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Monday, September 13, 2021

स्त्रियों की उपेक्षा और अनदेखी करने वाले समाज का नाश निश्चित है


शनिवार 11 सितम्बर को काबुल विश्वविद्यालय के लेक्चर रूम में तालिबान समर्थक करीब 300 अफगान महिलाएं इकट्ठा हुईं थी। सिर से पांव तक पूरी तरह से ढंकी ये महिलाएं हाथों में तालिबान का झंडा लिए हुए थीं। इस दौरान कुछ महिलाओं ने मंच से संबोधित कर तालिबान के प्रति वफादारी की कसमें भी खाईं। इन अफगान महिलाओं की तस्वीरों ने इस्लामिक अमीरात में महिलाओं के अधिकारों और सम्मान की झलक दिखाई है। कोई इनके हाथ को न देख सके इसके लिए उन्होंने काले रंग के दस्ताने पहन रखे थे। इन महिलाओं ने वायदा किया कि वे लैंगिक अलगाव की तालिबान-नीति का पूरी तरह पालन भी करेंगी।

इसके पहले 2 सितम्बर को अफगानिस्तान के पश्चिमी हेरात प्रांत में गवर्नर कार्यालय के बाहर लगभग तीन दर्जन महिलाओं ने प्रदर्शन किया। उनकी मांग थी कि नई सरकार में महिला अधिकारों के संरक्षण को प्राथमिकता दी जाए। इस रैली की आयोजक फ्रिबा कबरजानी ने कहा कि ‘लोया जिरगा’ और मंत्रिमंडल समेत नई सरकार में महिलाओं को राजनीतिक भागीदारी मिलनी चाहिए। उन्होंने कहा कि अफगान महिलाएं आज जो कुछ भी हैं, उसे हासिल करने के लिए उन्होंने पिछले 20 साल में कई कुर्बानियां दी हैं। कबरजानी ने कहा, “हम चाहते हैं कि दुनिया हमारी सुने और हम अपने अधिकारों की रक्षा चाहते हैं।” 

कबरजानी ने कहा कि कुछ स्थानीय परिवारों ने अन्य महिलाओं को रैली में शामिल होने की अनुमति नहीं दी जबकि तालिबान द्वारा देश की सत्ता और काबिज होने के बाद उन महिलाओं को अपनी सुरक्षा की चिंता है। विरोध प्रदर्शन में शामिल होने वाली एक अन्य महिला मरियम एब्राम ने कहा कि तालिबान टीवी पर खूब भाषण दे रहे हैं लेकिन सार्वजनिक रूप से वे सत्ता का दुरुपयोग कर रहे हैं। उन्होंने कहा, “हमने उन्हें महिलाओं को फिर से पीटते हुए देखा है।”

इसके बाद 4 सितम्बर को काबुल में महिलाओं ने प्रदर्शन किया। इस प्रदर्शन को कवर कर रहे दो पत्रकारों को तालिबान ने गिरफ्तार करके उन्हें प्रताड़ना दीं। उसके बाद नई सरकार ने आदेश जारी किए कि अब प्रदर्शनों के पहले सरकार से इजाजत लेनी होगी। इस इजाजत के लिए प्रदर्शन का कारण बताना होगा और यह भी कि नारे क्या लगेंगे।

तालिबान को गलतफहमी है कि वे अनंतकाल तक समय को रोकने में सफल होंगे। जिन स्त्रियों ने तालिबान का समर्थन किया है, उसमें डर, अज्ञान और दबाव तीनों की भूमिका है। वास्तव में तालिबान के पास कोई विचारधारा है, तो उसे अफगान जनता के बीच जाकर उसपर खुली बहस करानी चाहिए। देश के पिछले बीस वर्षों में जो बदलाव हुआ है, उसे वे ठीक से देख या समझ नहीं पा रहे हैं। सन 2001 में अफगानिस्तान में 0 फीसदी लड़कियाँ प्राइमरी स्कूलों में जाती थीं, 15 अगस्त के पहले उनका प्रतिशत 80 हो गया था। नवजात शिशुओं की मृत्यु का प्रतिशत पहले के मुकाबले आधा हो गया था।

बेशक शिक्षा का स्तर बहुत अच्छा नहीं था। स्कूलों की दशा अच्छी नहीं थी, पर जो भी था, उसने एक बड़ा बदलाव किया था। क्या उस बदलाव को तालिबान मिटा पाएंगे? अमेरिका ने इस इलाके में हथियारों का ढेर लगाया, तमाम देशों और समाजों को आपस में लड़ाया, पर लड़कियों को सोच-समझ को बदलने में भी भूमिका अदा की। कई साल पहले हिलेरी क्लिंटन ने कहा था, स्त्रियों की पराधीनता वैश्विक सुरक्षा के लिए बड़ा खतरा है। जिन समाजों में स्त्रियों का दमन होता है, वे समाज हिंसक और अस्थिर होते हैं।

समाचार एजेंसी एएफपी के मुताबिक, महिलाओं के प्रदर्शन को कवर कर रहे  फोटोग्राफर नेमतुल्ला नक्दी ने बताया कि एक ने उसके सिर के ऊपर अपना पैर रख दिया और उसके बाद उसके चेहरे को कुचल दिया। नक्दी और उसके सहयोगी पत्रकार ताकी दरयाबी दोनों एतिलात रोज़ो (अंतरराष्ट्रीय दैनिक) के लिए काम कर रहे थे। प्रदर्शन कर रही महिलाएं काम और शिक्षा के अधिकार की मांग कर रही थीं। तालिबान की तरफ से बिना अनुमति के विरोध पर प्रतिबंध लगाने से पहले देश में हुए कई विरोध प्रदर्शनों में से यह भी एक था।

तालिबान सरकार ने वस्तुतः प्रदर्शनों पर रोक लगा दी है। इसका मतलब यह नहीं है कि विरोध खत्म हो जाएगा। अब उसके प्रदर्शन की शक्ल बदलेगी। पर सवाल ज्यादा बड़ा है। तालिबान समर्थक स्त्रियों और विरोध प्रदर्शन करने वाली स्त्रियों में से किसका पक्ष ज्यादा न्यायपूर्ण है?  और क्या तालिबान विरोध-प्रदर्शन करने वालों पर जीत हासिल करने में सफल होंगे। इतिहास गवाह है कि ऐसी कोशिशें जिसने भी कीं, उसका नाश हुआ है।

यह बात केवल अफगान समाज पर ही लागू नहीं होती। हरेक उस समाज पर लागू होती है, जो स्त्रियों को उनका वाजिब हक और सम्मान नहीं देता। भारत में भी जहाँ स्त्री भ्रूण-हत्याएं होती हैं, लड़कियाँ बलात्कार की शिकार होती और सामाजिक विषमता की शिकार होती हैं, वहाँ भी यह बात लागू होती है। अलबत्ता भरतीय समाज में विरोध प्रदर्शन सम्भव हैं और सिद्धांततः स्त्रियों को बढ़ावा देने का विरोध नहीं है। पर अफगान समाज की दशा भिन्न है।

साप्ताहिक इकोनॉमिस्ट ने इस विषय पर अपनी कवर स्टोरी में कहा है कि इस किस्म के तानाशाही समाजों में स्त्री-भ्रूण हत्याएं ही नहीं होती, बल्कि जीवित स्त्रियों को दूसरे दर्जे के नागरिक का दर्जा दिया जाता है। इससे लिंग अनुपात घट गया है। ज्यादातर पुरुषों के सामने अविवाहित रहने का अंदेशा है। दूसरी तरफ पुरुषों को लड़ाके बनाने की गतिविधि चलती है। स्त्रियों को उनके लिए सेक्स वर्कर के रूप में उपलब्ध कराने की योजनाएं बनती हैं। यह स्त्री-पुरुष का सामान्य भावनात्मक रिश्ता नहीं है, बल्कि क्रूर यौन-दृष्टिकोण है। बोको हराम और इस्लामिक स्टेट जैसे संगठन अपने सैनिकों की यौनाकांक्षाएं पूरी करने के लिए स्त्रियों का इस्तेमाल करते हैं। इसे सेक्स-स्लेवरी या यौन-गुलामी कहा जाता है। इसमें भी वर्गीकरण है। ऊँचे दर्जे के सेनानियों के पास एक से ज्यादा यौन-गुलाम होती हैं और निचले दर्जे के सिपाहियों के पास अक्सर एक भी नहीं।  

स्त्रियों से दुर्व्यवहार करने वाले समाज गरीब भी होते हैं। इकोनॉमिस्ट के अनुसार हिंसक टकरावों के बड़े जटिल परिणाम होते हैं। कश्मीर का उदाहरण लें, जहाँ भारत का सबसे असंतुलित लिंगानुपात है। फंड फॉर पीस नामक संस्था ने दुनिया के सबसे अशांत 20 देशों के जो विवरण तैयार किए हैं, वे इस बात की गवाही देते हैं। गिनी में 15 से 49 साल की उम्र की 42 प्रतिशत विवाहित स्त्रियाँ बहुपत्नी रिश्तों में बँधी हैं। चीन की तमाम बातें बाहर नहीं आतीं, पर उस देश की आक्रामक गतिविधियों के पीछे एक कारण यह भी हो सकता है। लोकतांत्रिक समाजों से इतर समाजों में पुरुष केंद्रित-व्यवस्थाएं हैं। इसकी एक वजह आत्म-रक्षा की प्रवृत्ति है। बाहरी हमलों को रोकने की कबायली समझ। ये कबीले राज्य पर हावी रहते हैं, ताकि अपने लोगों को सुविधाएं मिलें। ऐसी राज-व्यवस्थाएं अराजक, अनुशासनहीन और भ्रष्ट होती जाती हैं। ऐसे में जेहादियों को समर्थन मिलता है, जो न्याय-व्यवस्था का वायदा करते हैं।

पुरुष-प्रधान समाजों में स्त्रियों को दास बनाने की प्रवृत्ति होती है। पिता तय करते हैं कि बेटी का विवाह किससे हो। अक्सर बेटियों की कीमत लगती है। लड़के का परिवार लड़की के परिवार को कीमत देता है। इस वजह से पिताओं के मन में बेटियों को जल्दी ब्याहने की इच्छा होती है। दुनिया के आधे देशों में इस किस्म के दहेज की प्रथा है, जो भारतीय प्रथा से उलट लगती है। दुनिया की बीस प्रतिशत लड़कियों का विवाह 18 साल की उम्र से पहले हो जाता है। पाँच फीसदी लड़कियों की शादी 15 साल से भी पहले हो जाती है। इतनी छोटी उम्र में जिन लड़कियों की शादी होती है, वे अपनी पढ़ाई भी पूरी नहीं कर सकती हैं। ऐसे में उन्हें अपने बदमिजाज पतियों से दबकर रहना पड़ता है और उनके बच्चे भी सुशिक्षित नहीं होते।

टेक्सास एएंडएम तथा ब्रायम यंग विश्वविद्यालय ने स्त्रियों के पूर्व-आधुनिक आचरण का एक सूचकांक तैयार किया है। इसमें स्त्री-विरोधी कानूनों, असमान सम्पत्ति अधिकारों, बाल विवाहों, पितृस्थानीय विवाहों (यानी पति के घर जाकर रहने की प्रथा), बहुपत्नी व्यवस्था, लड़कियों की कीमत, परिवारों में लड़कों के महत्व, स्त्रियों पर हिंसा और बलात्कारी यदि लड़की से विवाह को तैयार हो जाए, तो उसे माफी जैसी व्यवस्थाओं से जुड़ी सूचनाएं हैं। ये विवरण किसी देश के भीतर की अराजकता, हिंसा और अस्थिरता से जुड़े हैं।

इन अध्ययनों से कई प्रकार के निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। यदि यह सूचकांक बीस साल पहले बना होता, तो तभी पता लग जाता कि अफगानिस्तान और इराक में राष्ट्र-निर्माण की प्रक्रिया कितनी मुश्किल होने वाली है। आज भी सऊदी अरब और पाकिस्तान, यहाँ तक कि भारत में भी स्थिरता की गारंटी नहीं दी जा सकती।

शांति-वार्ताओं में स्त्रियों की भूमिका होनी चाहिए। सन 1992 से 2019 के बीच दुनिया में जितने भी शांति-समझौते हुए हैं उनमें से 13 वार्ताकार और 6 फीसदी हस्ताक्षरकर्ता स्त्रियाँ थीं। अनुभव यह भी बताता है कि जहाँ स्त्रियाँ बातचीत की मेज पर होती हैं, वहाँ शांति अपेक्षाकृत दीर्घकालीन होती है। जब बातचीत केवल पुरुषों के बीच होती है, तब बंदूकधारियों के बीच का समझौता होता है, उसमें समाज के गैर-लड़ाकू तत्व की भूमिका नहीं होती। लाइबेरिया में इस बात को समझा गया, पर अफगानिस्तान के नए शासकों ने इसे नहीं समझा है।

 


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