी का विषय बना है
सरकारी सेवाओं की प्रोन्नति में अजा-जजा के आरक्षण का संशोधन विधेयक। इनमें से कितने
विधेयक इस सत्र में पास हो पाएंगे कहना मुश्किल है।
पिछले नवम्बर से कांग्रेस
आक्रामक अंदाज़ में है। 4 नवम्बर की रामलीला मैदान की रैली के बाद सूरजकुंड की संवाद
बैठक और फिर जनवरी में जयपुर की चिंतन बैठक एक सुविचारित रणनीति की ओर इशारा करते हैं।
पार्टी ने चुनाव की बागडोर राहुल गांधी के हाथ में दे दी है। पर राहुल गांधी प्रधानमंत्री
पद के इच्छुक नहीं हैं। फिर भी वे पार्टी संगठन को जगाने की कोशिश में जरूर लगे हैं।
पिछले साल उत्तर प्रदेश के चुनावों में उन्हें धक्का लगा था, पर इससे उनका अनुभव ही
बढ़ा। भले ही राहुल प्रधानमंत्री बनने के इच्छुक नहीं हैं, पर पार्टी का नेतृत्व उन्हें
ही करना है। यह काम राष्ट्रीय बहस से भागकर नहीं हो सकता। पिछले हफ्ते जब संसद में
एंटी रेप बिल और श्रीलंका के मसले उठ रहे थे राहुल दिल्ली में नहीं थे।
आने वाले चुनाव में कांग्रेस
और भाजपा के गणित के बरक्स क्षेत्रीय छत्रपों का गणित कम महत्वपूर्ण नहीं होगा। नरेन्द्र
मोदी और राहुल गांधी के अलावा कम से कम आधा दर्जन से ज्यादा प्रत्याशी प्रधानमंत्री
पद के दावेदार हैं। इनमें नीतीश कुमार, मुलायम सिंह, मायावती, ममता बनर्जी, शरद पवार, जे जयललिता, पी चिदम्बरम, एके एंटनी से लेकर आम आदमी
पार्टी के अरविन्द केजरीवाल तक हैं। जिस देश में मधु कोड़ा मुख्यमंत्री बन सकते हैं
वहाँ कुछ भी हो सकता है। बहरहाल जुलाई 1979 में चौधरी चरण सिंह जिन परिस्थितियों में
प्रधानमंत्री बने उनका पहले से इलहाम नहीं था। इसी तरह दिसम्बर 1989 के पहले वीपी सिंह के बारे
में, नवम्बर 1990 के पहले चन्द्रशेखर, जून 1991 के पहले पीवी नरसिंहराव
के बारे में कहना मुश्किल था वे प्रधानमंत्री बनेंगे। जून 1996 के पहले एचडी देवेगौडा और अप्रेल 1997
के पहले इन्द्र कुमार गुजराल के बारे में यही बात नहीं कही जा सकती थी। कई बार असामान्य
स्थितियों में भी फैसले होते हैं। जनवरी 1966 में लाल बहादुर शास्त्री के असामयिक निधन
के बाद इंदिरा गांधी के और अक्टूबर 1984 में इंदिरा गांधी के निधन के बाद राजीव गांधी
के प्रधानमंत्री बनने की परिस्थितियाँ ऐसी ही थीं।
कुछ सवाल और है। क्या देश
में कोई तीसरा मोर्चा बनेगा? क्या कांग्रेस और
भाजपा को अलग करके इस तीसरे मोर्चे की सरकार बन सकती है? क्या क्षेत्रीय पार्टियाँ मिलकर एक नया राष्ट्रीय गठबंधन तैयार
करेंगी? अतीत को देखें तो यह अब भी सम्भव नहीं लगता। कांग्रेस
और बीजेपी आज पहले के मुकाबले कमज़ोर हैं, फिर भी ऐसा नहीं लगता कि दोनों पार्टियों
की कुल सीटों की संख्या सवा दो सौ से नीचे जाएगी। सन 1984 से अब तक के लोकसभा चुनावों
का विश्लेषण करें तो पाएंगे कि इन दोनों पार्टियों को कम से कम 280 या उससे ज्यादा
सीटें मिलती हैं। 1989 में इन दोनों में 282 और 2004 में 281 सीटें मिलीं थीं। इन दोनों
में से किसी एक पार्टी के नेतृत्व या उसके बाहरी समर्थन के बगैर कोर् मोर्चा सरकार
नहीं बना सकता। यह बात मायावती और मुलायम सिंह से लेकर जयललिता और ममता बनर्जी तक सबको
समझ में आती है।
हिन्दू में केशव का कार्टून |
मंजुल का कार्टून साभार |
भावी राजनीति का नक्शा धुंधला
है। हम जितने भी गठबंधन बनते और बिगड़ते देखते हैं सबके पीछे व्यक्तिगत स्वार्थ होते
हैं। इन स्वार्थों को वैचारिक-सैद्धांतिक शक्ल दी जाती है। साम्प्रदायिकता और साम्राज्यवाद
दो बड़े सिद्धांत हैं, जिनकी आड़ में हमारे राजनीतिक दल अपने फैसलों को शक्ल देते हैं।
अगले लोकसभा चुनाव के बाद राजनीति पर से यह सैद्धांतिक मुलम्मा खत्म होने वाला है।
ज्यादातर गठबंधन चुनाव बाद बनेंगे, चुनाव के पहले नहीं। पहले गठबंधन होगा, फिर उसे
किसी सिद्धांत की चाशनी में लपेटा जाएगा। फिलहाल होली का आनन्द लीजिए।
सी एक्सप्रेस में प्रकाशित
बहुत सही कहा है आपनेर आपको होली की हार्दिक शुभकामनायें होली की शुभकामनायें तभी जब होली ऐसे मनाएं .महिला ब्लोगर्स के लिए एक नयी सौगात आज ही जुड़ें WOMAN ABOUT MAN
ReplyDeleteकाफी कुछ मिलता है आपके लेखों से प्रमोद जी, आभार !
ReplyDeleteनये रंगों का आविष्कार होता है राजनीति में।
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