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Saturday, August 14, 2021

अफगानिस्तान की तार्किक-परिणति क्या है?


तालिबान की लगातार जीत के बीच अफ़गानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ़ ग़नी ने कहा है हम अफ़ग़ान लोगों पर ‘युद्ध नहीं थोपने’ देंगे। इस बात के कई मतलब निकाले जा सकते हैं। सबसे बड़ा मतलब यह है कि यदि लड़ाई रुकने की गारंटी हो तो अशरफ़ ग़नी अपने पद को छोड़कर किसी दूसरे को सत्ता सौंपने को तैयार हो सकते हैं।   

ग़नी ने कहा, हमने पिछले 20वर्षों में जो हासिल किया है, उसे अब खोने नहीं देंगे। हम अफ़गान लोगों की और हत्या नहीं होने देंगे और न सार्वजनिक संपत्ति को और नष्ट होने देंगे। उनका यह संदेश रिकॉर्डेड था। क्या वे काबुल में हैं या कहीं बाहर? उन्होंने कहा, मैं आपको भरोसा दिलाता हूँ कि राष्ट्रपति के तौर पर मेरा ध्यान आगे लोगों की अस्थिरता, हिंसा और विस्थापन रोकने पर होगा।

उन्होंने यह भी कहा कि हम स्थिति को ठीक करने के लिए विचार-विमर्श कर रहे हैं। किससे विचार-विमर्श कर रहे हैं? स्थानीय नेताओं से। स्थानीय नेता क्या इतने समर्थ हैं कि तालिबानी उनकी बात सुनने को तैयार हो जाएंगे? क्या तालिबानी सत्ता में भागीदारी चाहते हैं?

माना जाता है कि तालिबानी इस व्यवस्था को नहीं चाहते, बल्कि शरिया के आधार पर अपनी व्यवस्था लागू करना चाहते हैं? देश की जनता क्या चाहती है? तालिबानी क्यों नहीं सत्ता में शामिल होकर चुनाव लड़ते? कुछ महीने पहले अशरफ़ ग़नी ने कहा था कि मैं इस्तीफा नहीं दूँगा, पर यदि तालिबानी चुनाव लड़ने को तैयार हो जाएं, तो मैं फौरन चुनाव के लिए तैयार हूँ। पर तालिबानी चुनाव की व्यवस्था चाहते ही नहीं।

ऐसा क्यों? यदि तालिबान को लगता है कि वे वर्तमान सरकार से ज्यादा लोकप्रिय हैं और देश की जनता शरिया की व्यवस्था चाहती है, तो उन्हें इस प्रकार के जनमत-संग्रह के लिए तैयार हो जाना चाहिए। क्या देश में ऐसे विषयों पर खुली बहस सम्भव है? कतर में तालिबान प्रवक्ता बार-बार कह रहे हैं कि हम पुराने तालिबान नहीं है, पर अफ़गानिस्तान से जो खबरें आ रहीं हैं, उनसे कुछ और पता लग रहा है। हाल में उन्होंने जिस इलाके पर कब्जा किया, वहाँ के एक बैंक में जाकर वहाँ काम कर रही महिला कर्मचारियों से कहा कि आप घर जाएं और दुबारा काम पर नहीं आएं।

हालांकि पाकिस्तान बार-बार कह रहा है कि तालिबान हमारे कहने पर नहीं चलते, पर इमरान साथ ही यह भी कहते हैं कि तालिबान अशरफ ग़नी के साथ समझौता नहीं करेंगे। वे किस आधार पर यह बात कह सकते हैं? दूसरे जो लोग तालिबान के समर्थक हैं, वे क्या अपने इलाके में तालिबानी व्यवस्था लागू करने को तैयार हैं? मसलन पाकिस्तानी जनता क्या अपने देश में शरिया लागू कराना चाहती है? ऐसा है, तो रोका किसने है?

यह अधूरा सोच है। कुछ लोगों को लगता है कि मध्ययुगीन तौर-तरीकों से सुशासन आ सकता है। ऐसा दूर से दिखाई पड़ सकता है, पर जैसे ही ऐसी व्यवस्था लागू होगी, सबसे पहले सूचना के दरवाजे बंद होंगे। सन 1979 में ईरान की क्रांति के पीछे शाह की व्यवस्था का विरोध करने वालों में धार्मिक नेताओं के साथ-साथ वामपंथी भी शामिल थे, पर वहाँ मुजाहिदीन-ए-ख़ल्क़ के हजारों कार्यकर्ताओं को खड़ा करके गोली मार दी गई।

बहरहाल फैसला अफगानिस्तान, तुर्की, ईरान, इराक, सऊदी अरब, कतर, पाकिस्तान या किसी भी दूसरे ऐसे देश के लोग तय करेंगे, जहाँ बहुसंख्यक मुसलमान हैं। पर उसका फैसला कैसे होगा? चूंकि अब अफगानिस्तान की व्यवस्था को लेकर सवाल खड़े हो रहे हैं और हम उस क्षण के बहुत करीब आ गए हैं, जब कोई बड़ा फैसला होगा।

ऐसा नहीं है कि अमेरिकी प्रशासन को स्थितियों की जानकारी नहीं है। शायद  यह मामला अपनी तार्किक-परिणति तक पहुँचना चाहता है। इस पूरे प्रसंग की सीख यह है कि कोई दूसरा देश या समाज किसी दूसरे क्षेत्र में राष्ट्र-निर्माण नहीं कर सकता। अमेरिका की बनाई सेना ने जिस तरह से समर्पण किया है, उससे जाहिर है कि ये सैनिक पूरी तरह अपने प्रशासन के साथ नहीं थे। ऐसा क्यों हुआ, िसका विश्लेषण होना चाहिए। हम नहीं जानते कि इसकी तार्किक-परिणति क्या है। अलबत्ता तालिबानी-व्यवस्था आ भी गई, तो वह कब तक चलेगी, कहना मुश्किल है। अंततः दुनिया को इंसान-परस्ती की राह पर ही जाना है।  

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