पाकिस्तान फिलहाल इस गतिरोध से बाहर निकल आया। इमरान सरकार गई और नई सरकार आ गई, पर इस संकट के कुछ सकारात्मक और नकारात्मक परिणाम लम्बे अरसे तक याद रखे जाएंगे। देश में सेना के समर्थन से असैनिक सरकार चलाने की ‘हाइब्रिड-व्यवस्था’ में बदलाव होगा। यह व्यवस्था इमरान खान की सरकार के साथ ही शुरू हुई थी। मोटे तौर पर सेना की भूमिका पूरी तरह खत्म भी नहीं होगी, पर लगता है कि यह भूमिका विदेश-नीति और राष्ट्रीय-सुरक्षा तक ही सीमित रहेगी। सन 2018 के चुनाव में इमरान खान की पार्टी तहरीके इंसाफ को सेना के समर्थन के बावजूद बहुमत नहीं मिला था। उन्हें छोटे दलों का समर्थन दिलाने में भी सेना की भूमिका थी।
मामूली बहुमत से सरकार चलती रही, पर इमरान खान का
अहंकार बढ़ता चला गया। वे आंतरिक राजनीति के साथ ही विदेश-नीति में भी विफल हुए। इमरान
को इतना तो समझ में आता ही था कि वे संसद में अविश्वास प्रस्ताव का सामना नहीं कर
सकेंगे, फिर भी उन्होंने हटना स्वीकार नहीं किया और जो तोड़ निकाला, वह बचकाना था।
यह भी मानना होगा कि इमरान ने करीब साढ़े तीन साल की सत्ता में लोकप्रियता हासिल
करने के अलावा सत्ता के गलियारों में घुसपैठ कर ली है। वे राजनीतिक ताकत बने
रहेंगे।
बावजूद इसके संसद के उपाध्यक्ष की व्यवस्था को
स्वीकार करने का मतलब है कि पाकिस्तान में सरकार बन जाने के बाद उसके विरुद्ध
अविश्वास-प्रस्ताव लाया ही नहीं जा सकेगा, क्योंकि अध्यक्ष या उपाध्यक्ष उसे
देश-द्रोह करार देंगे। संकट जितना भी गहरा रहा हो और राजनीतिक गतिविधियाँ जितनी भी
हास्यास्पद रही हों, सुप्रीम कोर्ट ने समय पर हस्तक्षेप करके संविधान की मंशा को
स्पष्ट किया है। देश के लोकतांत्रिक इतिहास में यह परिघटना मील का पत्थर साबित
होगी।
ट्रंप से उधार
लिया ‘कार्ड’
दूसरी बात जो याद रखी जाएगी, वह है इमरान खान का ‘तुरुप का पत्ता’ जिसे कुछ पर्यवेक्षकों ने ‘ट्रंप-कार्ड’ कहा है। सत्ता से चिपके रहने, हार को अस्वीकार करने और भीड़ को उकसाने और भड़काने की अराजक-प्रवृत्ति। उन्होंने संसद में अविश्वास-प्रस्ताव को जिस तरीके से खारिज कराया, उससे हैरत होती है। उसे ‘मास्टर-स्ट्रोक’ की संज्ञा दी गई। अपनी ही सरकार का कार्यकाल खत्म होने का जश्न मनाया गया। दूसरी तरफ एक झटके में 197 सांसदों को देशद्रोही घोषित कर दिया गया। इनमें वे सहयोगी दल भी शामिल थे, जो कुछ दिन पहले तक सरकार के साथ थे। उन्होंने इस बात पर भी विचार नहीं किया कि उनकी अपनी पार्टी के करीब दो दर्जन सदस्य उनसे नाराज क्यों हो गए। ये सब ‘बिके हुए’ नहीं, असंतुष्ट लोग हैं। विरोधियों को गद्दार, देशद्रोही और दुश्मन साबित करने की राजनीति, दुधारी तलवार है। इससे दोनों तरफ की गर्दनें कटती हैं।
इमरान खान साबित नहीं
कर पाए कि उनके खिलाफ अंतरराष्ट्रीय साजिश है। देश की सेना ने भी ऐसा नहीं माना। उन्हें
समझना चाहिए था कि बदहाली क्यों है? जनता
परेशान क्यों है? ऐसा करने के बजाय उन्होंने बचकाने बयान जारी करके अपनी साख गिराई। वह
भी ऐसे दौर में जब दुनिया अभूतपूर्व संकट से गुजर रही है।
2018 के चुनाव में इमरान खान मीडिया की मदद से
उभर कर आए थे, पर प्रधानमंत्री बनने के बाद वे मीडिया के ही खिलाफ हो गए। उनसे
पहले की सरकार ने ‘प्रिवेंशन ऑफ इलेक्ट्रॉनिक क्राइम्स एक्ट
(पेका)’ बनाया था, जिसे इमरान खान ने और कठोर बना
दिया। पर लोकतांत्रिक-भविष्य उसकी संस्थाओं की परिपक्वता पर निर्भर करेगा। न्यायपालिका,
संसद और कार्यपालिका के संतुलन को बनाने की जरूरत है। इस वक्त जो समाधान हो रहा
है, वह नज़ीर बनकर भविष्य के संकटों को खड़ा होने से रोकेगा। संकटों के विवेकशील
समाधान से ही लोकतांत्रिक-व्यवस्था पुख्ता होती है।
इस संकट में भारत के
लिए भी कुछ नसीहतें छिपी हैं और आश्वस्ति के कुछ कारण भी हैं। हमारे यहाँ
सत्ता-परिवर्तन अपेक्षाकृत आसानी से होते रहे हैं। पाकिस्तान को यह बात सीखनी
चाहिए। इमरान ने संकट खड़ा किया। खुद को देश का सबसे बड़ा हितैषी और
प्रतिस्पर्धियों को देशद्रोही साबित करने का प्रयास किया। बार-बार मजहब का कार्ड
खेला। ये काठ की हाँडियाँ हैं। बार-बार नहीं चढ़ेंगी। उसके खतरों को भी समझना
चाहिए।
दक्षिण एशिया
दोनों देशों के रिश्ते
क्या अब सुधरेंगे? हो सकता है कि कुछ बदलाव हो, पर बड़ी उम्मीदें
पालना गलत होगा। पाकिस्तान की राजनीति में ‘भारत-द्रोह’ केंद्रीय राजनीतिक-सिद्धांत है। पूरी
व्यवस्था इसपर चलती है। इमरान खान के पहले नवाज़
शरीफ के दौर में बातचीत शुरू करने की कोशिश हुई थी, पर शायद उन्होंने अपने सत्ता-प्रतिष्ठान
यानी सेना को भरोसे में नहीं लिया था। उसके परिणाम में ही आज इमरान खान हमारे
सामने हैं।
पिछले कुछ समय से
पाकिस्तानी सेना के दृष्टिकोण में बदलाव आया है। हाल में जारी राष्ट्रीय-सुरक्षा
की नई नीति के प्रारूप में कहा गया है कि असली आर्थिक-सुरक्षा है। पिछले साल
नियंत्रण-रेखा पर गोलाबारी रोकने का भारत के साथ जो समझौता हुआ था, वह अभी तक
कारगर है। इसका मतलब है कि दोनों देशों के बीच किसी स्तर पर समन्वय है। इसी
पृष्ठभूमि में पिछले साल पाकिस्तान ने भारत से कपास और चीनी खरीदने का पहले फैसला
किया और फिर उसे रद्द कर दिया। इससे सरकार के अंतर्विरोध तो मुखर हुए ही, साथ ही
इमरान खान की अपरिपक्वता भी सामने आई।
जो भी
राजनीतिक-व्यवस्था बनेगी, वह भारत के साथ फौरन मीठे-रिश्ते बनाने की बात नहीं
सोचेगी। हाँ, व्यापार की आंशिक शुरुआत सम्भव है, जो दोनों देशों के बीच विश्वास-बहाली
का बड़ा जरिया है। यदि दक्षेस को सक्रिय करना सम्भव हुआ या पाकिस्तान में दक्षेस
शिखर सम्मेलन करा पाना सम्भव हुआ, तो वह बड़ी सफलता होगी। पाकिस्तान को श्रीलंका
के अनुभव से सीखना चाहिए। अभी नहीं जागे, तो सब कुछ खो देंगे। सकारात्मक तरीके से
सोचेंगे तब भी बदलाव अपना समय लेगा। दक्षिण एशिया को गरीबी और पिछड़ेपन से छुटकारा
दिलाने के लिए नए रास्तों की जरूरत है। दुर्भाग्य से भारत-पाकिस्तान-बांग्लादेश और
श्रीलंका में संकीर्णता की आँधियाँ चल रही हैं। उन्हें रोकना होगा। पर कैसे और कौन
रोकेगा?
आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (13-04-2022) को चर्चा मंच "गुलमोहर का रूप सबको भा रहा" (चर्चा अंक 4399) पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' --