पाकिस्तान में मंगलवार से शुरू हुई शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) की बैठक भारत-पाकिस्तान रिश्तों के लिहाज से भले ही महत्वपूर्ण नहीं हो, पर क्षेत्रीय सहयोग, ग्लोबल-साउथ और खासतौर से चीन के साथ भारत के रिश्तों के लिहाज से महत्वपूर्ण है.
यह बैठक पाकिस्तानी-प्रशासन के लिए भी बड़ी
चुनौती बन गई है. हाल की आतंकवादी हिंसा और राजनीतिक-अशांति का साया सम्मेलन पर मंडरा
रहा है. अंदेशा है कि इस दौरान कोई अनहोनी न हो जाए.
शिखर सम्मेलन से पहले के कुछ हफ्तों में,
पाकिस्तान सरकार ने अपने विरोधियों के विरुद्ध कठोर कार्रवाई की है. एक
जातीय-राष्ट्रवादी आंदोलन पर प्रतिबंध लगा दिया है और राजधानी में विरोध प्रदर्शन
को प्रतिबंधित कर दिया गया है.
राजधानी को वस्तुतः शेष देश से अलग कर दिया गया
है और सड़कों पर सेना तैनात कर दी गई है. जेल में कैद इमरान खान के सैकड़ों
समर्थकों को भी गिरफ्तार किया गया है, जिन्होंने इस
महीने इस्लामाबाद में मार्च करने का प्रयास किया था.
पिछले सप्ताह कराची में चीनी इंजीनियरों के
काफिले पर हुए घातक हमले ने भी देश में सुरक्षा संबंधी आशंकाओं को बढ़ा दिया है,
जहाँ अलगाववादी समूह लगातार चीनी नागरिकों को निशाना बनाते रहे हैं.
जयशंकर की उपस्थिति
एससीओ की कौंसिल ऑफ हैड ऑफ गवर्नमेंट्स (सीएचजी) की इस बैठक में सात देशों के प्रधानमंत्री और ईरान के प्रथम उपराष्ट्रपति भाग लेंगे. भारत का प्रतिनिधित्व विदेशमंत्री एस जयशंकर करेंगे.
सम्मेलन के ठीक पहले लाओस में हुए आसियान-सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी शामिल हुए थे, पर वे
इस्लामाबाद नहीं जा रहे हैं. भारत-पाकिस्तान रिश्तों की संवेदनशीलता को देखते हुए
प्रधानमंत्री के जाने की उम्मीद पहले से ही नहीं थी. पर, विदेशमंत्री के जाने से
यह बात भी स्थापित हुई है कि भारत, इस संगठन के महत्व की अनदेखी नहीं करना चाहता.
चीन-पाकिस्तान धुरी
सितंबर में
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अमेरिका में क्वॉड देशों के जिस सम्मेलन में भाग
लिया था, वह संभवतः क्वॉड का अब तक का सबसे महत्वपूर्ण सम्मेलन था. इस बैठक में
क्वॉड ने किसी भी देश का नाम लिए बगैर, यह साफ-साफ कह दिया कि हमारा हिंद-प्रशांत
क्षेत्र में चीन को रोकना है.
एससीओ, चीन प्रवर्तित
संगठन है, जबकि भारत-चीन संबंधों का गतिरोध बिगड़ता जा रहा है. ऐसे में भारत को एक
तरफ चीन के साथ और दूसरी तरफ अपने क्वॉड भागीदारों के साथ रिश्तों में संतुलन
बरतना होगा. ऐसे में एससीओ जैसे संगठन में भी अपने पैर जमाकर रखने होंगे.
इस्लामाबाद में जयशंकर ने चीन
और पाकिस्तान का परोक्ष रूप में उल्लेख भी किया है.
पर्यवेक्षक मानते हैं
कि पश्चिमी देशों के साथ दोस्ती और चीन-पाकिस्तान
गठजोड़ के कारण भारत इस संगठन के प्रति अपेक्षाकृत उदासीन है. इसके पहले 2022 में एससीओ की शिखर-सम्मेलन में भाग लेने के लिए नरेंद्र
मोदी उज्बेकिस्तान की राजधानी समरकंद गए थे.
वहाँ चीनी राष्ट्रपति
शी जिनपिंग और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शाहबाज़ शरीफ़ भी मौजूद थे, लेकिन सम्मेलन में औपचारिक भेंट के अलावा इन दोनों से
पीएम मोदी की अलग से मुलाक़ात नहीं हुई.
उन्होंने रूसी
राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन और ईरान के तत्कालीन राष्ट्रपति इब्राहिम रईसी से
मुलाकात जरूर की. उसके अगले साल 2023 में जब भारत की बारी
एससीओ की मेज़बानी करने की आई, तब भारत ने इसे वर्चुअल तरीके से आयोजित किया. ऐसा संभवतः
इसलिए करना पड़ा, क्योंकि शी चिनफिंग और पुतिन सम्मेलन में नहीं आना चाहते थे.
पश्चिम एशिया
की छाया
उसके बाद हुए जी-20 के
सम्मेलन में भी वे दोनों नहीं आए. एससीओ में द्विपक्षीय मुद्दों पर चर्चा होती
नहीं है, पर पाकिस्तान और चीन के कारण ये मुद्दे किसी न किसी रूप में आ ही जाते
हैं. अब ईरान भी इस समूह का हिस्सा है. इसे देखते हुए पश्चिम एशिया में चल रहे
टकराव की छाया भी इसबार के सम्मेलन पर पड़ सकती है.
चीन और रूस द्वारा 2001 में स्थापित एससीओ को नेटो के जवाब के रूप में देखा
जाता है. इसकी स्थापना बहुपक्षीय संगठन के रूप में की गई थी, जिसका उद्देश्य विशाल यूरेशियाई क्षेत्र में सुरक्षा
सुनिश्चित करना और स्थिरता बनाए रखना, उभरती चुनौतियों और
खतरों का मुकाबला करने के लिए एकजुट होना, तथा व्यापार
के साथ-साथ सांस्कृतिक और मानवीय सहयोग को बढ़ाना था.
एससीओ के सदस्य देश रूस, चीन, भारत, पाकिस्तान, कजाकिस्तान, किर्गिस्तान, ताजिकिस्तान, उज्बेकिस्तान और ईरान हैं. भारत को इस संगठन में लाने का
श्रेय रूस को जाता है और पाकिस्तान का चीन को. रूस भले ही भारत का मित्र है, पर अब
वह उतना करीब नहीं है, जितना कुछ समय पहले तक था.
दक्षिण एशिया
में सहयोग
हाल ही में संरा महासभा
में बांग्लादेश के अंतरिम मुख्य सलाहकार डॉ मुहम्मद यूनुस ने दक्षिण एशियाई
क्षेत्रीय सहयोग संगठन (सार्क) को पुनर्जीवित की बात कही थी. बांग्लादेश की
राजनीति अभी अस्पष्ट है, पर ऐसा लगता है कि वे पाकिस्तान के साथ कारोबार चाहते
हैं.
इसमें भारत को कोई
आपत्ति नहीं, पर दक्षिण एशिया में कनेक्टिविटी के बगैर बेहतर कारोबार की उम्मीद
नहीं करनी चाहिए. वह तभी संभव है, जब भारत और पाकिस्तान के रिश्ते सामान्य होंगे.
पश्चिम एशिया में
टकराव लंबे समय तक चला, तो दक्षिण एशियाई देश गंभीर रूप से प्रभावित होंगे. तेल की
कीमतें नई ऊँचाई पर पहुँच सकती हैं. स्वेज नहर में रुकावट पैदा हुई, तो इस क्षेत्र
के निर्यात को नुकसान पहुँचेगा. दक्षिण एशिया के लाखों कामगारों की सुरक्षा और आय तो
खतरे में है ही.
एकीकरण कैसे?
ऐसा नहीं भी हो, तब भी
दक्षिण एशिया के विकास के लिए सार्क को मजबूत और एकीकृत संगठन बनना चाहिए, पर कैसे? इस संगठन को लेकर भारत का यह अंदेशा हमेशा रहा कि आर्थिक-सहयोग की
तुलना में इसका राजनीतिक इस्तेमाल ज्यादा होगा.
यह बात सही साबित हुई. सार्क के तमाम समझौते और संस्थागत
तंत्र पक्के तौर पर लागू नहीं हो पाए. 2006 में हुए दक्षिण एशिया मुक्त व्यापार
समझौते (साफ्टा) का अक्सर उल्लेख किया जाता है, पर यह अभी
तक लागू नहीं हुआ है.
काठमांडू में सार्क के 18वें शिखर सम्मेलन के
दौरान प्रस्तावित सार्क-एमवीए (मोटर वेहिकल एग्रीमेंट) में भारत की गहरी रुचि के
बावजूद, पाकिस्तान की अनिच्छा के कारण वह नहीं हो पाया.
एक्ट ईस्ट
भारत ने सार्क के स्थान पर बंगाल की खाड़ी
बहु-क्षेत्रीय तकनीकी और आर्थिक सहयोग पहल (बिमस्टेक) और भूटान, बांग्लादेश, भारत और नेपाल (बीबीआईएन) के परिवहन और ऊर्जा ग्रिड और द्विपक्षीय संबंधों
से जुड़े समझौते किए हैं. पर बिमस्टेक भी बहुत सक्रिय-संगठन नहीं है.
भारत की अब आसियान में
ज्यादा दिलचस्पी है. गत शुक्रवार को लाओस की राजधानी विएनतिएन में 19वें पूर्वी एशिया शिखर सम्मेलन एशिया-प्रशांत क्षेत्र के
नेताओं ने अर्थव्यवस्था,
ऊर्जा और जलवायु सहित
प्रमुख क्षेत्रों में सहयोग को मजबूत करने पर सहमति व्यक्त की.
इस सम्मेलन में प्रधानमंत्री
नरेंद्र मोदी ने हिंद-प्रशांत क्षेत्रीय परिदृश्य, भारत की हिंद-प्रशांत अवधारणा और क्वॉड
सहयोग में आसियान की केंद्रीय भूमिका पर बल दिया. उन्होंने कहा कि भारत की
भागीदारी हमारी एक्ट ईस्ट नीति का एक महत्वपूर्ण स्तंभ है.
आसियान क्षेत्र में 70 करोड़ से अधिक लोग निवास करते हैं. यह क्षेत्र 45 लाख वर्ग
किलोमीटर में फैला हुआ है,
और 2022 में यहाँ की जीडीपी 3.62 ट्रिलियन डॉलर दर्ज की गई थी. उसके मुकाबले दक्षिण
एशिया के देशों की जीडीपी करीब छह ट्रिलियन डॉलर के आसपास है, पर आपसी कारोबार उनके कुल व्यापार का करीब पाँच फीसदी है, जबकि आसियान देशों का आपसी
व्यापार करीब 25 फीसदी है.
दक्षिण एशिया के देश
परंपरा से एक-दूसरे के साथ जुड़े रहे हैं और बड़ी आसानी से एक आर्थिक ज़ोन के रूप
में काम कर सकते हैं. पर इनकी परंपरागत कनेक्टिविटी राजनीतिक कारणों से खत्म हो गई
है. यह जुड़ाव आज भी संभव है, पर धुरी के बगैर यह जुड़ाव
संभव नहीं. यह धुरी भारत ही हो सकता है, चीन नहीं.
भारत-पाकिस्तान
जहाँ तक इस्लामाबाद में द्विपक्षीय-संबंधों पर
चर्चा का सवाल है भारत और पाकिस्तान दोनों ने स्पष्ट किया है कि एस जयशंकर की इस्लामाबाद
यात्रा एससीओ के शिखर सम्मेलन तक सीमित रहेगी. फिर भी दोनों देशों के नागरिकों का
इतना गहरा जुड़ाव है कि औपचारिक नहीं, तो अनौपचारिक बातें होंगी.
जयशंकर मँजे हुए डिप्लोमेट हैं, इसलिए उनका
एक-एक शब्द मानीखेज होगा. फिर भी उनकी भाव-भंगिमा और बॉडी लैंग्वेज से कुछ संदेश
जाएंगे. इससे अटकलें भी लगेंगी.
दोनों देशों के बीच 1998 से अबतक कई प्रकार के
नाटकीय घटनाक्रम हुए हैं, पर परिणाम निकला नहीं है. रिश्तों का सामान्य होना भारत
से ज्यादा पाकिस्तान के हित में है, क्योंकि उसे अपनी अर्थव्यवस्था में उस प्रकार
के सुधार करने हैं, जैसे भारत ने 1991 के बाद किए थे.
शंघाई सहयोग संगठन के
मार्फत पाकिस्तान हमारा मध्य एशिया और रूस तक का रास्ता खोलने में मददगार हो सकता
है. वहीं भारत उन्हें दक्षिण-पूर्व एशिया का रास्ता दे सकता है.
जहाँ तक आतंकवाद का
मामला है रूस, चीन और मध्य एशिया के देश भी इससे परेशान हैं. 15 अगस्त, 2021 में
अफगानिस्तान में हुए राजनीतिक परिवर्तन के बाद से पाकिस्तान की समस्याएं कम होने
के बजाय बढ़ी हैं. इसकी वजह पाकिस्तान की राजनीति में भी खोजी जानी चाहिए.
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