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Sunday, October 3, 2021

पंजाब में कांग्रेस का पराभव

पंजाब से पैदा हुआ कांग्रेस पार्टी का संकट बड़ी शक्ल लेता जा रहा है। नवजोत सिंह सिद्धू और अमरिंदर सिंह के विवाद को देखते हुए समझ में नहीं आ रहा है कि पार्टी के भीतर समुद्र-मंथन जैसी कोई योजना है या हालात नेतृत्व के काबू के बाहर हैंयह संकट पंजाब में होने वाले विधानसभा चुनाव के ठीक पहले खड़ा हुआ है, इसलिए यह सवाल बनता है कि क्या नेतृत्व को इसका अंदेशा नहीं था? उसे सिद्धू से बड़ी उम्मीदें थीं, तो उन्हें राज्य का मुख्यमंत्री क्यों नहीं बनाया गया? कैप्टेन अमरिंदर सिंह जैसे बड़े नेता को हाशिए पर डालने की कोशिश क्यों की गई?

सब कुछ सोचकर हुआ है, तो देखना होगा कि आगे होता क्या है। अमरिंदर सिंह एक नई पार्टी बनाने की सोच रहे हैं। यह पार्टी पंजाब-केन्द्रित होगी या राष्ट्रीय स्तर पर नई कांग्रेस खड़ी होगी? कांग्रेस के एक और विभाजन की यह बेला तो नहीं? फिलहाल कुछ लोग कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक की उम्मीद कर रहे हैं, पर उस बैठक में क्या होगा? अगस्त 2020 में जब पहली बार जी-23 के पत्र का विवाद उछला था, तब कार्यसमिति की बैठक में क्या हुआ था? उस बैठक का निष्कर्ष था कि भाजपा से हमदर्दी रखने वालों का यह काम है। उसके बाद से राहुल गांधी इशारों में कई बार कह चुके हैं कि भाजपा से हमदर्दी रखने वाले जाएं और उससे लड़ने वालों का स्वागत है।

सिद्धू के हौसले

पंजाब के नए मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी के फैसलों से नाराज नवजोत सिद्धू ने पहले इस्तीफा दिया और बाद में दोनों के बीच समझौता हो गया। पर इससे संदेश क्या गया? क्या सिद्धू किसी परिवर्तनकारी राजनीति को लेकर सामने आए हैं? मोटे तौर पर समझ में आता है कि कैप्टेन को बाहर करने के लिए बहानों की तलाश थी। सिद्धू जी ने खुद को कुछ ज्यादा वजनदार समझ लिया। बाद में उन्हें अपने वजन का सही अंदाज़ हो गया। पर क्या पार्टी ने अमरिंदर के वजन को सही आँका था?

नई कांग्रेस

कहा जा रहा है कि पार्टी विचारधारा और संगठन के स्तर पर नई शक्लो-सूरत के साथ सामने आने वाली है। इस शक्लो-सूरत को वीआईपी सलाहकार प्रशांत किशोर की सहायता से तैयार किया गया है। नौजवान छवि और वामपंथी जुमलों से भरे क्रांतिकारी विचार के साथ पार्टी मैदान में उतरने वाली है। कन्हैया कुमार के शामिल होने से भी इसका आभास होता है। पर क्या अपनों को धक्का देकर और बाहर वालों का स्वागत करके कोई पार्टी अपने प्रभाव को बढ़ा सकेगी? हाल के वर्षों में कांग्रेस की चुनावी विफलताएं कार्यकर्ता के कारण मिलीं हैं या नेतृत्व की वैचारिक धारणाओं के कारण? नए लोगों का स्वागत करके पार्टी जहाँ नई खिड़कियाँ खोल रही है, वहीं पुराने दरवाजे भी बन्द कर रही है। यह रणनीति उसपर भारी पड़ेगी।

जी-23 की प्रतिक्रिया

पंजाब उन राज्यों में शामिल है, जहाँ कांग्रेस की सरकार है। अगले चुनाव में वह फिर से सत्ता में आई, तो बड़ी सफलता होगी, पर हारी तो इसकी पूरी जिम्मेदारी नेतृत्व की होगी। उसके बाद असंतोष बड़ी शक्ल अख्तियार करेगा। बात केवल पंजाब की नहीं है। पंजाब की घटनाओं पर जी-23 के नेताओं ने जो प्रतिक्रियाएं व्यक्त की हैं, उनपर भी ध्यान दें। कपिल सिब्बल ने पार्टी-नेतृत्व को कठघरे में खड़ा करते हुए कहा कि किसी को पता नहीं कि पार्टी में फैसले कौन करता है। इसके बाद कार्यकर्ताओं ने सिब्बल के घर के बाहर आक्रामक विरोध-प्रदर्शन किया और तोड़फोड़ की।

1969 जैसा माहौल

यह किसके इशारे पर हुआ? इससे पार्टी की कैसी छवि बनी? क्या यही नौजवान छवि है? सवाल है कि अमरिंदर सिंह पुराने लोगों को साथ लेकर क्या कोई नई पार्टी बनाएंगे? राहुल गांधी भी क्या चाहते हैं कि पुराने नेता पार्टी छोड़कर जाएं?  क्या पार्टी के भीतर 1969 जैसा इंडीकेट-सिंडीकेट माहौल है? इस वक्त उससे उलट स्थितियाँ हैं। क्या राहुल को देश परिवर्तन के ध्वज-वाहक के रूप में देख रहा है? 1969 में इंदिरा गांधी की जो छवि थी, वैसी छवि उनकी नहीं है। उनकी अगली परीक्षा उत्तर प्रदेश में है। पाँच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं।  दिल्ली की कुर्सी का रास्ता यूपी से होकर जाता है। पंजाब की परिघटना का असर यूपी और देश की राजनीति पर निश्चित रूप से पड़ेगा।

पार्टी से भगदड़

पंजाब के घटनाक्रम से दो बातें साफ हुई हैं। एक, पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी सीधे फैसले नहीं कर रही हैं। दूसरे राहुल गांधी और प्रियंका अब वस्तुतः हाईकमान हैं। औपचारिक रूप से वे राहुल पार्टी अध्यक्ष बनने को अब भी तैयार नहीं हैं, पर व्यावहारिक रूप से कमान उनके हाथ में है। दूसरी तरफ असंतुष्टों का एक तबका तैयार होता जा रहा है। कुछ लोगों ने पार्टी छोड़ी भी है। इनमें ज्योतिरादित्य सिंधिया, जितिन प्रसाद, सुष्मिता देव, लुईज़िन्हो फलेरो, ललितेश त्रिपाठी, अभिजीत मुखर्जी वगैरह शामिल हैं।

इस बीच पी चिदम्बरम ने गुरुवार को एक ट्वीट किया, जो वरिष्ठ नेताओं की मनोदशा को बता रहा है। उन्होंने लिखा है, जब हम पार्टी के भीतर कोई सार्थक बातचीत नहीं कर पाते हैं तो मैं बहुत ही असहाय महसूस करता हूँ। मैं तब भी आहत और असहाय महसूस करता हूँ जब एक सहकर्मी और सांसद के आवास के बाहर कांग्रेस कार्यकर्ताओं के नारे लगाने वाली तस्वीरें देखता हूँ। कपिल सिब्बल के समर्थन में मनीष तिवारी, गुलाम नबी आजाद, आनन्द शर्मा से लेकर शशि थरूर ने अपने विचार व्यक्त किए हैं। अब देखना है कि अमरिंदर सिंह कब और क्या करते हैं।

अमरिंदर की नई पार्टी

राजनीतिक-प्रेक्षकों का अनुमान है कि अमरिंदर सिंह अगले 15 दिन के अंदर नई राजनीतिक पार्टी का ऐलान कर सकते हैं। उन्होंने कांग्रेस छोड़ने की घोषणा कर ही दी है। कयास थे कि वे भारतीय जनता पार्टी में शामिल होंगे, पर  उन्होंने कहा कि मैं बीजेपी शामिल नहीं हो रहा हूँ। अलबत्ता उन्होंने सिद्धू के विरोध में राष्ट्रवाद का सहारा लिया है। सिद्धू की पाकिस्तान-परस्ती को वे निशाना बनाएंगे। वे जानते हैं कि सिद्धू से उनका कोई बैर नहीं है। सिद्धू उनके खिलाफ किसी का मोहरा बने थे, वे उसपर ही वार करेंगे। ऐसा संकेत भी मिल रहा है कि सिद्धू के कुछ बयानों की वजह से पंजाब के हिन्दू वोटर का मन कांग्रेस से हट रहा है।

कैप्टेन अमरिंदर इस समय बुरी तरह आहत हैं, इसलिए वे प्राणपण से कांग्रेस के विरोध में जुटेंगे। हाल में कांग्रेस के पंजाब प्रभारी हरीश रावत ने कहा कि कांग्रेस ने कैप्टेन का किसी तरह से अपमान नहीं किया। पर कैप्टेन ने महसूस किया। सिद्धू जैसे अनुभवहीन और गैर-कांग्रेसी को इतनी ऊँचाई तक पहुँचाना ही बताता है कि पार्टी ने पंजाब में सावधानी नहीं बरती। इन बातों के दुष्परिणाम होने ही है।

हिन्दू वोट खिसकने का खतरा

सिद्धू अपनी छवि को सिख परस्त बनाने की कोशिश कर रहे हैं। वे बरगारी की घटना को बार-बार इसीलिए उठा रहे थे। पंजाब में पंथिक सिख वोटर अकाली दल के साथ और हिन्दू वोटर कांग्रेस के साथ रहता है। हालांकि कांग्रेस का आधार सिखों और हिन्दुओं दोनों में है, लेकिन 'पंथिक' मुद्दों पर सिद्धू  का अतिशय ध्यान देना कांग्रेस के लिए समस्या पैदा कर सकता है क्योंकि इसमें वह अकाली दल का मुकाबला नहीं कर सकता। बताया जा रहा है कि किसान संगठनों को भी अमरिंदर अपने अभियान में शामिल करेंगे। पंजाब के किसान-आंदोलन से जबर्दस्त राजनीतिक-गतिरोध पैदा हो गया है। देखना होगा कि कैप्टेन इस गतिरोध को तोड़ने का प्रयास करेंगे या नहीं।

फिलहाल कांग्रेस की सबसे बड़ी विफलता अपने लिए अध्यक्ष तय नहीं कर पाने की है। दो साल से ज्यादा समय हो गया, जब राहुल गांधी ने इस पद से इस्तीफा दिया है। नए अध्यक्ष की नियुक्ति में हो रही देरी पार्टी के भ्रमों, संशयों और संदेहों को बढ़ाती जा रही है। पंजाब एक उदाहरण है। राजस्थान और छत्तीसगढ़ भी अभी लाइन में हैं।

हरिभूमि में प्रकाशित

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