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Sunday, March 27, 2022

सांस्कृतिक-शंखनाद से उभरते सवाल


उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ के शपथ-ग्रहण के दौरान एक ऐसा दृश्य पैदा हुआ, जैसा अतीत में कभी नहीं हुआ था। शपथ-ग्रहण के पहले भाजपा कार्यकर्ताओं ने प्रदेश के हजारों मंदिरों में हवन-पूजन किया। काशी, मथुरा, अयोध्या और प्रयागराज स्थित मठों-अखाड़ों में रहने वाले साधु-संतों ने मंगलाचरण पाठ किया। चौक-चौराहों पर बैनर-होर्डिंग लगे थे। सवा चार बजे योगी आदित्यनाथ के माइक संभालते ही कई मंदिरों में आरती शुरू हुई, शंख-नाद हुआ, घंटे घड़ियाल बजाए गए। शहरों, कस्बों और गाँवों में भाजपा कार्यकर्ता जय श्रीराम के नारे लगाते हुए डीजे पर डांस कर रहे थे। उल्लास की इस अभिव्यक्ति का क्या अर्थ लगाया जाए? क्या यह हमारी प्राचीन संस्कृति का विजयोत्सव है, राजनीतिक हिन्दुत्व की अभिव्यक्ति है, सोशल इंजीनियरी की नई परिभाषा है या भारतीय जनता पार्टी का घोषणापत्र है?

चुनाव-पूर्व मोर्चाबंदी

इन बातों पर टिप्पणी करने के पहले याद यह भी रखना होगा कि उत्तर प्रदेश के इस चुनाव में खुलकर कहा जा रहा था कि मुस्लिम वोटर बीजेपी के खिलाफ पूरी तरह एकताबद्धहै। वह टैक्टिकल वोटिंग करेगा वगैरह। देश-विदेश के सेक्युलर-पर्यवेक्षक भी कह रहे थे। ऐसे निष्कर्षों की प्रतिक्रिया या बैकलैश को ध्यान में रखे बगैर। प्रदेश के नए मंत्रिमंडल पर नजर डालें, जिसमें विभिन्न जातियों को सावधानी से प्रतिनिधित्व दिया गया है। यह बीजेपी की सामाजिक-इंजीनियरी है। किसी टिप्पणीकार ने माना कि बीजेपी ने मंडल, कमंडल और भूमंडल का जो सांस्कृतिक-सामाजिक-राजनीतिक सूत्र तैयार किया है, उसकी काट आसान नहीं है। सवाल है कि क्या इसे उन तमाम छोटे-छोटे पिछड़े सामाजिक-वर्गों के उभार के रूप में देखें, जो राजनीतिक-हिन्दुत्व के ध्वज के नीचे एक हो रहे हैं?  ऐसे तमाम सवालों पर हमें ठंडे दिमाग से विचार करना चाहिए।   

विभाजन से पहले

इन प्रश्नों का उत्तर खोजने के लिए हमें हजारों साल पीछे जाना पड़ेगा, पर इस आलेख का दायरा उतना व्यापक नहीं है। स्वातंत्र्योत्तर भारत की कुछ परिघटनाओं की छाया इन बातों पर जरूर है। सबसे बड़ा कारक है देश का विभाजन। देश ने उदारवादी बहुल-संस्कृति समाज और सेक्युलरवाद को पूरे विश्वास के साथ स्वीकार किया है। पर इस विचार के अंतर्विरोध बार-बार उभरे हैं। यह बात हमें शाहबानो, राम मंदिर, ट्रिपल तलाक और हिजाब से लेकर कश्मीर-फाइल्स तक बार-बार दिखाई पड़ी है। अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण शुरू होने के बाद तीन तरह की प्रतिक्रियाएं दिखाई और सुनाई पड़ीं हैं। सबसे आगे है मंदिर समर्थकों का विजय-रथ, उसके पीछे है लिबरल-सेक्युलरवादियों की निराश सेना, जिन्हें लगता है कि हार्डकोर-हिन्दुत्व के पहियों के नीचे देश की बहुलवादी, उदार संस्कृति ने दम तोड़ दिया है। इन दोनों के बीच मौन-बहुमत खड़ा है, जो खुद को कट्टरवाद का विरोधी मानता है, पर राम मंदिर को कट्टरता का प्रतीक भी नहीं मानता।

मुसलमानों की भूमिका

भारतीय राष्ट्र-राज्य में मुसलमानों की भूमिका को लेकर विमर्श की क्षीण-धारा भी है, पर उसे ठीक से सामने आने नहीं दिया गया। देश में सामासिक-संस्कृति की धारा भी बहती है। रसखान, रहीम, जायसी, नज़ीर अकबराबादी से लेकर बड़े गुलाम अली खां, नौशाद, राही मासूम रज़ा और एपीजे अब्दुल कलाम जैसे मुसलमानों का हिन्दू समाज आदर करता है। योगी सरकार में केवल एक मुसलमान मंत्री है। ऐसा क्यों? चुनाव में बीजेपी मुसलमानों को तभी खड़ा करेगी, जब वे उसे वोट देंगे। उसने मान लिया है कि हमें मुसलमान वोट नहीं चाहिए। उसे मुसलमान-विरोधी साबित करने के पीछे भी राजनीति है। वोटरों के ध्रुवीकरण की शुरुआत कहाँ से हुई है, इसपर विचार करने की जरूरत है। यह विमर्श एकतरफा नहीं हो सकता। भारतीय समाज में तमाम अंतर्विरोध हैं, टकराहटें हैं, पर विविधताओं को जोड़कर चलने की सामर्थ्य भी है। बीजेपी इस विशेषता को खत्म नहीं कर पाएगी।

एकता की जरूरत

हिन्दू हो या मुसलमान जिन्दगी की जद्दो-जहद में दोनों के सामने खड़े सवाल एक जैसे हैं। उन सवालों के हल हमारी एकता में निहित हैं, टकरावों में नहीं। राम मंदिर मामले में अदालत ने अपने निर्णय में एक जगह कहा है कि भारतीय संविधान धर्मों के बीच भेदभाव नहीं करता। अब नागरिक के रूप में हमारा कर्तव्य बनता है कि हम इस बात को पुख्ता करें। मंदिर निर्माण भारत के राष्ट्र निर्माण का एक पड़ाव है। बड़ा सवाल है कि भारत की उदार और समन्वयवादी संस्कृति का क्या हुआ? कांग्रेसी नीतियों की आलोचना करते हुए राम मनोहर लोहिया ने लिखा है, आजादी के इन वर्षों में मुसलमानों को हिन्दुओं के निकट लाने का कोई प्रयत्न नहीं किया गया। अंततः राजनीति वही सफल मानी जाएगी, जो इन्हें तोड़े नहीं, जोड़े। वोट की राजनीति प्रकारांतर से समाज को तोड़ने का काम करती है। उसकी इस दुष्प्रवृत्ति पर विचार करने की जरूरत भी है।

उदारवाद की भूल

पश्चिम की ज्ञान-परम्परा में पनपे वामपंथी-उदारवादी-धर्मनिरपेक्ष तबके ने हिन्दू-परम्पराओं को खारिज करना ही प्रगतिशीलता माना। एक तरफ वह हिन्दू-दृष्टिकोण को बहुसंख्यकवाद कहता रहा, वहीं यह भी कहता रहा कि इसे हिन्दू-सभ्यता कहना बौद्धिक-दुष्टता है। उसने हिन्दू-समाज की विकृतियों को उभारा, पर मुस्लिम-समुदाय की विकृतियों की अनदेखी की। पचास के दशक तक हर प्रकार के अतिवाद का विरोध होता था, पर हाल के वर्षों में अतिवाद की परिभाषा बदल दी गई। धर्मनिरपेक्ष राजनीति अल्पसंख्यकों के अधिकारों पर ही ज़ोर देती रही और कांग्रेस की खामियों पर पर्दा डालती रही। उसने संघ परिवार, उसके विविध तत्वों, उसकी ताकत-उपलब्धियों-विफलताओं पर तटस्थ होकर देखने से इनकार किया।

जिम्मेदार कौन?

यह सेक्युलर-दृष्टि आज ऐतिहासिक पराजय के कगार पर है, तो इसके लिए किसी दूसरे को दोष नहीं देना चाहिए। यह सफाई गलत है कि उसकी पराजय इसलिए हुई, क्योंकि संघ-परिवार की चतुर और कुटिल साजिशें कामयाब हो गईं। यह मान लेना भी गलत है कि भारतीय समाज अनुदार, असहिष्णु और क्रूर हो गया है। न्याय’, ‘स्वाधीनता’, ‘समानता’, ‘भाईचारा’, ‘व्यक्ति की गरिमा’ आदि शब्द जब तक संविधान की प्रस्तावना में कायम हैं और उन्हें संविधान के अनुच्छेदों से सुरक्षा हासिल है तब तक यह मान लेने की जरूरत नहीं है कि हमारे यहाँ फासीवाद आ गया है। वस्तुतः इस राजनीतिक शब्दावली ने इस कथित प्रगतिशील वर्ग को पराजय के दरवाजे पर खड़ा किया है। वे बीजेपी को नकारात्मक आधारों पर हराना चाहते हैं। उन्हें आशा है कि आने वाले समय में महंगाई बढ़ेगी, बेरोजगारी बढ़ेगी, हिंसा बढ़ेगी, जिससे सरकार अलोकप्रिय होगी। वे देख नहीं पा रहे हैं कि वे खुद अलोकप्रिय होते जा रहे हैं।

नैरेटिव की खामी

पिछले चार दशकों में कम से कम पाँच घटनाक्रमों ने जनता का ध्यान खींचा है। चीनी हमला, खालिस्तानी आंदोलन, मंदिर, मंडल और कश्मीर। इन बातों के बीच में शाहबानो वाला मामला हुआ। शाहीनबाग आंदोलन को सफल तभी कहा जाता, जब वह दिल्ली, लखनऊ या देश के दूसरे शहरों के गैर-मुस्लिम इलाकों में होता। इसे शुद्ध रूप से मुसलमानों का आंदोलन बनाया गया। इन सभी घटनाक्रमों का समय एक-दूसरे से जुड़ा हुआ है। लिबरल-सेक्युलर विचार के अंतर्विरोध भी इन परिघटनाओं से जुड़े हुए हैं। कश्मीर से तीन लाख पंडितों के पलायन का असर शेष भारत पर पड़ा। यह असर कश्मीर-फाइल्स के कारण नहीं है, उसके पहले से है। सन 2010 की गर्मियों में पत्थर मार आंदोलन शुरू हुआ। भारतीय संविधान को फाड़ने और तिरंगे को जलाने की घटनाएं हुईं। 26 जनवरी 2021 को लालकिले के दरवाजे तोड़कर झंडा लगाने की जो घटना हुई, उसका असर मतदान के दिन होना ही था। कश्मीर बहुत बड़ा टेस्ट केस है। देश का अकेला राज्य जहाँ मुसलमानों का स्पष्ट बहुमत है। वहाँ के नागरिक भारत की धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था के संरक्षक के रूप में खड़े होते, तो बहुसंख्यकों पर नैतिक दबाव पड़ता। लिबरल तबके का फर्ज था कि देश के मुसलमानों को साथ लेकर उस आंदोलन के विरोध में खड़े होते। ऐसा नहीं हुआ।

हरिभूमि में प्रकाशित

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