हालांकि अफगानिस्तान में तालिबानी व्यवस्था पैर जमा चुकी है, वहीं देश के कई शहरों से प्रतिरोध की खबरें हैं। उधर अंतरिम व्यवस्था के लिए दोहा में बातचीत चल रही है, जिसमें तालिबान और पुरानी व्यवस्था से जुड़े नेता शामिल हैं। विश्व-व्यवस्था ने तालिबान-प्रशासन को मान्यता नहीं दी है। भारत ने कहा है कि जब ‘लोकतांत्रिक-ब्लॉक’ कोई फैसला करेगा, तब हम भी निर्णय करेंगे। ‘लोकतांत्रिक-ब्लॉक’ का अर्थ है अमेरिका, यूरोप, ऑस्ट्रेलिया और जापान। डर है कि कहीं अफगानिस्तान से नए शीतयुद्ध की शुरुआत न हो।
तालिबान अपने चेहरे को सौम्य बनाने का प्रयास
कर रहे हैं, पर उनका यकीन नहीं किया जा सकता। वे वैश्विक-मान्यता चाहते हैं, पर
दुनिया को मानवाधिकार की चिंता है। अफ़ग़ानिस्तान में पहले के मुक़ाबले ज़्यादा
लड़कियाँ पढ़ने जा रही है, नौकरी कर रही हैं। वे डॉक्टर, इंजीनियर और
वैज्ञानिक हैं। क्या तालिबान इन्हें
बुर्का पहना कर दोबारा घर में बैठाएंगे? इस सवाल का जवाब कोई नहीं जानता। ऐसा
लग रहा है कि बीस साल से ज्यादा समय तक लड़ाई लड़ने के बाद अमेरिका ने उसी तालिबान
को सत्ता सौंप दी, जिसके विरुद्ध उसने लड़ाई लड़ी थी। देश के आधुनिकीकरण की जो
प्रक्रिया शुरू हुई थी, वह एक झटके में खत्म हो गई है। खासतौर से स्त्रियाँ,
अल्पसंख्यक, मानवाधिकार कार्यकर्ता और नई दृष्टि से देखने वाले नौजवान असमंजस में
हैं।
सेना क्यों हारी?
पिछले बीस साल में
अफगान सेना ने एयर-पावर, इंटेलिजेंस, लॉजिस्टिक्स, प्लानिंग और
दूसरे महत्वपूर्ण मामलों में अमेरिकी समर्थन के सहारे काम करना सीखा था। अब उसी सेना
की वापसी से वह बुरी तरह हतोत्साहित थी। राष्ट्रपति अशरफ ग़नी को उम्मीद थी कि
बाइडेन कुछ भरोसा पैदा करेंगे, पर ऐसा नहीं हुआ। अमेरिकी सेना के साथ सहयोगी देशों
के आठ हजार सैनिक और अठारह हजार ठेके के कर्मी भी चले गए, जिनसे अफगान सेना हवाई
कार्रवाई और लॉजिस्टिक्स में मदद लेती थी। हाल के महीनों में अफगान सेना देश के
दूर-दराज चौकियों तक खाद्य सामग्री और जरूरी चीजें भी नहीं पहुँचा पा रही थी।
चूंकि कहानी साफ दिखाई पड़ रही थी, इसलिए उन्होंने निरुद्देश्य जान देने के बजाय हथियार
डालने में ही भलाई समझी। मनोबल गिराने के बाद किसी सेना से लड़ाई की उम्मीद नहीं
करनी चाहिए।
बाइडेन ने अफगान सेना की जो संख्या बताई, वह भी वह भी सही नहीं थी। वॉशिंगटन पोस्ट के अफगान पेपर्स प्रोजेक्ट में सेना और पुलिसकर्मियों की संख्या 3,52,000 दर्ज है, जबकि अफगान सरकार ने 2,54,000 की पुष्टि की। कमांडरों ने फर्जी सैनिकों की भरती कर ली और उन सैनिकों के हिस्से का वेतन मिल-बाँटकर खा लिया। इस भ्रष्टाचार को रोकने में अमेरिका ने दिलचस्पी नहीं दिखाई।
तालिबान के मददगार
तालिबान के पास इतनी ताकत कहाँ से आई? सबसे बड़ी भूमिका पाकिस्तान की है। तालिबान की कमाई का जरिया अफीम की
खेती है। संयुक्त राष्ट्र के एक
मॉनिटरिंग ग्रुप के अनुसार, जब तालिबान सत्ता में नहीं था, तब भी ग्रामीण इलाकों
में अपने प्रभाव क्षेत्र में वह पॉपी (अफीम) की खेती करवाता था, जिसपर उगाही से
उसे अकेले 2020 में 46 करोड़ डॉलर की आमदनी हुई थी। दूसरी उगाहियों से भी काफी
धनराशि मिलती है। अनुमान है करीब डेढ़ अरब सालाना से ज्यादा की कमाई उसकी है।
इस्लामी
अमीरात
हालांकि तालिबान ने 15 अगस्त को काबुल में
प्रवेश कर लिया था, पर उन्होंने 19 अगस्त को अफगानिस्तान में ‘इस्लामी अमीरात’ की स्थापना
की घोषणा की। 19 अगस्त अफगानिस्तान का राष्ट्रीय स्वतंत्रता दिवस है। 19 अगस्त, 1919 को एंग्लो-अफगान संधि के साथ अफगानिस्तान
ब्रिटिश-दासता से मुक्त हुआ था। अंग्रेजों और अफगान सेनानियों के बीच तीसरे
अफगान-युद्ध के बाद यह संधि हुई थी। अभी तक यह देश ‘इस्लामी गणराज्य’ था, अब
अमीरात हो गया। गणतंत्र का मतलब होता है, जहाँ राष्ट्राध्यक्ष जनता द्वारा चुना
जाता है। अमीरात का मतलब है वह व्यवस्था, जिसमें स्वयंभू राष्ट्राध्यक्ष कुर्सी पर
बैठते हैं। अब कोई कौंसिल बनेगी, जो शासन करेगी। कौन बनाएगा यह कौंसिल, कौन होंगे
उसके सदस्य, क्या अफगानिस्तान की जनता से कोई पूछेगा कि क्या होना चाहिए? इन सवालों का
जवाब है बंदूक।
अफगान अमीरात
सन 1919 की आजादी के
बाद ‘अफगान-अमीरात’ की स्थापना
हुई थी, जिसके अमीर या प्रमुख अमानुल्ला खां थे, जो अंग्रेजों के विरुद्ध चली
लड़ाई के नेता भी थे। इन्हीं अमानुल्ला खां ने 1926 में
स्वयं को ‘पादशाह’ या बादशाह घोषित किया और देश का नया नाम
‘अफगान बादशाहत (किंगडम)’ रखा गया। वह
अफगानिस्तान 29 अगस्त 1946 को संयुक्त राष्ट्र का सदस्य बना। बीसवीं सदी के
अफगानिस्तान पर नजर डालें, तो पाएंगे कि अपने शुरूआती वर्षों में यह देश
अपेक्षाकृत आधुनिक और प्रगतिशील था। तमाम तरह की जातीय विविधता और कबायली
जीवन-शैली के बावजूद यहाँ इस्लामिक कट्टरपंथी हवाएं नहीं चलीं। बाद में उस
व्यवस्था ने खुद को बादशाहत से बदल कर सांविधानिक-राजतंत्र में बदला।
सांविधानिक
राजतंत्र
सन 1947 में
अफगानिस्तान अकेला देश था, जिसने पाकिस्तान को संरा का सदस्य बनाने का विरोध किया
था। यह समझना जरूरी है कि आधुनिकता की ओर बढ़ता यह देश कट्टरपंथी आँधी का शिकार
कैसे हुआ। यहाँ की बादशाहत मजहबी मुलम्मे से मुक्त थी। 1961 में अफगानिस्तान
गुट-निरपेक्ष आंदोलन में शामिल हुआ। 1964 में सांविधानिक-राजतंत्र
बना। संविधान बनाने के लिए विदेश में पढ़े अफगान-विद्वानों ने भूमिका अदा की। ‘वोलेसी
जिरगा’ नाम से संसद बनाई गई, जिसका चुनाव सार्वभौमिक
मताधिकार के आधार पर होता था। प्रधानमंत्री थे मोहम्मद दाऊद खान। 17 जुलाई, 1973 को उन्हीं दाऊद खान के
नेतृत्व में रक्तहीन-बगावत हुई। बादशाह ज़हीर शाह को हटाकर गणतंत्र की स्थापना की
गई। वामपंथी रुझान वाली सेना ने दाऊद खान का साथ दिया।
आधुनिकीकरण
उस समय रूस और अमेरिका
दोनों की सहायता से आधुनिकीकरण के प्रयास किए गए। 1978 में देश की कम्युनिस्ट
पार्टी के नेतृत्व में 1978 में एक और बगावत हुई, जिसे ‘सौर क्रांति’ कहते हैं। इस क्रांति में दाऊद और उनके परिवार की हत्या
हो गई। देश का नाम बदल कर जनवादी गणराज्य कर दिया गया। नूर मोहम्मद तराकी नए
राष्ट्राध्यक्ष बने। नई सरकार ने पूरी व्यवस्था में भारी
बदलाव शुरू कर दिए। राजनीतिक विरोधियों का दमन हुआ। इसके कारण असंतोष बढ़ा और
गृहयुद्ध की स्थिति आ गई। यहाँ से अमेरिका और पाकिस्तान की भूमिका बढ़ी, जिसकी
परिणति नब्बे के दशक में तालिबान की विजय के रूप में हुई। पाकिस्तानी आईएसआई की
देन हैं तालिबान। इन्हें इतना अहंकार था कि वे अमेरिका से भी टकरा गए। 11 सितंबर,
2001 को न्यूयॉर्क के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए हमले के बाद कहानी
बदल गई।
भारतीय हित
सबसे बड़ा कारण है हमारी सुरक्षा-व्यवस्था। इस
पूरे घटनाक्रम के पीछे पाकिस्तान की महत्वपूर्ण भूमिका है। नब्बे के दशक में
पाकिस्तान ने अफगान-जिहाद के सहारे कश्मीर में हिंसा का खेल खेला था। सुरक्षा के
अलावा अफगानिस्तान के रास्ते हम मध्य एशिया से जुड़ना चाहते हैं। पाकिस्तान रास्ता देगा नहीं। भारत ने पिछले
20 वर्ष में अफगानिस्तान के इंफ्रास्ट्रक्चर पर करीब तीन अरब डॉलर का पूँजी निवेश
किया है। सड़कों, पुलों, बाँधों, रेल लाइनों, शिक्षा, चिकित्सा, खेती और
विद्युत-उत्पादन की 400 से ज्यादा परियोजनाओं पर भारत ने काम किया है। काबुल नदी
के शहतूत बाँध पर काम हाल में शुरू हुआ था। हमने ईरान के रास्ते अफगानिस्तान को
जोड़ने की योजना बनाई थी। ईरान में चाबहार-ज़ाहेदान रेलवे लाइन का विकल्प तैयार
किया। हमारे सीमा सड़क संगठन ने अफगानिस्तान में जंरंज से डेलाराम तक 215 किलोमीटर
लम्बे मार्ग का निर्माण किया, जो निमरोज़ प्रांत की
पहली पक्की सड़क है। भारत-ईरान और अफगानिस्तान ने 2016 में एक त्रिपक्षीय समझौता
किया था, जिसमें ईरान के रास्ते अफगानिस्तान तक
कॉरिडोर बनाने की बात थी। इस प्रोजेक्ट को उत्तर-दक्षिण कॉरिडोर के साथ भी जोड़कर
देखा जा रहा है, जिसमें रूस समेत मध्य एशिया के अनेक देश
शामिल हैं। इन दीर्घकालीन कार्यक्रमों को धक्का लगा है।
नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (23-08-2021 ) को 'कल सावन गया आज से भादों मास का आरंभ' (चर्चा अंक 4165) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। रात्रि 12:01 AM के बाद प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
समसामयिक विमर्श ।
ReplyDeleteसामायिक जानकारी देती गूढ़ पोस्ट।
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