कुछ प्रसिद्ध मुस्लिम स्वतंत्रता सेनानी
नवंबर 2003 की बात है. अमेरिका के तत्कालीन
राष्ट्रपति जॉर्ज बुश जूनियर ने लोकतंत्र से जुड़े एक कार्यक्रम में कहा कि भारत
ने लोकतंत्र और बहुधर्मी-समाज के निर्माण की दिशा में अद्भुत काम किया है.
उन्होंने कहा कि भारतीय मुसलमानों ने साबित किया है कि इस्लाम का लोकतंत्र के साथ
समन्वय संभव है.
जॉर्ज बुश ने एक जगह इस बात का जिक्र भी किया है
कि अल-कायदा के नेटवर्क में भारतीय मुसलमान नहीं हैं. हालांकि बाबरी मस्जिद और
गुजरात के प्रकरण के बाद भारतीय मुसलमानों को भड़काने के प्रयास किए गए, पर उन्हें
सफलता नहीं मिली.
उसके भी पहले अस्सी के दशक में अफगानिस्तान में
सोवियत सेना के खिलाफ लड़ने वाले 'मुजाहिदीन' के
बीच भारत के मुसलमान या तो थे ही नहीं और थे भी, तो बहुत कम संख्या में थे. आज तो
स्थिति और भी बदली हुई है. भारतीय-संस्कृति और लोकतंत्र में मुसलमानों की भूमिका
अपने आप में विषद विषय है. इस छोटे से
संदर्भ में भी उनकी भूमिका पर नज़र डालें, तो रोचक बातें सामने आती हैं.
वैश्विक लड़ाई से दूर
भारत में मुसलमानों की आबादी इंडोनेशिया और पाकिस्तान की आबादियों के करीब-करीब बराबर
है. पश्चिम एशिया के देशों के नागरिक जितनी बड़ी संख्या में विदेशी-युद्धों में
लड़ते दिखाई पड़ते हैं, उनकी तुलना में भारतीयों की संख्या नगण्य है. उन छोटे
देशों की कुल आबादी की तुलना में उनके लड़ाकों का प्रतिशत देखा जाए तो वह बहुत
ज्यादा होगा.
भारतीय मुसलमान ने वैश्विक-आतंकवाद को नकारा
है. इसकी वजह भारतीय समाज और संस्कृति में खोजी जा सकते हैं. हमें इस बात को हमेशा
ध्यान में रखना होगा कि जिस भारत का विभाजन इस्लाम के आधार पर हुआ, उसमें आज भी
तकरीबन उतने ही मुसलमान नागरिक हैं, जितने पाकिस्तान में हैं. उन्होंने भारत में
ही रहना चाहा, तो उसका कोई कारण जरूर था.
उनकी देशभक्ति को लेकर किसी प्रमाण की जरूरत ही
नहीं है. काउंटर-टेरर रणनीति बनाने वालों को इस फैक्टर पर गहराई से विचार करना
चाहिए कि कौन से सांस्कृतिक-भावनात्मक और मानसिक कारण भारतीय मुसलमानों को अपनी
ज़मीन से जोड़कर रखते हैं.
अतिवादी तत्व
यह भी नहीं कह सकते कि उनके बीच चरमपंथी नहीं हैं. उनके बीच अतिवादी तत्व भी हैं, पर सीमित संख्या में हैं. महत्वपूर्ण बात यह है कि जब वैश्विक-स्तर पर काफी बड़ी आबादी टकराव के रास्ते पर है, भारतीय मुसलमान उससे अपेक्षाकृत दूर हैं. हमारे जीवन में दोनों तरफ से जहरीली बातें भी हैं. उनकी प्रतिक्रिया भी होती है, पर देश की न्यायपालिका और जिम्मेदार नागरिक इस बदमज़गी को बढ़ने से रोकते हैं.
भारतीय मुसलमानों ने अपने देश की बहुल-संस्कृति
को आत्मसात किया है. यह भारत में ही संभव है कि मोहम्मद रफी जैसे गायक, नौशाद की
बनाई धुन पर ‘मन तड़पत हरि दर्शन को आज’ को गाते हैं. इस भजन के बोल शकील बदायूंनी ने लिखे थे. महाभारत जैसे
लोकप्रिय सीरियल को राही मासूम ने लिखा. जायसी और रसखान जैसे कवि हमारी धरोहर
हैं.
मुसलमानों के देश-प्रेम
को लेकर फिर भी कुछ लोगों को संदेह रहता है. उन्हें और शायद बड़ी संख्या में
मुसलमानों को कुछ तथ्यों की जानकारी नहीं है, जिनका हवाला देना बेहतर होगा. हम
जानते हैं कि इकबाल ने ‘सारे जहाँ से अच्छा’ दिया है, जिसे हरेक राष्ट्रीय-अवसर पर
गाया और बजाया जाता है.
राष्ट्रीय-आंदोलन
‘अंग्रेजो भारत छोड़ो’ और ‘साइमन वापस जाओ’ के नारे देने वाले थे युसुफ मेहरअली. ‘जय हिंद’ को राष्ट्रीय संबोधन
के रूप में नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने अपनाया था, पर यह दिया था, जैन-उल-आबिदीन
हसन ने, जो आज़ाद हिंद फौज के कमांडर भी थे. देश में सबसे ज्यादा प्रचलित ‘इंकलाब
जिंदाबाद’ का नारा मौलाना हसरत मोहानी ने दिया था.
भारत के राष्ट्रीय-आंदोलन में मुसलमानों की भूमिका
बताने की जरूरत नहीं है. 1857 का पहला स्वतंत्रता-संग्राम मुगल बादशाह बहादुर शाह
ज़फर के नेतृत्व में हिन्दुओं और मुसलमानों ने मिलकर लड़ा था.
इसके बाद 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के दो साल के भीतर, मुंबई के बद्रुद्दीन तैयबजी उसके अध्यक्ष बने. उनके भाई कमरुद्दीन
तैयबजी भी उसमें शामिल हुए थे. यह परंपरा मौलाना आज़ाद, एमसी छागला, हुमायूं कबीर,
ज़ाकिर हुसेन, फ़ख़रुद्दीन अली अहमद से लेकर एपीजे अबुल कलाम तक जाती है. केवल
नेताओं की ही नहीं बहुसंख्यक मुसलमानों की भारी भागीदारी राष्ट्रीय-आंदोलन में थी.
खेल और संस्कृति
खेल और सांस्कृतिक जीवन में मुसलमानों की
भागीदारी छिपी नहीं है. भारतीय क्रिकेट टीम 1932 से लगातार क्रिकेट खेल रही है. टीम
ने पहला मैच इंग्लैंड के खिलाफ खेला था. उस मैच में भारत की ओर से मोहम्मद निसार,
वजीर अली, नजीर अली और जहांगीर खान शामिल थे.
तब से लेकर अब तक इफ्तिख़ार पटौदी, मंसूर अली
खान पटौदी, गुलाम अहमद और मुहम्मद अज़हरुद्दीन को भारतीय टीम
की कप्तानी का भी मौका मिला. इनके अलावा मुश्ताक अली, सलीम दुर्रानी, अब्बास अली
बेग, सैयद किरमानी, ज़हीर खान, मोहम्मद
कैफ, मोहम्मद शमी और इरफान पठान जैसे तमाम नाम और
हैं.
हिंदी सिनेमा में दिलीप कुमार, मधुबाला, मीना
कुमारी, नौशाद, गुलाम अली खैयाम से लेकर नसीरुद्दीन शाह, आमिर, शाहरुख और सलमान
खान तक न जाने कितने मुस्लिम कलाकारों का योगदान है. यह योगदान कला के हरेक
क्षेत्र में है.
वतन-परस्ती
इस्लाम का दृष्टिकोण अंतरराष्ट्रीय हैं, पर
देवबंदी और बरेलवी विचार स्वदेशी हैं. जमाते-इस्लामी और तबलीगी जमात भारतीय माहौल
में पनपी और विकसित हुई हैं. उनपर पश्चिम एशिया का प्रभाव अपेक्षाकृत कम है. वे
अपनी पहचान भारत में देखते हैं.
जनवरी 1937
में मौलाना हुसैन अहमद देवबंदी ने
दिल्ली के एक जलसे में कहा, मौजूदा ज़माने में क़ौमें औतान (वतन का बहुवचन) से बनती
हैं. इसपर इक़बाल ने इस बात को ग़ैर-इस्लामी बताया था. इकबाल और हुसैन अहमद मदनी की
वह बहस इस बात को बताती है कि धर्म और राष्ट्र के रिश्तों पर इतनी शिद्दत से बहस
भारत के मुसलमानों के बीच संभव है. यह बहस आज भी किसी न किसी रूप में जारी है. इस
बात पर लोग कम ध्यान देते हैं कि आजादी से पहले देश में मुस्लिम विचारकों का एक
बड़ा तबका विभाजन
के विरोध में था.
आधुनिक नज़रिया
इकबाल के पहले उन्नीसवीं सदी में सर सैयद ने
मुसलमानों को आधुनिक शिक्षा और दृष्टिकोण अपनाने का सुझाव दिया था. उनके बनाए
अलीगढ़ विश्वविद्यालय ने राष्ट्रवादी मुसलमान-विद्वानों को बड़ी संख्या में तैयार
किया.
इकबाल के वैचारिक-विकास के तीन चरण हैं.
1901-1905 में उनकी ज्यादातर रचनाएं, जिनमें ‘सारे जहाँ से
अच्छा’ और ‘नया शिवाला’ शामिल हैं, भारतीय
राष्ट्र को समर्पित हैं. उन्होंने लिखा ‘पत्थर की मूरतों में समझा
है तू खुदा है, खाके वतन का मुझको हर ज़र्रा देवता है.’
1905 से 1908 के दौर में उनकी रचनाओं में
दार्शनिक पक्ष दिखाई पड़ता है और 1908 से 1938 तक की उनकी रचनाएं मुस्लिम समुदाय
को समर्पित हैं. उस समय तक पाकिस्तान की अवधारणा तो सामने आने लगी थी, पर उसका
मतलब क्या है, यह स्पष्ट नहीं था.
विभाजन के बाद भारत में मुसलमानों की स्थिति और
राष्ट्र-राज्य में उनकी भूमिका फिर से विचार का विषय बनी है, जो अबतक जारी है. इस
विमर्श के लिए जरूरी यह भी है कि वे आधुनिक विषयों की शिक्षा का पूरा लाभ उठाएं और
मुख्यधारा में शामिल हों.
विभाजन का असर
हालांकि किसी विश्वसनीय सर्वेक्षण की जानकारी
इन पंक्तियों के लेखक को नहीं है, पर भारत से पाकिस्तान गए मुहाजिरों की राय माँगी
जाए, तो बड़ी संख्या में इस बात के समर्थक
मिलेंगे कि विभाजन एक भूल थी. जो हो गया, सो हो गया. हम फिर भी मिल-जुलकर रह सकते
थे. साठ के दशक में फिल्म ‘मुगले-आज़म’ दखने के लिए लोग साइकिल पर बैठकर लाहौर से अमृतसर आते थे.
इतना आसान था हमारा संपर्क. 1965 में
पाकिस्तानी सेना के ‘ऑपरेशन जिब्राल्टर’ ने सारी कहानी बदल दी. और आज दोनों
देशों की कठोर वीज़ा-प्रक्रिया के
कारण एक-दूसरे के यहाँ आना-जाना मुश्किल हो गया है.
सच्चाई यह है कि भारत और पाकिस्तान अलग-अलग देश
हैं और इन दोनों के बीच अच्छे पड़ोस के रिश्तों को कायम करने की जरूरत है. दोनों
देशों के बीच रोटी-बेटी के रिश्ते हैं. जब भी दोनों देशों के बीच कोई आतंकवादी
घटना होती है, सबसे ज्यादा आहत ये परिवार होते हैं.
हाल में भारत के प्रधानमंत्री ने संसद के नए
भवन का उद्घाटन किया है. इस भवन में एक भित्ति-चित्र ‘अखंड भारत’ नाम से है. इसे लेकर पाकिस्तान सरकार ने आधिकारिक रूप
से विरोध व्यक्त किया है. ‘अखंड भारत’ एक
सांस्कृतिक अवधारणा है.
हो सकता है कि किसी की
राजनीतिक-मनोकामना उस भारत ‘अखंड भारत’ से जुड़ी हो,
पर सच यह है कि भारत और पाकिस्तान अलग देश हैं. पाकिस्तान के राजनीतिक नक्शे में तक्षशिला
का होना एक सांस्कृतिक-संदर्भ भी है. यह संदर्भ दोनों देशों का साझा-है. पाकिस्तान
के बहुत से विद्वान पुराने इतिहास से खुद को जोड़ते हैं, और कुछ नहीं भी जोड़ते
हैं. बहरहाल.
भारतीय मन
हम बात कर रहे थे कि 2015 में जिस वक्त इराक से
सीरिया तक आइसिस का आतंक था, उस समय भारत में मुसलमानों की आबादी करीब 18 करोड़
थी. उस वक्त छोटे-छोटे जत्थों में करीब 100 से भी कम लोगों के आइसिस इलाकों में
जाने की सूचनाएं थीं.
इनके अलावा 155 लोगों की गिरफ्तारी की खबरें
थीं. यह संख्या 85 देशों से आए 30 से 40 हजार से ज्यादा लड़ाकों की संख्या को
देखते हुए नगण्य थी. अकेले यूरोप से चार हजार के ऊपर लड़ाके आए थे, जिनमें 1700 से
ज्यादा फ्रांस के थे. भारत से ज्यादा लड़ाके मालदीव के थे, जिनकी संख्या तब 175
बताई गई थी.
भारत के पूर्व डिप्लोमैट तल्मीज़ अहमद के
अनुसार भारतीय मुसलमान जिस गंगा-जमुनी माहौल में रहते हैं, उसके कारण उन्होंने
आतंकी विचारधारा को अस्वीकार किया है. अमेरिका की आंतरिक सुरक्षा के पूर्व सहायक
सचिव डेविड हेमैन के अनुसार, भारतीय मुसलमान देश की बहुल सांस्कृतिक-पहचान का
प्रतिनिधित्व करते हैं.
सूफी परंपरा
भारतीय मुसलमानों का काफी बड़ा हिस्सा सूफी परंपराओं
से जुड़ा है, जो भारतीय परिस्थितियों में विकसित हुई हैं. सूफी विचारों ने देश के
भक्ति आंदोलन के साथ मिलकर 500 वर्षों से ज्यादा समय में एक मिश्रित संस्कृति को
जन्म दिया है. अलकायदा और आइसिस जैसे संगठन सलाफी-वहाबी विचारों से प्रेरित हैं,
जिनका असर भारत में कम है.
इन सब बातों के अलावा भारतीय मुसलमानों की
आर्थिक स्थिति भी एक बड़ा कारण है. वे अपनी आजीविका से इतना ज्यादा जुड़े हैं कि
हिंसक गतिविधियों से दूर रहते हैं. भारत के परंपरागत सामाजिक और पारिवारिक मूल्य
यहाँ भी महत्वपूर्ण साबित होते हैं. उनके परिवारों का उनपर दबाव रहता है. पश्चिम
एशिया के देशों के नागरिकों का तुर्की, इराक, सीरिया या अफगानिस्तान तक आवागमन
आसान है, भारत से यह आसान नहीं है.
इसे मीडिया के परिप्रेक्ष्य में देखें। भारतीय
मुसलमान के सामने तमाम दुश्वारियाँ हैं, पर भारतीय राष्ट्र राज्य पर उसकी आस्था है.
इस आस्था को कायम रखने में मीडिया की भी भूमिका है. इस भूमिका और बेहतर बनाने की
जरूरत है.
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