मेरा विचार एक-दो किताबें लिखने का है। पता नहीं मैं लिख पाऊँगा या नहीं। पर उन किताबों को लिखने की कोशिश में इन दिनों मैं कुछ न कुछ पढ़ता और जानकारियों को पुष्ट या उनके सहारे दूसरी जानकारियाँ हासिल करने का प्रयास करता रहता हूँ। जानकारियों का बड़ा भंडार तैयार हो गया है। अब मैं अपने इस ब्लॉग में किताब नाम से एक नया क्रम शुरू कर रहा हूँ। इसमें केवल किताब का ही नहीं, महत्वपूर्ण लेखों का जिक्र भी होगा।
संयोग से अखबार हिन्दू के रविवारीय
परिशिष्ट में मुझे ‘रिप्राइज़ बुक्स’ (पुस्तक पुनर्पाठ) नाम का कॉलम देखने को मिला। महीने में एकबार
स्तम्भकार किसी पहले पढ़ी हुई किताब को फिर से याद करते हैं। आज 28 अगस्त के अंक
में सुदीप्तो दत्ता ने अहमद रशीद की किताब तालिबान को
याद किया है। पाकिस्तानी पत्रकार अहमद रशीद की यह किताब तालिबान पर बहुत विश्वसनीय
मानी जाती है। इसमें उन्होंने तालिबान के उदय और पश्तून-क्षेत्र में उसकी जड़ों की
बहुत अच्छी पड़ताल की है। सन 2000 में अपने प्रकाशन के बाद से यह लगातार बेस्ट
सैलर्स में शामिल रही है। कम से कम 26 भाषाओं में इसका अनुवाद हुआ है। यह हिन्दी
में भी उपलब्ध है। इसके बाद अहमद रशीद ने एक और किताब लिखी थी, ‘डिसेंट इनटू कैयॉस: द युनाइटेड
स्टेट्स एंड दे फेल्यर ऑफ नेशन बिल्डिंग इन पाकिस्तान, अफगानिस्तान एंड सेंट्रल एशिया।’ बहरहाल अब पढ़ें सुदीप्तो दत्ता के कॉलम के अंश:-
तालिबान पहली बार सत्ता में 1996 में आए और
उसके चार साल बाद पाकिस्तानी पत्रकार अहमद रशीद ने अपनी किताब ‘तालिबान : द पावर ऑफ मिलिटेंट इस्लाम इन
अफगानिस्तान एंड बियॉण्ड’ के माध्यम से दुनिया का परिचय तालिबान से
कराया। यह किताब इस देश और उसके निवासियों की सच्ची जानकारी देती है और विदेशी
ताकतों के नए ‘ग्रेट गेम’ का विवरण
देती है।
रशीद ने तालिबान
आंदोलन, उसके जन्म, उनके रूढ़िवाद, मुल्ला मुहम्मद उमर और अल कायदा के नेता ओसामा बिन
लादेन वगैरह की जानकारी, इनके अंतर्विरोध, अफीम के कारोबार, तेल भंडारों और
पाकिस्तान, अमेरिका, चीन, रूस, सऊदी अरब और ईरान की दिलचस्पी का विवरण दिया है। सन
2001 में इसके परिवर्धित संस्करण में उन्होंने यह भी बताया कि तालिबान पर तमाम
प्रतिबंधों के बावजूद 2001 में 11 सितम्बर की घटना क्यों हुई। उन्होंने यह भी लिखा
कि तालिबान को कहाँ से मदद मिली, कहाँ से हथियार और पैसा और कहाँ से उन्होंने
इस्लाम की उग्र परिभाषा हासिल की।
उन्होंने अपनी किताब
में लिखा है कि मुल्ला उमर अपने कमांडरों और सैनिकों को देने के लिए टिन के एक
ट्रंक में पैसा रखते थे। जैसे-जैसे सफलता मिलती गई, एक और ट्रंक आ गया। इनमें
अमेरिकी डॉलर भरे रहते थे।
तालिबान के इर्द-गिर्द
रहस्य का घेरा है। 11 सितम्बर के बाद बीस साल में तालिबान ने पृष्ठभूमि में रहकर
तैयारी की। अमेरिकी हमले के बाद काफी तालिबान नेता पाकिस्तान के क्वेटा शहर में
चले गए। तालिबान के नए अमीर हिबातुल्ला अखुंदज़ादा इसी ‘क्वेटा शूरा’ से जुड़े हैं।
जिस तरह अफगानिस्तान
में अंतर्विरोधी की भरमार है, उसी तरह तालिबान के अंदर भी विसंगतियाँ हैं। इनमें
काफी वे मुजाहिदीन हैं, जो अस्सी के दशक में सोवियत लाल सेना के खिलाफ लड़े थे और
1989 में उसकी वापसी के बाद राष्ट्रपति नजीबुल्ला के खिलाफ। रशीद के अनुसार
बहुसंख्यक कुरान के छात्र हैं, जो पाकिस्तान में अफगान शरणार्थियों के शिविरों में
बनाए गए सैकड़ों मदरसों से निकले हैं।
तालिबान ने पहले दौर में इस्लामिक कानूनों की
आत्यंतिक व्याख्या की थी, जिन्हें लेकर बहुत से अफगान लोगों को ही हैरत थी।
लड़कियों के स्कूल बंद कर दिए गए, हर तरह के मनोरंजन पर, जिसमें संगीत, टीवी,
वीडियो, कार्ड, पतंगबाजी शामिल है और ज्यादातर खेलों पर पाबंदी लगा दी गई।
अपराधियों को सजा देने के बर्बर तरीके अपनाए गए।
अहमद रशीद ने इस किताब की भूमिका में लिखा है,
अफगानिस्तान विरोधाभासों का देश रहा है, जो किसी भी रिपोर्टर को काम करने की इजाजत
नहीं देता। गुलबुदीन हिकमतयार ने तो मुझे और बीबीसी के जॉर्ज आरने को मौत की सजा
सुना दी थी। एक साल तक मेरा नाम उनके अखबार की वांटेड लिस्ट में छपता रहा। बाद में
काबुल में एक भीड़ ने मेरा पीछा किया और मुझे मारना चाहा।
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