30 जुलाई को तेहरान में ईरान के राष्ट्रपति मसूद पेज़ेश्कियान के साथ हमास के चीफ इस्माइल हानिये।
यह सहमति 14 गुटों के बीच हुई है, पर इन दो गुटों
का एक-दूसरे के करीब आना सबसे महत्वपूर्ण हैं. सुलह इसलिए मायने रखती है, क्योंकि
आने वाले समय में यदि विश्व समुदाय ‘टू-स्टेट समाधान’ की दिशा में आगे बढ़ा, तो वह कोशिश इन
गुटों के आपसी टकराव की शिकार न हो जाए.
फिर भी इस समझौते को अंतिम नहीं माना जा सकता. इसमें कई किंतु-परंतु हैं, फिलहाल यह फलस्तीनियों की आंतरिक एकता की दृष्टि से महत्वपूर्ण है. यह सहमति चीन की मध्यस्थता से हुई है, इसलिए इसे चीन की बढ़ती भूमिका के रूप में भी देखना होगा.
इधर शनिवार 27 जुलाई को इसराइल के नियंत्रण
वाले गोलान हाइट्स में फुटबॉल के एक मैदान पर हुए रॉकेट हमले के बाद इसराइली तेवर
और तीखे हो गए हैं. इस हमले में 12 लोगों की मौत होने की खबर है. इनमें ज्यादातर
बच्चे थे. माना जा रहा है कि यह हमला हिज़बुल्ला ने किया
है.
जिस वक्त यह हमला हुआ, इसराइली प्रधानमंत्री
बिन्यामिन नेतन्याहू अमेरिका में थे. वे अमेरिकी दौरा बीच में छोड़ कर वापस आ गए
हैं. उन्होंने कहा है कि हिज़बुल्ला को
इसकी भारी क़ीमत चुकानी होगी. इसके कुछ ही घंटे बाद इसराइल ने लेबनान पर ताबड़तोड़
हमले किए हैं.
बीजिंग घोषणा
पश्चिम एशिया में चल रही इस तनातनी के बीच चीन
के विदेशमंत्री वांग यी ने 23 जुलाई को 14 फलस्तीनी
गुटों बीच समझौते की जानकारी देते हुए कहा कि चीन ‘पश्चिम एशिया में शांति और स्थिरता की स्थापना में रचनात्मक भूमिका निभाएगा.’
इस ‘बीजिंग घोषणा’ पर
दस्तखत होने के बाद वांग ने कहा, बेशक यह फलस्तीनी गुटों का आंतरिक मामला है,
लेकिन सुलह-सरकार की स्थापना अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के समर्थन के
बिना हासिल नहीं हो सकेगी.
एक तरफ बीजिंग में यह समझौता हुआ, वहीं उसके
अगले रोज 24 जुलाई को वॉशिंगटन में बिन्यामिन नेतन्याहू ने अमेरिकी संसद में एक
तीखे भाषण में युद्ध को न केवल सही बताया, बल्कि उन अमेरिकी प्रदर्शनकारियों की
निंदा की, जिनके दबाव में डेमोक्रेटिक पार्टी के कई सांसदों
ने उनके भाषण का बहिष्कार किया था.
उस दिन हजारों प्रदर्शनकारियों ने कैपिटल हिल में
बाहर डेरा डाला था. भीतर नेतन्याहू ने ‘पूर्ण विजय’ तक
लड़ाई युद्ध जारी रखने की कसम खा रहे थे. हाल में इसराइली संसद ने एक प्रस्ताव पास
करके फलस्तीनी राज्य की स्थापना को सिरे से खारिज कर दिया है.
इसराइली तेवर
इसराइल ने यह भी स्पष्ट किया है कि वह गज़ा को
भी खाली नहीं करेगा. यानी कि लड़ाई खत्म हो भी गई, तब भी इसराइली सेना वापस नहीं
होगी. जटिलताएं बहुत ज्यादा हैं और समाधान की खिड़की बहुत छोटी है. फिर भी बीजिंग समझौते
का महत्व है और इसका स्वागत होना चाहिए.
ग्लोबल राजनीति का यह नया अध्याय है, जिसमें चीन
अपने महत्व को स्थापित करना चाहता है. दूसरी तरफ अमेरिका के नेतृत्व में
पश्चिमी देशों ने आने वाले कुछ समय के लिए इस इलाके के लिए जो योजना बनाई है, उसके
केंद्र में गज़ा में विदेशी सेना तैनात करने की बात है, जिसे फलस्तीनी समूह
स्वीकार नहीं करेंगे.
फलस्तीनी गुटबंदी
अब फलस्तीनियों की गुटबाजी
की तरफ आएं. हमास और फतह तब से कट्टर
प्रतिद्वंद्वी हैं जब 2006 के चुनावों में हमास की शानदार जीत की
बेला में हुए घातक संघर्षों के बाद इस्लामवादी हमास ने 2007
में गज़ा पर पूर्ण नियंत्रण स्थापित कर
लिया था और फतह को खदेड़ दिया.
तबसे वहाँ उसका शासन है. दूसरी तरफ सेक्युलर
संगठन फतह फलस्तीनी प्राधिकरण को नियंत्रित करता है, जिसका
इसरायल के कब्जे वाले जॉर्डन नदी के पश्चिमी तट पर आंशिक प्रशासनिक नियंत्रण है.
फलस्तीनी गुटों के लिए नया
समझौता वास्तविक संयुक्त मोर्चा बनाने की तुलना में फौरी तौर पर राजनीतिक
प्राथमिकताओं की ओर इशारा कर रहा है. इन दो समूहों में हमास का अमेरिका से संपर्क
शून्य है, जबकि अमेरिका की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है.
चीन की भूमिका
चीन फिलहाल अमेरिका की जगह लेने की स्थिति में
नहीं है. उसका महत्व इसलिए है, क्योंकि अमेरिका अपनी सैद्धांतिक बाध्यताओं के कारण
हमास से सीधे बात नहीं कर सकता. कुछ ऐसी ही वजहों से मार्च 2023 में सऊदी अरब और ईरान के बीच राजनयिक रिश्ते सामान्य करने का काम चीन
की मध्यस्थता में हुआ. ईरान और अमेरिका के बीच अबोला है.
इस लिहाज से चीन की भूमिका टैक्टिकल हैं,
दूरगामी नहीं. फलस्तीनी एकता को भी स्थायी मानने में कुछ संदेह हैं. बेशक यह एकता बहुत
जरूरी है, पर उसके लिए फलस्तीनी समूहों के वैचारिक दृष्टिकोणों और उनकी संगठनात्मक
संरचना में भारी बदलाव करना होगा.
उसके पहले गज़ा में युद्ध के अंत की जरूरत है,
जो काम इन दोनों समूहों के हाथ में नहीं है. फलस्तीनियों (और व्यापक रूप से अरबों)
को चीन यह विश्वास दिलाना चाहता है कि उसके और अमेरिका के दृष्टिकोण में फर्क है.
अमेरिकी नज़रिया
इसराइल के हितों को सुरक्षित रखने के लिए
फलस्तीनी गुटों के बीच अमेरिका मतभेद बनाए रखना चाहता है. 7
अक्तूबर के हमले के पहले तक नेतन्याहू, गज़ा पर हमास के नियंत्रण का समर्थन करते
थे. इसके पीछे फतह और हमास के विभाजन को बनाए रखना था. अमेरिका ने इस तरफ से अपनी
आँखें मूँद रखी थीं.
चीन ने इस बात को रेखांकित कर रहा है कि फलस्तीनी
राज्य की स्थापना के लिए फलस्तीनियों के बीच आंतरिक एकता पहली जरूरत है. एक दूसरा
पहलू क्षेत्रीय स्थिरता का है, जो आर्थिक-गतिविधियों और इस क्षेत्र के विकास से
जुड़ा है.
इसके लिए गज़ा में युद्ध की समाप्ति और फलस्तीनी
राज्य की स्थापना जरूरी है. चीन का दृष्टिकोण है कि यह स्थिरता क्षेत्रीय संघर्ष
को रोकने, खाड़ी से तेल का प्रवाह जारी रखने, लाल सागर में नौवहन की स्वतंत्रता और समुद्री-सुरक्षा सुनिश्चित करने
तथा क्षेत्रीय बेल्ट एंड रोड निवेशों की रक्षा करने और उन्हें आगे बढ़ाने के लिए
महत्वपूर्ण है.
हमास को मान्यता
अमेरिका और इसराइल मानते हैं कि इससे इलाके में
स्थिरता और शांति कायम नहीं होगी, बल्कि चीन की कोशिशों से हमास को अंतरराष्ट्रीय
स्तर पर मान्यता और पुनर्जीवन मिलेगा. शस्त्रास्त्र और सैनिक संगठन लिहाज से इसराइल
के साथ हुई लड़ाई में हमास काफी कुछ खो चुका है. चीन की मान्यता उसके लिए
महत्वपूर्ण है. सच यह है कि हमास को फलस्तीनी आबादी के एक बड़े हिस्से का समर्थन
प्राप्त है, और वह जारी रहेगा. पूछा जा सकता है कि स्वतंत्रता के अलावा हमास की सामाजिक-योजना
क्या है?
इस पूरे घटनाचक्र में देखना होगा कि अमेरिका
में इस साल क्या होगा. राष्ट्रपति पद के चुनाव में यदि डोनाल्ड ट्रंप की जीत हुई,
तो नेतन्याहू को खुली छूट मिल जाएगी. नेतन्याहू के ऊपर आंतरिक राजनीति का दबाव है.
इस वक्त इसराइली संसद तीन महीने के अवकाश पर है. जब संसद शुरू होगी, तब तक अमेरिकी
चुनाव की तारीख करीब आ जाएगी.
महमूद अब्बास की भूमिका
फरवरी में, फतह
और हमास एकता पर लगभग सहमत हो गए थे, लेकिन फतह के नेता महमूद अब्बास ने वार्ता को
नजरंदाज कर दिया. अप्रेल में बीजिंग में हुई पहली वार्ता के दौरान, दोनों समूहों के बीच अगले दौर की वार्ता के लिए आधार के रूप में
आठ-सूत्री दस्तावेज़ पर सहमति बनी थी.
इसके बाद मतभेद पैदा हो गए, जिसके कारण जून में होने वाली दूसरी वार्ता स्थगित कर दी गई. अब नए घोषणापत्र
में फतह ने हमास की ज्यादातर माँगों को मान लिया है. समझौते के अनुसार गज़ा पट्टी
के साथ-साथ जॉर्डन नदी के पश्चिमी तट पर और यरूशलम की देखरेख के लिए एकता सरकार का
गठन होना चाहिए.
इसमें सशस्त्र संघर्ष पर भी सहमति है, जो फतह
के सिद्धांत से मेल नहीं खाता. महमूद
अब्बास चाहते हैं कि हमास का समर्थन करने वाली फलस्तीनी आबादी का गुस्सा शांत हो और वह उनके पक्ष में आए.
फलस्तीनी प्राधिकरण के प्रशासन में वे इसराइल
के साथ सहयोग भी करते हैं. वे इस सहयोग को बनाए रखना चाहेंगे. ओस्लो सम्मेलन के
बाद से वे ही अमेरिका और शेष पश्चिमी देशों के संपर्क में हैं.
हमास और इस्लामिक जेहाद उनके पश्चिमी झुकाव को स्वीकार
नहीं करेंगे. महमूद अब्बास इन दोनों गुटों को काबू में रखना चाहते हैं. क्या ऐसा संभव
है? हमास शांत होगा या वह अपना उग्र रूप जारी रख
सकेगा?
सवाल दर सवाल
इन गुटों के आंतरिक वैचारिक मतभेद क्या दूर हो
गए हैं? अमेरिका क्या नवंबर के राष्ट्रपति चुनाव के पहले कुछ कर पाएगा? फलस्तीनियों का इसराइल के साथ संवाद या सहयोग संभव होगा? इन तीन सवालों का जवाब मिल जाने के बाद स्वाभाविक रूप से
चौथा सवाल होगा कि क्या चीन इस मामले में मध्यस्थता कर सकेगा?
मध्यस्थता वही कर सकेगा, जिसपर दोनों पक्ष
भरोसा करेंगे. इसराइल पर चीन का प्रभाव पहले से ही बहुत कम है, फिर 7 अक्टूबर के बाद से चीन ने इसराइल की निंदा की है और फलस्तीनियों का
पक्ष लिया है, जिससे यह दूसरी बढ़ी है.
जब फलस्तीनी गुट चीनी विदेश मंत्री वांग यी के
माध्यम से आपसी बातचीत में लगे थे, तब नेतन्याहू राष्ट्रपति बाइडेन से मिलने और अमेरिकी
संसद के संयुक्त अधिवेशन को संबोधित करने के लिए वाशिंगटन रवाना हो रहे थे.
कम से कम फलस्तीनियों का विश्वास जीतने में चीन
जरूर सफल हुआ है. वह वैश्विक शांति-निर्माता के स्थान से अमेरिका को अपदस्थ करके बहुपक्षीय
संयुक्त राष्ट्र के नेतृत्व वाले अंतरराष्ट्रीय शांति सम्मेलन को बुलाने का प्रयास
भी कर सकता है. ऐसे सम्मेलन में अमेरिका के साथ चीन की भूमिका भी केंद्र में होगी.
अमेरिकी विसंगतियाँ
राष्ट्रपति ट्रंप बने, तो अमेरिका अपनी वैश्विक-जिम्मेदारियों
को और कम करेगा. इसराइली सत्ता-प्रतिष्ठान का विश्वास भी अमेरिका के प्रति कम होता
जा रहा है. 24 जुलाई को नेतन्याहू ने अमेरिकी संसद में खड़े होकर जिस तरह से बाहर
प्रदर्शन करने वालों को ‘बेवकूफ’ बताया, उससे
इसराइल का कट्टरपंथी नज़रिया खुलकर सामने आया.
उनकी बात पर बहुत से
सांसदों ने तालियाँ बजाईं, पर कुछ प्रमुख डेमोक्रेट सांसद सन्नाटे में आ
गए. 50 से ज़्यादा डेमोक्रेट सांसदों और राजनीतिक रूप से स्वतंत्र बर्नी सैंडर्स
ने नेतन्याहू के भाषण का बहिष्कार किया. डेमोक्रेट सांसद रशीदा तालिब के हाथों में
तख्ती थी, जिसपर लिखा था, ‘वॉर क्रिमिनल (युद्ध अपराधी).’
सबसे उल्लेखनीय अनुपस्थिति थी, उपराष्ट्रपति कमला
हैरिस की, जो सीनेट की अध्यक्ष के रूप में कार्य करती हैं.
उन्होंने वजह बताई कि एक लंबे समय से तयशुदा यात्रा के कारण में इसमें शामिल नहीं
हो पाई. इस बात से आप समझ सकते हैं कि देश
के अनेक राजनेताओं को दो नावों की सवारी क्यों करनी पड़ रही है.
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