भारत जैसे महादेश की एकता और अखंडता को बनाए रखना आसान काम नहीं है। खतरों की बात जब होती है, तब उसे भौगोलिक-सीमाओं तक महदूद मान लिया जाता है। आंतरिक-सुरक्षा के सामने खड़ा खतरा दिखाई नहीं पड़ता। दिखाई भी पड़ता है, तो उसके पीछे के ‘बाहरी-हाथ’ को हम देख नहीं पाते हैं। ‘फिफ्थ-कॉलम’ (घर के भीतर बैठा दुश्मन) तो अदृश्य होता ही है। आर्थिक-सामरिक हितों के समांतर आंतरिक-सुरक्षा की चुनौतियाँ बढ़ रही हैं, जो कम से कम तीन भौगोलिक-क्षेत्रों में दिखाई पड़ रही हैं। कश्मीर में लंबे अरसे से चल रहा हिंसक-प्रतिरोध और उन्हीं ताकतों से प्रेरित पंजाब में अलगाववाद, जिसे फिर से जगाने की कोशिश हो रही है। पूर्वोत्तर की हिंसा, जो काफी हद तक कमजोर हो चुकी थी, उसे भी भड़काने की कोशिशें हुई हैं। और मध्य भारत के लाल गलियारे की माओवादी हिंसा। तीनों हमारे सामने हैं, पर तीनों को जोड़ने वाले सूत्र अदृश्य हैं, दिखाई नहीं पड़ते।
चीन-पाक धुरी
हाल में भारत के सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल ने
अफगानिस्तान को लेकर जब मध्य एशिया और पड़ोस के देशों का सम्मेलन बुलाया, तब
पाकिस्तान ने उसके बहिष्कार की घोषणा की और चीन ने बहाना बनाकर कन्नी काटी। पाकिस्तान
ने बैठक का न केवल विरोध किया, बल्कि अफगानिस्तान में शांति-स्थापना को लेकर भारत
पर कई प्रकार के आरोप लगाए। चीन ने बैठक से अनुपस्थित होकर पाकिस्तानी-रणनीति का
समर्थन किया। दोनों की जुगलबंदी शक्ल ले रही है।
जम्मू-कश्मीर में कुछ महीनों से एक के बाद एक
हिंसक घटनाएं हो रही हैं। निशाने पर हैं, प्रवासी कामगार, कश्मीरी पंडित-सिख और सरकार
के ‘वफादार’ मुसलमान। पुंछ में करीब एक महीने से
घुसपैठियों के खिलाफ सेना का अभियान जारी है। पाकिस्तान की ओर से बड़े स्तर पर
घुसपैठ हुई है। राजौरी में भी घुसपैठ हुई है। अंतरराष्ट्रीय सीमा पर भी पाकिस्तानी
सेना की गतिविधियों में असामान्य बदलाव है।
लगता है कि चीन-पाकिस्तान साझेदारी में भारत को
अर्दब में लेने के लिए कोई नया खेल शुरू हुआ है। पूर्वी लद्दाख में जारी गतिरोध को
सुलझाने के लिए चीन के साथ 13वें दौर की बातचीत भी बेनतीजा रही। इधर चीन की संसद
ने गत 23 अक्तूबर को अपनी ज़मीनी सीमा की पहरेदारी को लेकर एक कानून को पास किया
है, जिसके तहत सीमावर्ती नागरिकों को कुछ अधिकार और दायित्व सौंपे गए हैं। खासतौर
से तिब्बत की सीमा से लगे भारत, भूटान और नेपाल के गाँवों के नागरिकों
को पहली रक्षा-पंक्ति के रूप में काम करने की जिम्मेदारी गई है।
चीनी हरकतें
इस कानून के ठीक पहले चीन ने भूटान के साथ एक
समझौता किया है। उसका निहितार्थ स्पष्ट नहीं है, पर लगता है कि वह भूटान को
फुसलाने की कोशिश कर रहा है। भारत की सीमा पर चीन ने हाल में अपनी सैन्य-क्षमता को
बढ़ाया है, नए हवाई अड्डे तैयार किए हैं। भूटान की सीमा पर
एक नया गाँव ही बसा दिया है। उधर अमेरिकी रक्षा विभाग ने चीन के सैन्य आधुनिकीकरण
पर एक बड़ी रिपोर्ट में कहा है कि भारत के साथ वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर
अपने दावों पर जोर डालने के लिए चीन लगातार रंग बदलने वाली हरकतें कर रहा है।
गत 13 नवंबर को मणिपुर में भारत-म्यांमार सीमा पर चुराचंदपुर जिले में हुए आतंकवादी हमले में 46 असम राइफल्स के कमांडिंग ऑफिसर कर्नल विप्लव त्रिपाठी, उनकी पत्नी और बेटे और चार सैनिकों की हत्या के बाद हमारी निगाहें पूर्वोत्तर की आतंकवादी गतिविधियों की ओर घूमी हैं। मणिपुर में 2015 के बाद यह पहला बड़ा हमला है। उग्रवादी संगठन रिवॉल्यूशनरी पीपुल्स फ्रंट (आरपीएफ) ने एक प्रेस विज्ञप्ति में दावा किया है कि कॉन्वॉय पर हमला हमारी सशस्त्र शाखा पीएलए (पीपुल्स लिबरेशन आर्मी) और एमएनपीएफ ने किया है। यह पीएलए चीनी-समर्थन पर फली-फूली है।
गढ़चिरौली-कार्रवाई
जिस रोज मणिपुर में असम राइफल्स के कॉन्वॉय पर
हमला हुआ, उसी रोज महाराष्ट्र पुलिस की स्पेशल एंटी-माओवादी फोर्स कमांडो-60 ने
गढ़चिरौली जिले में चलाए गए एक विशेष ऑपरेशन में सीपीआई-माओवादी के 26
कार्यकर्ताओं को मार गिराया। इसमें माओवादी कमांडर मिलिंद बाबूराव तेलतुम्बडे उर्फ
दीपक तेलतुम्बडे भी मारा गया। दीपक तेलतुम्बडे माओवादियों के महाराष्ट्र, मध्य
प्रदेश, छत्तीसगढ़ (एमएमसी) परिक्षेत्र का प्रमुख था। एक प्रकार से वह माओवादी
रणनीतिकारों के सबसे महत्वपूर्ण लोगों में से एक था, जिसपर 50 लाख रुपये का इनाम
घोषित था। वह भीमा-कोरेगाँव मामले का भी अभियुक्त था।
इन घटनाओं के छोर अलग-अलग हैं, पर गौर से देखें
तो पाएंगे कि वे कहीं जुड़ते हैं। किसान-आंदोलन के दौरान 26 जनवरी को दिल्ली में
लालकिले पर हुए हमले के बाद भारत की आंतरिक-सुरक्षा को लेकर कई तरह के सवाल खड़े
हुए थे। अभी 31 अक्टूबर को खालिस्तान समर्थक संगठन सिख फॉर जस्टिस ने खालिस्तान की
स्थापना के लिए एक जनमत संग्रह कराया। हालांकि इस जनमत संग्रह का व्यावहारिक असर
नहीं होगा, पर हैरत की बात है कि यह कार्यक्रम लंदन में हुआ और ब्रिटिश सरकार ने
इसे होने दिया।
टूलकिट योजना
किसान-आंदोलन के साथ-साथ पर्यावरण और
मानवाधिकारवादियों की आड़ में ऐसे समूह भी सामने आए हैं, जिनकी भूमिका संदिग्ध है।
सोशल मीडिया, आतंकवादी गतिविधियों और प्रचार के लिए वह मुफीद माध्यम बनकर उभरा है।
‘टूलकिट’ को लेकर कई प्रकार के
विचार हैं, पर कोई दावे के साथ नहीं कह सकता कि देश-विरोधी साजिशों में ऐसी
गतिविधियों की भूमिका नहीं है। जनता के असंतोष को भड़काना और फिर उसका लाभ उठाने की
योजना है।
मणिपुर में हुए हमले के बारे में रक्षा-विशेषज्ञों
के एक तबके का कहना है कि इस हमले के पीछे चीन का हाथ हो सकता है। इस इलाके में
सक्रिय सशस्त्र-संगठनों को चीन एक लम्बे अरसे से हथियार और ट्रेनिंग देता रहा है।
उसके साथ पाकिस्तानी खुफिया संगठन आईएसआई भी इस इलाके में सक्रिय है। बांग्लादेश
स्थित पाकिस्तानी उच्चायोग इन गतिविधियों का केंद्र है।
चीनी धमकी
यह पहला मौका नहीं है, जब पूर्वोत्तर की आतंकी
गतिविधियों में चीनी-भूमिका को लेकर विशेषज्ञों ने सवाल उठाए हैं। हाल में ताइवान
को लेकर भारतीय-मीडिया की कुछ रिपोर्टों से नाराज होकर चीन के सरकारी अखबार ग्लोबल
टाइम्स की 6 अप्रैल, 2021 की टिप्पणी में धमकी दी गई, नई दिल्ली खबरदार रहे कि हम
जवाबी कार्रवाई कर सकते हैं। हो सकता है कि हम सिक्किम को भारत का हिस्सा मानने से
इनकार कर दें। हम पूर्वोत्तर के अलगाववादी समूहों का समर्थन भी कर सकते हैं।
मणिपुर और नगालैंड के चरमपंथी संगठनों को चीन
से हथियार मिलते हैं और ट्रेनिंग भी। उल्फा
कमांडर परेश बरुआ और नेशनल सोशलिस्ट कौंसिल ऑफ नगालैंड (आईएम) के फुंतिंग शिमरांग
को चीन ने अपने यहाँ शरण दी है, जो म्यांमार से लगी सीमा पर चीन के युन्नान प्रांत
में रहते हैं। दूसरे देशों में चीन केवल पूँजी निवेश ही नहीं करता, स्थानीय राजनीति में हस्तक्षेप भी करता है। श्रीलंका, मालदीव, पाकिस्तान और नेपाल इसके उदाहरण हैं।
सेशेल्स में भारतीय सैनिक अड्डे की स्थापना के विरोध में वहाँ के विरोधी दलों ने
अभियान चलाया, जो चीन से प्रेरित था।
धन-बल और छल
सोशल मीडिया पर पिछले साल एक अमेरिकी पत्रकार
जोशुआ फिलिप का वीडियो वायरल हुआ था। उनका कहना है, चीन तीन रणनीतियों का सहारा
लेता है। मनोवैज्ञानिक, मीडिया और सांविधानिक व्यवस्था की यह
‘तीन युद्ध’ रणनीति है। प्रतिस्पर्धी देशों को वह उनके ही आदर्शों की रस्सी से
बाँधता है। उसके नागरिकों के पास तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं है, प्रतिस्पर्धी
देशों में है। वह इसके सहारे लोकतांत्रिक देशों में अराजकता पैदा करता है।
चीन ने हमारे जैसे देशों के छिद्र खोज लिए हैं।
आपके यहाँ वाणी की स्वतंत्रता है, तो वह व्यवस्था विरोधी आंदोलनों को हवा
देगा। आपकी न्याय व्यवस्था का सहारा लेकर आपको कठघरे में खड़ा किया जाएगा। आपके
मीडिया की मदद लेगा। आपका बौद्धिक वर्ग उसके एजेंटों का काम करेगा। ट्विटर,
फेसबुक और यूट्यूब जैसे सोशल मीडिया को चीन में घुसने नहीं दिया गया
है, पर भारत जैसे देशों में प्रचार के लिए सैकड़ों-हजारों
लोगों को भरती किया गया है।
हाल में चीन ने भारतीय कंपनियों के अधिग्रहण की
कोशिशें तेज की हैं। इसे लेकर भारत सरकार की चिंताएं बढ़ी हैं। पैसे की ताकत देश
की व्यवस्था के भीतर घुसने का मौका देती है। अमेरिकी थिंकटैंक कौंसिल ऑन फॉरेन
रिलेशंस की विशेषज्ञ एलिसा आयर्स ने लिखा है कि चीनी प्रभाव को रोकना है, तो उसके पूँजी निवेश पर नजर रखनी चाहिए।
इस्लामिक-प्रचार
कश्मीर में हिंसा
भड़काने के लिए आईएसआई ने जैशे-मोहम्मद, लश्करे-तैयबा और हिज्ब-उल-मुजाहिदीन जैसे
संगठनों को हथियार और ट्रेनिंग देने का काम किया है, वहीं पूर्वोत्तर में भी उसने
इस्लामिक संगठन खड़े किए हैं। इनमें मुस्लिम युनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम, मुस्लिम
युनाइटेड टाइगर्स ऑफ असम, इस्लामिक लिबरेशन आर्मी ऑफ असम, हरकत-उल-मुजाहिदीन और
हरकत-उल-जिहाद जैसे तमाम संगठन शामिल हैं।
नब्बे के दशक में ढाका
स्थित पाकिस्तानी उच्चायोग ने उल्फा और नगा समूहों के साथ संपर्क स्थापित कर लिए
थे। बांग्लादेश अब भारत से सहयोग करता है, पर वहाँ पाकिस्तान-परस्त कट्टरपंथी
समूह सक्रिय हैं। वे अपनी सरकार और भारत सरकार दोनों के खिलाफ काम कर रहे हैं। मार्च
में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की यात्रा के दौरान जमात-ए-इस्लामी ने वहाँ जबर्दस्त
हिंसा की थी। हाल में दुर्गा-पूजा के समय मंदिरों पर हमले हुए। यह सब उसी योजना का
हिस्सा है।
राष्ट्रीय सहारा हस्तक्षेप में प्रकाशित
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