राष्ट्रपति-चुनाव में ‘सुधारवादी’ और मध्यमार्गी नेता मसूद पेज़ेश्कियान की विजय के साथ ही सवाल पूछे जाने लगे हैं कि क्या अपने देश की विदेश और सामाजिक-नीतियों में वे बड़े बदलाव कर पाएंगे? अधिकतर पर्यवेक्षक मानते हैं कि फौरन किसी बड़े बदलाव की उम्मीद उनसे नहीं करनी चाहिए, पर यह भी मानते हैं कि जनादेश बदलाव के लिए है. सवाल है कि कैसा बदलाव?
पेज़ेश्कियान ने अपने चुनाव-प्रचार के दौरान पश्चिमी
देशों के साथ रचनात्मक-संवाद की बातें कई बार कही हैं. माना जा रहा है कि 2015 में
हुए और 2018 में टूटे नाभिकीय-समझौते पर वे देर-सबेर फिर से बातचीत शुरू कर सकते
हैं. संभवतः जावेद ज़रीफ उनके विदेशमंत्री बनेंगे, जो अतीत में इस समझौते के
मुख्य-वार्ताकार रहे हैं.
सच यह भी है कि ईरान
में बुनियादी फैसले राष्ट्रपति के स्तर पर नहीं होते. पेज़ेश्कियान ने अपने चुनाव प्रचार के दौरान बदलाव की बातें ज़रूर
की हैं, पर आमूल बदलाव का कोई वायदा नहीं किया है. वे जो भी करेंगे, व्यवस्था के
भीतर रहकर ही करेंगे. बदलाव आएगा भी, तो व्यवस्था के भीतर से और शायद धीरे-धीरे.
‘सुधारवाद’ की परीक्षा
देश में सुधारवादियों का भी जनाधार है और व्यवस्था इतनी कठोर नहीं है कि उनकी अनदेखी करे. पेज़ेश्कियान भी सावधानी से कदम रखेंगे. वे मध्यमार्गी हैं. उनकी तुलना में मीर हुसेन मौसवी और पूर्व राष्ट्रपति अली अकबर हाशमी रफसंजानी की बेटी फाज़ेह हाशमी रफसंजानी ज्यादा बड़े स्तर पर सुधारों की माँग कर रहे हैं.
मीर हुसेन मौसवी देश में 1981 से 1989 के बीच
प्रधानमंत्री रह चुके हैं. उनके हटने के बाद वह पद भी समाप्त कर दिया गया था. 2009
के राष्ट्रपति चुनाव में वे राष्ट्रपति महमूद अहमदीनेजाद के खिलाफ चुनाव लड़े थे,
पर जीत नहीं पाए थे. उस चुनाव में धाँधली होने का आरोप भी लगा था.
फरवरी 2023 में उन्होंने आह्वान किया था कि देश
के 1979 के संविधान में बदलाव के लिए जनमत संग्रह होना चाहिए. इन दिनों वे घर में
नज़रबंद हैं.
2009 में राष्ट्रपति चुनाव के नतीजे आने के बाद
देश में व्यापक और हिंसक विरोध प्रदर्शन हुए थे. उस वक्त पेज़ेश्कियान ने
प्रदर्शनकारियों के साथ हुए बर्ताव की आलोचना की थी. इस वजह से वे कट्टरपंथी
नेताओं के निशाने पर भी हैं. स्त्रियों के लिए कठोर ड्रेस-कोड लागू करने वाली सांस्कृतिक-पुलिस
की कार्रवाई को भी पेज़ेश्कियान 'अनैतिक' बता
चुके है.
ईरान इस बात पर संतोष कर सकता है कि उसने संकट
के बीच राष्ट्रपति चुनाव कराया, लेकिन उसके शासकों को बढ़ते असंतोष और मतदाताओं की
घटती रुचि पर भी गौर करना होगा. शायद जनता के बढ़ते दबाव की वजह से सुधारों का
प्रस्थानबिंदु तैयार हो गया है.
बदलाव की बयार
यह बात ईरान पर ही नहीं, कमोबेश सभी इस्लामिक
देशों पर लागू होती है. आधुनिक लोकतंत्र के नज़रिए से पश्चिम एशिया के मुस्लिम
देशों में सिर्फ ईरान में ही मुकम्मल लोकतांत्रिक व्यवस्थाएं हैं. दूसरा
लोकतांत्रिक देश पाकिस्तान है.
इन दोनों से बेहतर स्थिति तुर्की में है,
जिस पर यूरोप का असर है. कमोबेश यही स्थिति सीरिया की है जहाँ
समाजवादी बाथ पार्टी का शासन है, जिसे निरंकुश कहा जा सकता है, कट्टरपंथी नहीं. इनके अलावा बांग्लादेश, मध्य एशिया के कुछ देश और
मलेशिया तथा इंडोनेशिया जैसे भी लोकतांत्रिक प्रयोग कर रहे हैं.
2011 की बहार-ए-अरब (अरब स्प्रिंग) की चिंगारी ट्यूनीशिया
से उठी थी. उसकी वजह से ट्यूनीशिया, मिस्र, यमन और लीबिया में सत्ता परिवर्तन हुए थे. बदलाव की यह लहर किसी
दूसरी शक्ल में सऊदी अरब और खाड़ी के देशों तक भी पहुँची है.
उत्तरी अफ्रीका के मगरिब और पश्चिम एशिया के
देशों के बीच अनेक असमानताएं है, पर कुछ समानताएं भी हैं. ईरान को अलग
कर दें तो अरब राष्ट्रवाद इन्हें जोड़ता है. लीबिया, ट्यूनीशिया,
अल्जीरिया, मिस्र, सीरिया,
बहरीन, यमन से लेकर सऊदी अरब तक परिवर्तन की
मनोकामनाएं जन्म ले रही हैं.
लोकतांत्रिक-विरोध व्यक्त करने के तरीके विकसित
न होने और सत्ता-परिवर्तन के शांतिपूर्ण तरीकों की परंपरा नहीं होने के कारण इस
पूरे इलाके में अजब तरह का असमंजस है.
ईरान का चुनाव
ईरान के चुनाव-परिणाम से निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि वहाँ का मतदाता
जागरूक है और समय के साथ बदलाव चाहता है. ध्यान दें कि 1979 की क्रांति के बाद से
हुए 14 चुनावों में पहली बार राष्ट्रपति-चुनाव दो दौरों में पूरा हुआ है. पहले दौर
में जहाँ मतदान 39.9 प्रतिशत के साथ अपने निम्नतम स्तर पर था, वहीं दूसरे दौर में
वह बढ़कर 50 प्रतिशत के आसपास आ गया. शायद मौन-मतदाता दूसरे दौर में मुखर हुआ.
मई के महीने में एक हेलिकॉप्टर हादसे में ईरान
के राष्ट्रपति इब्राहिम रईसी के निधन के बाद शुक्रवार 28 जून को ईरान में नए
राष्ट्रपति के लिए मतदान हुआ था. इसमें चार प्रत्याशी थे. किसी एक को 50 प्रतिशत
से ज्यादा वोट नहीं मिलने पर पहले दो प्रत्याशियों, ‘सुधारवादी’
मसूद पेज़ेश्कियान और ‘सिद्धांतवादी (अनुदारवादी)’ सईद जलीली के बीच 5 जुलाई को अंतिम मुक़ाबला हुआ.
मतदाता का संशय
ईरान की कुल आबादी 9 करोड़ है, जिसमें वैध मतदाताओं की संख्या क़रीब 6.15 करोड़ है. ईरान के गृह
मंत्रालय के अनुसार, पहले चरण में क़रीब 39.9 फ़ीसदी लोगों
ने अपने मताधिकार का इस्तेमाल किया. 1979 में हुई इस्लामी क्रांति के बाद से अब तक
का यह सबसे कम मत-प्रतिशत है. पर्यवेक्षक इस बात को ईरानी व्यवस्था पर भरोसे में
आती कमी के रूप में देख रहे हैं.
ईरान में कौन चुनाव लड़ेगा और कौन नहीं लड़ेगा,
इसका फ़ैसला गार्डियन कौंसिल (संरक्षक-परिषद) करती है. आत्यंतिक-विचारों
वाले व्यक्ति को चुनाव लड़ने का मौका नहीं मिल सकता है. कौंसिल के सदस्यों को खुद
ईरान के सर्वोच्च नेता आयतुल्ला अली खामनेई नामांकित करते हैं. वे इसके प्रमुख भी
हैं.
इस बार के चुनाव के लिए शुरुआत में गार्डियन कौंसिल
ने छह उम्मीदवार तय किए थे, लेकिन रूढ़ि-प्रिय वोटों के
बँटने के डर से दो उम्मीदवारों को हटा दिया गया.
राजव्यवस्था का सिद्धांत
ईरान की राजव्यवस्था का सिद्धांत है ‘विलायत-ए-फ़कीह.’ यानी फ़कीह (इस्लामी न्यायविद) का संरक्षण. विलायत
अल-फ़कीह का सिद्धांत शिया वैचारिक-आधारशिला से जुड़ा है. मौजूदा वली-ए-फ़कीह (संरक्षक
न्यायविद-गार्डियन ज्यूरिस्ट) आयतुल्ला अली खामनेई हैं.
राष्ट्रपति पद पर व्यक्ति दो बार से ज्यादा काम
नहीं कर सकता है, पर सुप्रीम लीडर के कार्यकाल की कोई सीमा नहीं हैं. उनका चुनाव
विशेषज्ञों की एक सभा करती है, जिसके सदस्यों का चुनाव आठ साल के लिए मतदाता करते
हैं. इस चुनाव में खड़े होने के लिए भी गार्डियन कौंसिल की अनुमति लेनी होती है.
2016 में हुए चुनाव में 801 व्यक्तियों ने
आवेदन किया था, जिनमें से 166 को अनुमति मिली थी. 1979 की क्रांति के बाद से देश
में केवल दो सुप्रीम लीडर हुए हैं. पहले थे खुमैनी (जिनका 1989 में निधन हो गया)
और दूसरे हैं वर्तमान खामनेई.
ईरान की संसद क़ानून बनाती है और वह राष्ट्रपति
की शक्तियों पर रोक भी लगा सकती है. वहीं, नए क़ानून को
मंज़ूरी देने का काम गार्डियन कौंसिल का होता है. यह कौंसिल क़ानून या किसी
प्रस्ताव को वीटो भी कर सकती है.
ईरानी व्यवस्था में मूल-नीतियों में राष्ट्रपति
बदलाव नहीं कर सकते. अतीत में, खात्मी और हसन रूहानी जैसे सुधारवादी
राजनेता परिवर्तन के वायदों पर भारी जनादेश हासिल कर चुके हैं, पर वे धार्मिक
नेताओं द्वारा नियंत्रित प्रणाली को खोलने की दिशा में कुछ खास कर नहीं पाए.
दो चुनौतियाँ
देश के सामने दो चुनौतियाँ हैं. एक, प्रशासनिक
और सामाजिक-प्रणाली को भीतर से सुधारना और दूसरे आर्थिक संकटों से निजात पाना.
आर्थिक-संकट काफी हद तक पश्चिमी प्रतिबंधों के कारण हैं. आप इन प्रतिबंधों की
कितनी भी आलोचना करें, पर वे वास्तविक हैं. उन्हें खत्म कराने की कोशिशें करनी
होंगी.
इस मामले में ईरान में अंतिम निर्णय करने का
अधिकार 85 वर्षीय आयतुल्ला अली खामनेई और उनके निकटतम सहयोगियों के हाथ में ही है.
1979 में आयतुल्ला रूहोल्ला खुमैनी के नेतृत्व में हुई क्रांति के बाद स्थापित
व्यवस्था में सर्वोच्च धार्मिक नेता ही राष्ट्राध्यक्ष होते हैं. राष्ट्रपति उनकी अनुमति
लेकर ही काम कर सकते हैं.
यह संभावना होती है कि राष्ट्रपति पद पर चुने
गए व्यक्तियों में से कोई भविष्य में सर्वोच्च राष्ट्राध्यक्ष भी बन सकता है.
वर्तमान सर्वोच्च नेता आयतुल्ला खामनेई भी अस्सी के दशक में राष्ट्रपति थे. हाल तक
माना जा रहा था कि इब्राहीम रईसी आयतुल्ला के उत्तराधिकारी होंगे, पर उनके निधन के
बाद वह संभावना समाप्त हो गई है.
ऊपर बताई दो चुनौतियों की वजह से मतदाताओं का
एक वर्ग उदासीन भी है. इस वजह से मतदान का प्रतिशत लगातार गिरता जा रहा है. 2009 में जहाँ कुल मतदान 80 फीसदी से ऊपर
था, तो इस साल के चुनाव के पहले दौर में यह सबसे कम
39.9 फीसदी तक हो गया. राजधानी तेहरान के केवल 23
फीसदी वोट पड़ना, 77 फीसदी मतदाताओं की गंभीर-बेरुखी की ओर इशारा करता है.
ईरान की राजनीतिक व्यवस्था में लोकतंत्र, फौजी शासन
और धार्मिक-राज्य के तत्व मिले-जुले हैं. व्यवस्था का वास्तविक संचालन
धार्मिक-नेताओं और सेना के हाथ में है. पहले दौर में मोहम्मद बाकर क़ालिबाफ
धार्मिक नेताओं और सेना के ‘सिद्धांतवादी’ प्रतिनिधि थे, पर वे चुनाव में तीसरे
नंबर पर रहे.
इससे यह बात भी समझ में आती है कि जनता का बड़ा
हिस्सा कठोर-व्यवस्था नहीं चाहता. सितंबर 2022 में महसा अमीनी की मौत के बाद खड़े
हुए महिलाओं ने सामाजिक-स्तर पर बहस को जन्म दिया है.
उस आंदोलन की छाया इस चुनाव पर दिखाई नहीं पड़ी,
पर इतना जरूर नज़र आता है कि ईरानी स्त्रियों की चुनाव की राजनीति से अपेक्षाएं कम
हुई है. पुरुषों की तुलना में स्त्रियों ने चुनाव की अनदेखी ज्यादा की है.
वैचारिक-टकराव
देश में दो साल से सामाजिक-परिवर्तन के लिए
आंदोलन चल रहा है, उसके जवाब में कट्टरपंथी आंदोलन भी खड़ा हुआ है. ‘जेबा-ए-पायेदारी-ए-इंकलाबे-इस्लामी’ नाम का समूह चाहता है कि देश 1979 के क्रांतिकारी दौर
में वापस लौटे. इस समूह को ‘सुपर रिवॉल्यूशनरी’ समूह कहा जाता है.
ईरान के कठोर
राष्ट्रवादी अपने नाभिकीय कार्यक्रम को अमेरिका-समर्थित विश्व-व्यवस्था के हवाले
करने को तैयार नहीं है. उधर करीब दो साल से हिजाब को लेकर चल रहे आंदोलन के खिलाफ
सरकारी कार्रवाई जारी है.
यहाँ सुधारवाद से तात्पर्य व्यवस्था में आमूल
परिवर्तन नहीं है. इसका फिलहाल अर्थ है पश्चिम से संवाद कायम करना ताकि
आर्थिक-संकटों से मुक्ति मिले. इसके अलावा सामाजिक-जीवन में समय के साथ बदलाव के
रास्तों को खोलना.
आर्थिक दुश्वारियों और सांस्कृतिक पुलिस
व्यवस्था की बढ़ती भूमिका को लेकर जनता के एक वर्ग में नाराज़गी है. ईरान पर इसराइल-हमास
युद्ध शुरू होने के बाद से, यमन के हूती और लेबनान के हिज़्बुल्ला समूहों पर काबू
पाने लिए भी बाहरी दबाव पड़ रहा है,. ईरान अपने परमाणु कार्यक्रम का भी
विस्तार कर रहा है
बेशक ईरान में धार्मिक-क्रांतिकारी शासन है, पर वह आंशिक रूप से जन-प्रतिनिधित्व पर आधारित भी है. उसकी वैधता बनाए
रखने के लिए मतदाताओं की उच्च-स्तरीय भागीदारी जरूरी है, पर राजव्यवस्था के सभी
अंग रूढ़िवादियों के नियंत्रण में हैं.
कई सुधारवादी राजनेताओं को चुनाव लड़ने से रोक
दिया गया. सुधारवादी जीत भी जाएं, तो उनपर सर्वोच्च नेता के पद और
‘इस्लामिक रिवॉल्यूशनरी गार्ड कोर’ जैसी संस्थाओं का नियंत्रण होगा, जो जनता
द्वारा चुने हुए नहीं हैं.
No comments:
Post a Comment