कन्हैया कुमार और जिग्नेश मेवाणी के आगमन से कांग्रेस को खुशी होगी, क्योंकि उदीयमान युवा नेता उसके साथ आ रहे हैं, पर उसी रोज नवजोत सिद्धू की कलाबाज़ी एक परेशानी भी पैदा करेगी। सिद्धू के इस्तीफे की खबर मिलने के कारण दिल्ली में हो रहे कार्यक्रम को दो-तीन बार स्थगित करना पड़ा। दोनों परिघटनाएं पार्टी के केन्द्रीय नेतृत्व की दृढ़ता, समझदारी और दूरदर्शिता को लेकर सवाल खड़े करने वाली हैं। कम्युनिस्ट पार्टी का साथ छोड़ने वाले कन्हैया कुमार और गुजरात के दलित कार्यकर्ता-विधायक जिग्नेश मेवाणी कांग्रेस में शामिल हो गए हैं। दिल्ली में हुए कार्यक्रम में जब इन दोनों का पार्टी में स्वागत किया जा रहा था, गुजरात के पाटीदार नेता हार्दिक पटेल भी मौजूद थे।
माना जा रहा है कि कई राज्यों में बागियों से परेशान
कांग्रेस युवाओं पर दांव खेलेगी। सवाल है कि क्या उसके भीतर युवा नेता नहीं हैं? क्या वजह है कि उसके अपने युवा नेता परेशान हैं? सवाल कई प्रकार के हैं। एक सवाल पार्टी की युवा छवि का है, पर ज्यादा
बड़ा सवाल पार्टी के नैरेटिव या राजनीतिक-दृष्टिकोण का है। पार्टी किस विचार पर
खड़ी है?
दृष्टिकोण या विचारधारा
कांग्रेस के नेतृत्व को बेहतर समझ होगी, पर मुझे लगता है कि उसने अपने नैरेटिव पर ध्यान नहीं दिया है, या जानबूझकर जनता की भावनाओं की तरफ से मुँह मोड़ा है। शायद नेतृत्व का अपने जमीनी कार्यकर्ता के साथ संवाद भी नहीं है, अन्यथा उसे जमीनी धारणाओं की समझ होती। कन्हैया कुमार के शामिल होने के ठीक पहले पार्टी के वरिष्ठ नेता मनीष तिवारी ने ट्वीट किया कि कुछ कम्युनिस्ट नेताओं के कांग्रेस में शामिल होने की खबरें हैं। ऐसे में शायद 1973 में लिखी गई किताब 'कम्युनिस्ट्स इन कांग्रेस' को फिर से पढ़ा जाना चाहिए। चीजें जितनी बदलती हैं, उतनी ही बदस्तूर भी रहती हैं। मैंने आज इसे फिर पढ़ा है।
मनीष तिवारी की बात कांग्रेस में कोई क्यों
सुनेगा? वे जी-23 वाले हैं, जिन्हें हाईकमान पसंद नहीं
करती। सच यह भी है कि आज कांग्रेस अपने आप को ज्यादा से ज्यादा वामपंथी साबित करने
की कोशिश कर रही है। कम्युनिस्ट पार्टी और कांग्रेस के बीच दोस्ती और दुश्मनी का
लम्बा इतिहास है। मनीष तिवारी जिस किताब का जिक्र कर रहे हैं, वह कुमारमंगलम थीसिस
से जुड़ी है। कम्युनिस्ट पार्टी से कुछ महत्वपूर्ण नेता सोच-समझकर इस पार्टी में
शामिल हुए थे, ताकि इसकी वैचारिक धारा को बदला जा सके। उन्हें सफरमैना या फैलो
ट्रैवलर कहा गया। सफरमैना सेना में वे सिपाही होते हैं, जो सबसे आगे होते हैं और
दुश्मन के इलाके में जमीन पर बारूदी पलीते बिछाते हैं और अपनी सेना के लिए रास्ता
बनाते हैं।
करियर का सवाल
कन्हैया कुमार शायद किसी वैचारिक-रणनीति के
कारण नहीं आ रहे हैं। कम्युनिस्ट पार्टी या विचार में उतना दम ही नहीं है, जो
चुनावी राजनीति में उनके करियर को बनाए। कांग्रेस में रहते हुए वे कम से कम बिहार
में अपनी उपस्थिति बना सकते हैं। पर दोनों तरफ से जोखिम है, क्योंकि बिहार में
कांग्रेस के सबसे बड़े सहयोगी राष्ट्रीय जनता दल के तेजस्वी यादव को अपना
प्रतिस्पर्धी पसंद नहीं आएगा। माना जाता है कि 2019 में बिहार के बेगुसराय क्षेत्र
से लोकसभा के चुनाव में यदि राजद ने अपना प्रत्याशी खड़ा नहीं किया होता, तो बीजेपी
के गिरिराज सिंह से जीत नहीं सकते थे।
कन्हैया कुमार की छवि का सवाल भी है। जेएनयू
छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष होने और खासतौर से ‘भारत तेरे
टुकड़े होंगे’ वाले नारे से उनको जोड़कर बीजेपी नकारात्मक
प्रचार करेगी। दूसरी तरफ कांग्रेस को तेजस्वी यादव के साथ पटरी भी
बैठानी होगी। कन्हैया के कांग्रेस में आने की अटकलें काफी समय से चल रही थीं। हाल
में कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव
डी राजा ने उनसे प्रेस कॉन्फ्रेंस कर अफवाहों का खंडन करने को कहा था। कन्हैया
कुमार पार्टी के नेताओं से लगातार किनाराकशी कर रहे थे। दूसरी तरफ उनकी और जिग्नेश
की राहुल गांधी से मुलाकात हुई थी।
युवा नेतृत्व
बिहार में तेजस्वी यादव के साथ चिराग पासवान
जुड़ गए हैं, जिन्हें नई पीढ़ी का नेता माना जा सकता है। कांग्रेस के पास कोई युवा
नेता नहीं था। गुजरात में जिग्नेश मेवाणी की 2017 के विधानसभा चुनाव में जीत में कांग्रेस
की भूमिका मानी जाती है, क्योंकि पार्टी ने उनके खिलाफ कोई उम्मीदवार नहीं उतारा
था। जिग्नेश और हार्दिक पटेल के जरिए कांग्रेस गुजरात में अगले साल के विधानसभा
चुनाव में उतरेगी। पर क्या हार्दिक पटेल पार्टी में खुश हैं?
मनीष तिवारी अकेले ऐसा
नेता नहीं है जो कन्हैया कुमार के पार्टी में शामिल होने पर ‘नाखुश’ हैं। कुछ और
वरिष्ठ और पुराने नेताओं को ऐसा लगता है कि इस वामपंथी नेता के पार्टी में शामिल
होने से फायदे की जगह नुकसान ज्यादा होगा। कुछ लोगों को डर है कि भाजपा के साथ राष्ट्रवादी टैग जुड़ा हुआ है और ऐसे
में कुमार के कथित राष्ट्रविरोधी नारों की इमेज के कारण कांग्रेस बैकफुट पर आ
जाएगी। उनकी इमेज टुकड़े-टुकड़े गैंग वाली बनी हुई है। वे चाहें व्यक्तिगत रूप से
कितने भी ईमानदार हों, पर राजनीति में इमेज मायने रखती है।
बिहार की सोशल इंजीनियरी
में भी कन्हैया कुमार का कोई लाभ नहीं है। वे भूमिहार हैं, पर उनके समुदाय के ही
कई नेता उनके पार्टी में शामिल होने को लेकर उत्साहित नहीं हैं। एक भूमिहार नेता
ने कहा, उनके पार्टी में शामिल होने से क्या हो
जाएगा, वे सोशल मीडिया के खिलाड़ी हैं, उनका जनाधार
नहीं है। हालांकि वे अच्छे वक्ता हैं, पर जनाधार नहीं
होने पर वक्ता का लाभ भी तभी मिलता है, जब संसद या बाहर वक्ता का प्रोजेक्शन हो।
कांग्रेस पार्टी ने हाल के वर्षों में संसदीय बहसों पर ध्यान दिया भी नहीं है।
सिद्धू की
कलाबाजी
कांग्रेस पार्टी ने
पंजाब विधानसभा चुनाव के ठीक पहले नेतृत्व परिवर्तन का फैसला करके अपने ऊपर मुसीबत
मोल ले ली है। फिर हाईकमान ने ऐसे घोड़े पर दाँव लगाया है, जो राजनीति में
नौसिखिया, अनुभवहीन और कांग्रेसी रीति-नीति से अपरिचित है। बताते हैं कि नवजोत सिद्धू
मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी के ऊपर सुपर सीएम बनना चाहते थे। उन्होंने कैप्टन
अमरिंदर को पटरी से उतारने में सफलता इसलिए प्राप्त की, क्योंकि राहुल गांधी को वे
पसंद नहीं थे। इसके बाद सिद्धू ने सुनील जाखड़ और सुखजिंदर रंधावा का रास्ता रोका।
चन्नी का को सीएम बनवाकर उनकी कमांड अपने हाथ में
रखने का सिद्धू का सपना पांच दिन में चकनाचूर हो गया। सिद्धू के कहने पर न तो
पंजाब का डीजीपी बनाया और न ही विभाग बांटे गए। इस तरह सुपर सीएम बनने के उनके सपने की हवा निकल गई और सोमवार रात को ही सिद्धू ने इस्तीफा
देने की ठान ली। सोमवार रात को जब विभागों के आवंटन पर पूरा मंथन चल रहा था तो
सिद्धू की एक नहीं सुनी गई। तभी उन्होंने फैसला कर लिया था कि पार्टी अध्यक्ष पद
से इस्तीफा देंगे, पर यह फैसला उनपर भारी भी पड़ सकता है।
खबरें हैं कि उनके कुछ
समर्थकों ने भी इस्तीफे दिए हैं, पर अभी हाईकमान के रुख का पता नहीं है। बहरहाल जो
कुछ हो रहा है, वह हाईकमान का ही किया-धरा है। सिद्धू की मंशा मुख्यमंत्री बनने की
थी। मुख्यमंत्री को हटाने के बाद उन्हें बनाया जाना चाहिए था, पर न जाने किस वजह
से हाईकमान ने हाथ रोक लिया। अब सिद्धू मिस गाइडेड मिसाइल साबित हो रहे हैं।
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