देश में हालांकि कोरोना का असर खत्म नहीं हुआ है, पर काफी राज्यों में स्कूलों को फिर से खोलने की तैयारी हो गई है। कई जगह कक्षाएं लगने भी लगी हैं। आज शिक्षक-दिवस पर शिक्षा और शिक्षकों की स्थिति पर हमें विचार करने का मौका मिला है। सवाल है कि कोरोना के शहीदों में डॉक्टरों, नर्सों और फ्रंटलाइन स्वास्थ्य-कर्मियों के साथ शिक्षकों का नाम भी क्यों नहीं लिखा जाना चाहिए? आज जब समारोहों में हम शिक्षकों का गुणगान करेंगे, तब इस बात पर भी विचार करना चाहिए कि पिछले 75 साल में और विशेषकर पिछले एक साल में शिक्षकों के साथ देश ने क्या सुलूक किया? खासतौर से छोटे निजी स्कूलों के शिक्षक, जिनके पास न तो अपनी आवाज उठाने का दम है और न कोई उनकी तरफ से आवाज उठाने वाला है। इनमें बड़ी संख्या महिलाओं की है।
शिक्षक कुंठित क्यों?
सरकारी स्कूलों में अध्यापकों को वेतन जरूर मिलता है, पर उनकी हालत भी अच्छी नहीं है। सरकारी स्कूलों में जितने शिक्षकों की जरूरत है, उसके 50 फीसदी की ही नियुक्ति है। शेष पद खाली पड़े हैं। 2016 में तत्कालीन केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा के बारे में संसद में रिपोर्ट पेश की थी जिसके अनुसार एक लाख स्कूल ऐसे हैं जहां सिर्फ एक शिक्षक है। इनमें मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, बिहार और उत्तराखंड का हाल सबसे खराब था।
कोरोना-काल में सरकारी शिक्षकों का इस्तेमाल कांटैक्ट
ट्रेसिंग, क्वारंटाइन सेंटरों पर ड्यूटी पर किया गया। उत्तर
प्रदेश में पंचायत चुनाव के दौरान उनकी ड्यूटी लगाई गई, जिसके कारण बड़ी संख्या
में उनके संक्रमित होने की खबरें मिलीं। प्राथमिक शिक्षक संघ के अनुसार उत्तर
प्रदेश में 700 से ज्यादा शिक्षकों की मृत्यु कोविड-19 के संक्रमण के कारण हुई।
ऐसी शिकायतें दूसरे राज्यों से भी मिली हैं। शिक्षकों की नाराजगी इस बात पर है कि उनकी
जान ऐसे काम में गई, जो उनका नहीं है। विडंबना है कि उनकी गिनती फ्रंटलाइन वर्कर्स
में भी नहीं होती।
कोरोना का प्रभाव
कोविड-19 के कारण दुनियाभर की शिक्षा-व्यवस्था
प्रभावित हुई है, पर भारत के संदर्भ में यह और भी भयावह
है। सरकारी स्कूल एक हद तक सरकारी संसाधनों के सहारे बच गए, पर
निजी क्षेत्र में उभर रही शिक्षा-प्रणाली को जबर्दस्त धक्का लगा है। इस धक्के में
स्कूल-मालिकों की जो दुर्दशा हुई, वह तो हुई सबसे ज्यादा बदहाली के शिकार
शिक्षक हुए। दूसरी तरफ स्कूलों के बंद होने से बच्चे सबसे ज्यादा प्रभावित हुए,
पर तमाम गरीब बच्चों की शिक्षा का यहीं पर अंत भी हो गया। दुनियाभर
में ऐसे बच्चों की संख्या लाखों में है।
गत 17 मई को लंदन में जारी ह्यूमन राइट्स वॉच
की एक रिपोर्ट में इस भयावहता का थोड़ा सा विवरण दिया गया है। ह्यूमन राइट्स वॉच
ने पाया कि महामारी के दौरान ऑनलाइन शिक्षा पर अत्यधिक निर्भरता ने शिक्षा से
जुड़ी विषमता और ज्यादा बढ़ा दिया है। गरीब परिवारों की एक तरफ रोजी मारी गई और
दूसरी तरफ स्कूलों की ओर से कहा गया कि बच्चे के लिए स्मार्ट फोन खरीदो। मई 2021
तक, 26 देशों में स्कूल पूरी तरह से बंद थे और 55 देशों
में केवल आंशिक रूप से, या कुछ स्थानों में या केवल कुछ
कक्षाओं के लिए, खुले थे।
यूनेस्को के अनुसार, दुनिया
भर में स्कूल जाने वाले करीब 90 फीसदी बच्चों की शिक्षा महामारी ने रोक दी। इस साल
अप्रेल तक वायरस का प्रसार रोकने के लिए 190 से अधिक देशों में 160 करोड़ छात्र
प्री-प्राइमरी, प्राइमरी और सेकंडरी स्कूलों से बाहर
हो गए। कुछ देशों में स्कूल फिर से खोले गए या कुछ छात्रों के लिए खोले गए,
जबकि अन्य जगहों पर वापसी नहीं हुई है। स्कूल बंदी के दौरान, ज्यादातर देशों में, शिक्षा या तो ऑनलाइन या अन्य रिमोट
तरीकों से प्रदान की गई, लेकिन इंटरनेट तक पहुंच, कनेक्टिविटी, सुलभता, भौतिक
तैयारी, शिक्षकों का प्रशिक्षण और घर की परिस्थितियां
समेत कई मुद्दों ने इसे प्रभावित किया।
स्कूल बंद
स्कूलों का अचानक बंद होना करोड़ों बच्चों की
शिक्षा में अस्थायी व्यवधान भर साबित नहीं हुआ, बल्कि
बहुत से बच्चों के लिए उसका अंत हो गया। जो बच्चे अपनी कक्षाओं में लौट आए हैं या
लौट आएंगे, वे महामारी के दौरान पढ़ाई में हुए नुकसान के
असर को बरसों तक महसूस करते रहेंगे। बच्चों की पढ़ाई का टूटना इस त्रासदी का एक
पहलू है। दूसरा पहलू है शिक्षा-प्रणाली का ध्वस्त होना। अभिभावकों के पास फीस भरने
के लिए पैसा नहीं है। है भी तो वे देना नहीं चाहेंगे, क्योंकि
जिस काम के लिए बच्चे को स्कूल में भरती कराया था, वही
नहीं हो रहा है, तो फीस किस बात की?
तमाम राज्यों के हाईकोर्टों ने स्कूलों पर फीस कम
करने के लिए दबाव बनाया है। निजी-स्कूलों के पास शिक्षकों को देने के लिए पैसा
नहीं रहा। पूरी व्यवस्था ध्वस्त हो गई, जिसका सीधा असर
शिक्षकों पर पड़ा। वे तबाह हो गए। पिछले साल अप्रेल-मई के महीनों में हमने प्रवासी
मजदूरों की कहानियाँ पढ़ीं, पर शिक्षकों की दर्दनाक कहानियाँ छिपी रह गईं। उन छोटे
उद्यमियों की तबाही का विवरण भी सामने नहीं आया, जिन्होंने
हाल के वर्षों में बहुत छोटे-छोटे स्कूल खोले हैं।
ग्रामीण शिक्षा
पिछले 20-25 साल में देशभर में छोटे प्राइवेट
स्कूल खुले हैं, जो शैक्षिक कमियों को पूरा करने का
प्रयास कर रहे हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में भी इन्होंने जगह बनाई है। इनमें से कुछ
तो शिक्षकों को ठीक वेतन देते हैं, पर बड़ी संख्या में कम वेतन पर
शिक्षकों को रखते हैं। ऐसे स्कूलों ने सबसे पहले हाथ खड़े किए। इनसे प्रभावित होने
वाले शिक्षक सबसे कमजोर तबके से आते हैं। उनकी गुणवत्ता को लेकर भले ही तमाम सवाल
हैं, पर अंधेरे में रोशनी का दिया जलाने का काम वे
कर रहे हैं।
देश में शिक्षा से जुड़ा सबसे बड़ा संगठन
‘प्रथम’ हर साल शिक्षा की वार्षिक स्थिति रिपोर्ट ‘असर’ जारी करता है। पिछले साल
अक्तूबर में जारी सर्वेक्षण के अनुसार, देश भर में
कोविड-19 के कारण स्कूल बंद होने के कारण लगभग 20 फीसदी ग्रामीण बच्चों को कोई
पाठ्य-पुस्तक प्राप्त नहीं हुई। इस दौरान यूपी, बिहार
और राजस्थान ऐसे राज्य थे, जहां 25 फीसद से भी कम बच्चों को यह
ऑनलाइन अध्ययन सामग्री पहुंचाई गई थी। असर 2020 की इस रिपोर्ट में बच्चों की
ऑनलाइन पढ़ाई पर फोकस किया गया था।
निजी बनाम सरकारी
देश के स्कूलों में करीब 97 लाख अध्यापक
नियुक्त हैं। इनमें से 49 लाख से कुछ अधिक सरकारी स्कूलों में, आठ लाख सरकारी सहायता प्राप्त स्कूलों में, 36
लाख निजी स्कूलों में और शेष अन्य स्कूलों में कार्यरत हैं। देश के कुल स्कूलों
में से 22.38 प्रतिशत स्कूल निजी गैर सहायता प्राप्त हैं तो 68.48 प्रतिशत स्कूल
सरकारी हैं। 37.18 प्रतिशत अध्यापक, निजी स्कूलों मे
तैनात हैं। दूसरी तरफ सरकारी स्कूलों में 50 प्रतिशत पद खाली हैं।
नीति आयोग ने 2017 में अपनी रिपोर्ट में
सिफारिश की थी कि खोखले सरकारी स्कूलों को सार्वजनिक-निजी भागीदारी के तहत निजी
खिलाड़ियों को सौंप दिया जाना चाहिए। बिजनेस स्टैंडर्ड की एक रिपोर्ट के अनुसार 2010-11
और 2015-16 के बीच 20 भारतीय राज्यों के सरकारी स्कूलों में छात्रों के नामांकन
में 1.3 करोड़ की गिरावट आई, जबकि निजी स्कूलों में 1.75 करोड़
बच्चों की संख्या बढ़ी। 2010-11 और 2015-16 के बीच, निजी
स्कूलों की संख्या 35 फीसदी बढ़ी। 2010-11 में उनकी संख्या दो लाख 20 हजार थी,
जो 2015-16 में तीन लाख हो गई। इसके विपरीत सरकारी स्कूलों की संख्या
1 फीसदी बढ़ी, जो 10 लाख 30 हजार से बढ़कर 10 लाख 40
हजार हो गई। एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार, सर्व शिक्षा
अभियान पर खर्च किए गए 1.16 लाख करोड़ रुपये के बावजूद–सार्वभौमिक प्रारंभिक
शिक्षा के लिए राष्ट्रीय कार्यक्रम- 2009 और 2014 के बीच सीखने की गुणवत्ता में
गिरावट आई।
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