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Wednesday, February 20, 2013

खतरा ! वीआईपी आ रहा है


वीआईपीवाद से मुक्ति चाहती है जनता
इंटरनेट ने सामान्य व्यक्ति के दुख-दर्द को उजागर करने का काम किया है। एक ब्लॉगर ने लिखा, लगता है कि वीआईपी होने का सुख जिसे भी मिलता हो, पर उसका दुख पूरा शहर सहन करता है। कुछ साल पहले कानपुर में प्रधानमंत्री के दौरे के दौरान ट्रैफिक में फँसा एक घायल बच्चा समय पर अस्पताल नहीं पहुंच सका और उसकी मौत हो गई। इसी तरह प्रधानमंत्री का चंड़ीगढ़ दौरा एक मरीज का मौत का कारण बन गया था। गम्भीर रूप से बीमार व्यक्ति को पुलिस वालों ने इसलिए नहीं जाने दिया क्योंकि प्रधानमंत्री का काफिला उधर से गुजरने वाला था। गुर्दे का मरीज होने की वजह से वह हर महीने पीजीआई खून बदलवाने के लिए जाया करता था। उसके परिजनों ने पुलिस वालों को लाख समझाया, पर उनकी नहीं सुनी गई। भारत जैसी वीआईपी सुरक्षा शायद दुनिया के किसी देश में नहीं होगी। एम्बुलेंस को रास्ता देना आधुनिकता का प्रतीक है, पर आप देश की राजधानी में अक्सर वीआईपी मूवमेंट के कारण रोके गए ट्रैफिक में फँसी एम्बुलेंसों को देख सकते हैं। इंडिया गेट के पास से गुजरते वीआईपी के लिए रुके ट्रैफिक के कारण कनॉट प्लेस में लगे जाम को देख सकते हैं। आम जनता के जरूरी काम, इंटरव्यू, डॉक्टरों से अपॉइंटमेंट, मीडिंग सब बेकार हैं। सबसे ज़रूरी है साहब बहादुर की सवारी।

वीआईपी सुरक्षा के दो पहलू हैं। पहला यह कि हम अपने आदरणीय और महत्वपूर्ण व्यक्तियों का सम्मान करते हैं और उनकी सुरक्षा में कोई चूक नहीं रहने देना चाहते हैं। इसलिए कि ये सम्मानित महापुरुष सामान्य व्यक्ति को सुरक्षा देंगे। नागरिक की सुरक्षा सामाजिक दायित्व है। पर दिल्ली गैंग रेप या हाल में इलाहाबाद में कुम्भ के दौरान रेलवे स्टेशन पर हुई भगदड़ में हुई मौतों से ज़ाहिर हुआ कि सुरक्षा की समझ औपनिवेशिक ज़माने से आगे नहीं बढ़ी है। उद्देश्य आज भी वही है। साहब बहादुर का इकबाल बना रहे। रसूख और इकबाल के लिए चल रही यह व्यवस्था लोकतंत्र की भद्दा मज़ाक है, पर हम इसे झेल रहे हैं।

सवाल संवैधानिक संस्थाओं से जुड़े व्यक्तियों की सुरक्षा का नहीं है। सवाल उन हजारों व्यक्तियों को मिली लाल बत्तियों और ब्लैक कैट कमांडो का है, जो हमारे लोकतंत्र को सामंती व्यवस्था में तब्दील करते हैं। सुप्रीमकोर्ट में दाखिल एक याचिका के सिलसिले में वकील हरीश साल्वे ने जानकारी दी है कि वीआईपी के परिवार वालों, गैर सरकारी संस्था में काम करने वालों, वकीलों और पत्रकारों को भी बिना ज़रूरत सुरक्षा दी जा रही है। इस याचिका में जिन सवालों को उठाया गया है उन्हें अदालत के बजाय संसद में उठाया जाता तो बेहतर होता। संसद जन-प्रतिनिधियों की संस्था है। उसे जन-भावना को व्यक्त करना चाहिए। और इस पर राष्ट्रीय बहस होनी चाहिए। पर जनता की नाराज़गी इसी बात से है कि हम जिन्हें सुरक्षा देने के लिए तैयार हैं वे हमारी सुरक्षा के नाम पर खामोश क्यों रहते हैं। याचिका में कहा गया है कि राज्य सरकारों ने वीआईपी सुरक्षा के नाम पर करोड़ों रुपये खर्च किए हैं। इस पैसे को आम आदमी को सुविधाएं देने पर खर्च किया जाए तो इससे आम आदमी का भला हो सकता है। हालांकि अभी अनेक राज्यों ने वीआईपी सुरक्षा-व्यवस्था का विवरण नहीं दिया है, पर जो विवरण सामने आ रहे हैं वे इस दृष्टि को साफ करते हैं।

एक अनुमान है कि देश में औसतन एक लाख की आबादी पर 122 पुलिसकर्मी हैं अर्थात 819 लोगों की सुरक्षा पर एक पुलिस कर्मी लगाया गया है। इसके विपरीत जेड-प्लस सुरक्षा प्राप्त एक व्यक्ति की हिफाजत के लिए करीब 36 जवान एक साथ तैनात किए जाते हैं। मोटे तौर पर देश की पुलिस फोर्स के लगभग 35 फीसदी जवान साहबों की सुरक्षा में लगे हैं। दिल्ली पुलिस के 83 हजार से ज्यादा जवानों में से मात्र पाँच फीसदी आपराधिक मामलों की तफतीश में लगे हैं। गृह मंत्रालय के ब्यूरो ऑफ पुलिस रिसर्च एंड डेवलपमेंट के आंकड़ों के अनुसार 25 राज्य और केंद्रीय शासित क्षेत्रों में 1016, 778 सांसदों, विधायकों, नौकरशाहों, मंत्रियों व जजों की सुरक्षा के लिए 50, 059 पुलिस कर्मी तैनात हैं। केंद्रीय वीवीआईपी सूची के अलावा हर राज्य में अपनी भी एक वीआईपी सूची है जिसकी संख्या हजारों में की जाती है। जब देशभर के तथ्यों को ठीक तरीके से सामने रखेंगे तो और बेहद विस्मयकारी बातें सामने आएंगी। तमाम राज्य सरकारें पुलिस सुधार पर कुंडली मारे बैठी हैं, इसलिए बड़ी संख्या में पुलिस जवान साहब लोगों के घरों में अर्दली की ड्यूटी में लगे हैं और या तो साहब के कपड़े धो रहे हैं या बच्चों को स्कूल छोड़ने जा रहे हैं। जिन लोगों को वीआईपी सुरक्षा मिली है उनमें ऐसे लोग शामिल हैं, जिनपर आपराधिक मुकदमे चल रहे हैं। राजनीति का पहला उद्देश्य लाल बत्ती हासिल करना हो गया है। लाल बत्ती रसूख बनाती है और इस रसूख का इस्तेमाल निजी फायदों के लिए होता है। यानी सुरक्षा व्यवस्था सामान्य नागरिक की सुरक्षा के लिए खतरा पैदा कर रही है।

सुप्रीम कोर्ट ने वित्तमंत्री पी चिदंबरम और पूर्व रक्षामंत्री जॉर्ज फर्नांडिस की इस बात के लिए तारीफ की कि उन्होंने वीआईपी सुरक्षा लेने से मना कर दिया। बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री बुद्धदेव दासगुप्त और उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक जैसे कुछ और उदाहरण हमारे सामने हैं, पर ऐसे मामले काफी कम हैं। प्रश्न संवैधानिक पदों पर सुरक्षा प्राप्त करने वाले व्यक्तियों का नहीं है, बल्कि विजय माल्या जैसे उद्योगपतियों का है। हरीश साल्वे ने रेल राज्यमंत्री अहीर रंजन चौधरी का उदाहरण दिया है जिनपर हाल में बंगाल में मुर्शिदाबाद के जिला मजिस्ट्रेट के घर पर उत्पात करने का आरोप है। यह काम करते वक्त वे सरकार द्वारा उपलब्ध कराए गए सुरक्षा घेरे में थे। इसी तरह साल्वे ने तमिलनाडु सरकार के हलफनामे का ज़िक्र किया है जिसमें बताया गया है कि सरकार ने आर्कोट के राजा को सुरक्षा दी है, क्योंकि अंग्रेजों के ज़माने से यह परम्परा चली आ रही है।

हाल में दिल्ली में पूर्व प्रधानमंत्री इन्द्र कुमार गुजराल के निधन के बाद 3 दिसम्बर को उनके अंतिम संस्कारों के दौरान की गई सुरक्षा व्यवस्था का हवाला अदालत में दिया। इसपर जस्टिस सिंघवी ने टिप्पणी की कि इन्द्र कुमार गुजराल अपने जीवन में ऐसा नहीं होने देते। हरीश साल्वे ने अदालत को जानकारी दी कि उनकी कॉलोनी में एक शानदार घर के सामने हरियाणा पुलिस की पाँच गाड़ियाँ तैनात रहती हैं। पता लगा वे मुख्यमंत्री के किसी रिश्तेदार की रखवाली करते हैं। साल्वे का कहना है कि यदि देश की सड़कें सामान्य नागरिक के लिए असुरक्षित हैं तो वे सरकार के आला अफसरों के लिए भी असुरक्षित होनी चाहिए। पर दिल्ली की सड़कों पर आज भी आप सरकारी साहबों के काफिलों के लिए रोके जाते ट्रैफिक को देख सकते हैं। सुरक्षा की यह समझ ट्रैफिक के संचालन से ही समझ में आ जाती है। लगता है दिल्ली की ट्रैफिक पुलिस भी वीआईपी मूवमेंट से दबी हुई है। जिस शहर में 74 लाख से ज्यादा रजिस्टर्ड गाड़ियाँ हैं और जहाँ बड़ी संख्या में बाहर से गाड़ियाँ आती हैं उसके 83 हजार पुलिसकर्मियों में से केवल तकरीबन 6000 ट्रैफिक प्रबंध का काम देखते हैं। इसकी परिणति है पीक आवर में लगने वाले जाम। सुरक्षा का यह भी एक पहलू है। विडंबना है कि हम अपने नेताओं का स्वागत नहीं करना चाहते। हम चाहते हैं कि वे जल्द से जल्द शहर से विदा हों ताकि हम शांति से रह सकें।

1 comment:

  1. स्थिति गम्भीर है पर लोगों के पाँव जमीं पर पड़ते ही नहीं..

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