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Sunday, August 15, 2021

भव्य-भारतवर्ष का पुनरोदय


आज़ादी की 75 वीं वर्षगाँठ के कुछ दिन पहले सूर्योदय के देश जापान में भारतीय हॉकी के पुनरोदय की प्रतीकात्मक कहानी लिखी गई है। खेल केवल व्यक्तिगत कौशल, स्वास्थ्य और जोशो-जुनून का नाम नहीं है। वे समाज के स्वास्थ्य और उसके हौसलों को बताते हैं। टोक्यो ओलम्पिक में भारतीय उपलब्धियों को बहुत ज्यादा भले ही न आँकें, पर हमारी हॉकी टीमों ने पिछड़ने के बाद पलटकर खेल में वापस आने के जिस जज़्बे का प्रदर्शन किया है, उसे समझना समझिए। सिर्फ हॉकी नहीं, एथलेटिक्स में नीरज चोपड़ा के स्वर्ण-पदक का भी प्रतीकात्मक-महत्व है। यह आत्म-विश्वास हमारी राष्ट्रीय-भावना को व्यक्त कर रहा है। हम सफल होना चाहते हैं।

पुनर्निर्माण की चुनौती

जिस समय भारत स्वतंत्र हुआ वह बड़ा देश जरूर था, पर उसे उभरती महाशक्ति नहीं कह सकते थे। अंग्रेजी-राज ने हमें उद्योग-विहीन कर दिया था और जाते-जाते दो टुकड़ों में बाँट भी दिया। कैम्ब्रिज के इतिहासकार एंगस मैडिसन लिखा है कि सन 1700 में वैश्विक-जीडीपी में भारत की हिस्सेदारी 22.6 फीसदी थी, जो पूरे यूरोप की हिस्सेदारी (23.3) के करीब-करीब बराबर थी। यह हिस्सेदारी 1952 में केवल 3.2 फीसदी रह गई थी। आजादी के वक्त देश की आबादी 34 करोड़ और जीडीपी 2.7 लाख करोड़ रुपये थी, वैश्विक जीडीपी की 3.2 फीसदी। आज हमारी जीडीपी करीब 148 लाख करोड़ है, जो वैश्विक जीडीपी की 7.74 प्रतिशत है। अनुमान है कि 2024 में हमारी भागीदारी 10 प्रतिशत होगी। सन 1951 में भारत की साक्षरता दर 16.7 प्रतिशत, बाल-मृत्यु दर 1000 बच्चों में 146 और नागरिकों की औसत आयु 32 वर्ष थी। आज साक्षरता की दर 77.7 और बाल-मृत्यु दर प्रति 1000 पर 28 के आसपास है। तब हमारा अन्न उत्पादन करीब पाँच करोड़ टन था, जो आज करीब 31 करोड़ टन है। आज हम उदीयमान महाशक्ति हैं।

नेहरू की विरासत

जवाहर लाल नेहरू को आइडिया ऑफ इंडिया और उसकी बुनियादी अवसंरचना बनाने का श्रेय जाता है। उनकी विरासत में कम से कम चार बातें आज भी प्रासंगिक हैं। 1.मिश्रित अर्थ-व्यवस्था, 2.योजना यानी ‘दृष्टि’, 3.विदेश नीति और 4.कौशल या ज्ञान। बहु-जातीय, बहुधर्मी धर्म-निरपेक्ष भारत की परिकल्पना में भी उनका योगदान है। बावजूद इसके इन चारों परिकल्पनाओं में पिछले 74 वर्षों में बदलाव आए हैं। मिश्रित अर्थव्यवस्था का प्रारम्भिक रुझान सार्वजनिक उद्यमों की तरफ था, तो अब निजी-क्षेत्र को उसका वाजिब स्थान दिया जा रहा है, योजना की जगह नीति ने ले ली है, विदेश-नीति में से पनीले-आदर्शोंको बाहर कर दिया गया है। अलबत्ता कौशल या ज्ञान-आधारित विकास नए भारत का बुनियादी मंत्र बनकर उभरा है।

इंदिरा गांधी ने भारतीय राष्ट्र-राज्य को लोहे के दस्ताने पहनाए। एक दौर में वे शोला बनकर आसमान में चमकी थीं। 1962 की पराजय से आहत देश को 1971 में उन्होंने विजय का तोहफा दिया। दूसरी तरफ कांग्रेस को खानदानी-विरासत बनाने का श्रेय भी उन्हें जाता है। राजीव गांधी ने इक्कीसवीं सदी का सपना दिया। उनका आगमन दुर्घटनावश हुआ और निधन भी। उस छोटे से दौर में भी वे नए भारत का सपना सौंपकर गए। पीवी नरसिंह राव ने ऐसे दौर में सत्ता संभाली जब देश के सामने आजादी के बाद का सबसे बड़ा संशय खड़ा था। एक तरफ मंदिर-मस्जिद का झगड़ा और दूसरी तरफ देश के सोने को गिरवी रखने का सवाल। ऐसे वक्त में एक अल्पसंख्यक सरकार की बागडोर संभालते हुए वे अर्थ-व्यवस्था में बुनियादी बदलाव लाने में सफल हुए।

अटल बिहारी

अटल बिहारी वाजपेयी ने साबित किया कि केवल कांग्रेस को ही देश चलाने का सर्वाधिकार प्राप्त नहीं है। उन्होंने राजनीति में अछूत बन चुकी बीजेपी को न केवल वैधानिकता दिलाई, बल्कि सत्ता दिलाने में भूमिका निभाई। नाभिकीय परीक्षण का फैसला करके उन्होंने साबित किया कि दुनिया में इज्जत हासिल करनी है, तो निर्भीक होकर कड़े फैसले करने होंगे। विदेश-नीति को नए रास्ते पर ले जाने का श्रेय उन्हें है, जिसका पालन यूपीए ने भी किया। सपनों को साकार करने के लिए कई बार एक नेता का इंतजार होता है। सन 2014 में नरेंद्र मोदी को देश ने कुछ इसी अंदाज में बागडोर सौंपी। उनकी परीक्षा ऐसे दौर में हो रही है, जब देश का आर्थिक मंदी और महामारी से सामना है। पिछले 74 वर्ष उम्मीदों और निराशाओं के ताने-बाने से बुने गए हैं। विकास हुआ, सम्पदा बढ़ी, वहीं 1974 और 2011 में भ्रष्टाचार के खिलाफ दो बड़े आंदोलन हुए। नौकरशाही, राजनीति, पूँजी और अपराध का गठजोड़ पहले से हवा में था, पर आजादी के बाद पहला बड़ा घोटाला 1958 में ‘मूँधड़ा-कांड’ के रूप में सामने आया। यों पहली अस्थायी संसद के सदस्य एचजी मुदगल को बर्खास्त किया जा चुका था। आज देश में सबसे प्रचलित शब्द है घोटाला। साम्प्रदायिक, क्षेत्रीय, जातीय, भाषायी दंगों और आंदोलनों की लम्बी फेहरिस्त भी इसके साथ नत्थी है।

उम्मीदों के पहाड़

व्यवस्था को लेकर हम निराश हैं, और आजादी को लेकर आशावान भी हैं। महबूब खान की ‘मदर इंडिया’ उन गिनी-चुनी फिल्मों में से एक है, जो आज भी हमारे दिलो-दिमाग पर छाई हैं। यह फिल्म भारतीय स्त्री के ताकतवर चित्रण और गाँव के सामंती शोषण की कहानी कहती है। आजादी के दस साल बाद सन 1957 में यह फिल्म जिस नए भारत के आगमन का संदेश दे रही थी, वह 75 साल बाद कैसा है? ‘मदर इंडिया’ के कई रूपक और प्रतीक आज के भारत में भी मिलेंगे, पर यह कहना ठीक नहीं कि 74 साल में कुछ भी नहीं बदला। अन्याय के वीडियो वायरल होते हैं और उनसे लड़ने वाले भी सामने आते हैं। दिए और तूफान की लड़ाई जारी है। 

गरीबी एक अनबूझ पहेली है। राजनीति में सफलता का फॉर्मूला। इंदिरा गांधी ‘गरीबी हटाओ’ के नारे की मदद से भारी बहुमत के साथ जीतकर आईं थीं। उस नारे की 50वीं जयंती भी हम इस साल मना रहे हैं। आज भी हमारा लक्ष्य है लोगों को गरीबी की रेखा से बाहर निकालना। यह रेखा क्या है और क्या होनी चाहिए? इसका निर्धारण कैसे होगा? इसे लेकर अर्थशास्त्रियों के बीच बहस है, पर माना जाता है कि गरीबी की रेखा के नीचे रहने वालों की संख्या में कमी आई है। विश्व बैंक के अनुसार 1993 में भारत में गरीबी की रेखा के नीचे 45.3 फीसदी आबादी थी, जो 2004 में 37.2 फीसदी, 2009 में 29.8 फीसदी और 2011 में 21.9 फीसदी रह गई।

विकास का रास्ता

देश ने सन 1948 में पहली औद्योगिक-नीति के तहत मिश्रित-अर्थव्यवस्था को अपनाया। भारतीय पूँजी इतनी समर्थ नहीं थी कि उसके सहारे औद्योगीकरण हो पाता। पर मिश्रित अर्थव्यवस्था की अवधारणा में झोल था। उसके पहले देश के आठ उद्योगपतियों ने ‘बॉम्बे-प्लान’ के नाम से एक और रूपरेखा पेश की थी। उसमें भी सार्वजनिक उद्योगों की बात थी, पर पूँजी को संरक्षण देने का सुझाव भी था। 1950 में योजना आयोग की स्थापना हुई और 51 से पंचवर्षीय योजना शुरू हुईं। यह सोवियत मॉडल था। बुनियादी बहस थी कि समाजवादी रास्ते पर जाएं या खुली-व्यवस्था अपनाएं? दूसरी पंचवर्षीय योजना में औद्योगीकरण के लिए राजकोषीय घाटे की सलाह दी गई। इसका फ्रेडरिक हायेक और बीआर शिनॉय जैसे अर्थशास्त्रियों ने विरोध किया। शिनॉय का कहना था कि सरकारी नियंत्रणों से इस युवा लोकतंत्र को ठेस लगेगी।

दूसरी पंचवर्षीय योजना और 1956 की औद्योगिक नीति ने देश में सार्वजनिक उद्योगों और लाइसेंस राज की शुरुआत की। नेहरू तेज औद्योगिक विकास चाहते थे, ताकि खेती से हटकर पूँजी उद्योगों में आए। उन्होंने बिजली और इस्पात को दूसरी योजना का बुनियादी आधार बनाया। जर्मनी, रूस और ब्रिटेन की सहायता से राउरकेला, भिलाई और दुर्गापुर में स्टील प्लांट लगाए गए। आईआईटी और नाभिकीय ऊर्जा आयोग नए राष्ट्र-मंदिर बने, पर खेती के परिव्यय में कमी हो गई। इसका असर दिखाई पड़ा। अन्न-उत्पादन कम हो गया, महंगाई बढ़ गई। अनाज का आयात करना पड़ा, जिससे विदेशी मुद्रा भंडार पर असर पड़ा। दूसरी योजना अपने लक्ष्य को हासिल नहीं कर सकी।  

भारत बनाम चीन

भारत और चीन की यात्राएं समांतर चलीं, पर बुनियादी मानव-विकास में चीन हमें पीछे छोड़ता गया। बावजूद इसके कि आर्थिक-संवृद्धि में हमारी गति बेहतर थी। नेहरू ने मध्यवर्ग को तैयार करने पर जोर दिया, चीन ने बुनियादी विकास पर। सार्वजनिक शिक्षा और स्वास्थ्य में चीन ने हमें पीछे छोड़ दिया। नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ एजुकेशनल प्लानिंग एंड एडमिनिस्ट्रेशन से डॉक्टरेट की मानद उपाधि ग्रहण करते हुए अमर्त्य सेन ने 2011 में कहा, समय से प्राथमिक शिक्षा पर निवेश न कर पाने की कीमत भारत आज अदा कर रहा है। नेहरू ने तकनीकी शिक्षा के महत्व को पहचाना जिसके कारण आईआईटी जैसे शिक्षा संस्थान खड़े हुए, पर प्राइमरी शिक्षा के प्रति उनका दृष्टिकोण ‘निराशाजनक’ रहा।

हरित-क्रांति

चीन-युद्ध से भारत की कमजोरियाँ सामने आईं। नेहरू के निधन के बाद आए लाल बहादुर शास्त्री के सामने अन्न-संकट था। उन्हें हरित क्रांति का श्रेय दिया जा सकता है, पर उनकी प्रशासनिक-दृष्टि को सामने आने का अवसर नहीं मिला। कुछ साल और रहे होते, तो शायद आर्थिक-उदारीकरण की शुरुआत तभी हो जाती। डेयरी उद्योग पर उसी दौर में ध्यान दिया गया। वर्गीज कुरियन के नेतृत्व में गुजरात के आणंद में हुई श्वेत-क्रांति। दूसरी तरफ इंदिरा गांधी आक्रामक समाजवादी नीतियों के साथ आईं। उन्होंने बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया, रुपये का अवमूल्यन किया, प्रीवी पर्स की समाप्ति की। किसानों को आसानी से कर्ज मिला, पर बैंकों की बुनियाद दरक गई। कर्जा लेकर वापस न करने की परम्परा शुरू हुई, जो आज भी जारी है। उन्हें 1971 के चुनाव में जितनी जबर्दस्त सफलता मिली, उतनी ही अलोकप्रियता की शिकार वे अगले छह सालों में हुईं। देश में गैर-कांग्रेसवाद की शुरुआत 1967 में हो गई थी, पर केंद्र में पहली गैर-कांग्रेस सरकार दस साल बाद 1977 में बनी। इंदिरा गांधी को परास्त करके आई जनता पार्टी अपने अंतर्विरोधों की शिकार थी।

आर्थिक-सुधार

1980 में इंदिरा गांधी की फिर वापसी हुई। उन्होंने समाजवादी झंडा फेंक दिया। विश्व-बैंक से पहले समझौते उन्होंने किए। उनके उत्तराधिकारी राजीव गांधी ने सुधारों और आधुनिकीकरण के रास्ते को खोला। उसी दौर में देश में मंडल-कमंडल का उभार हुआ। श्रीलंका के गृहयुद्ध की लपेट में राजीव गांधी की हत्या हो गई। राम-मंदिर आंदोलन, बाबरी-विध्वंस और उसकी प्रतिक्रिया में दंगे हुए। देश व्याकुल हो उठा। ऐसे में 1991 के चुनाव हुए, जिनके बाद बनी सरकार ने आर्थिक-उदारीकरण शुरू किया, जो आज भी जारी है। आर्थिक-सुधार ऐसी अल्पसंख्यक-सरकार ने शुरू किए, जिसके प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री खुद संसद-सदस्य नहीं थे। वह जबर्दस्त शुरूआत थी, पर राजनीतिक-दृष्टि से देश गठबंधन के दौर में था। यह खामी 2004 के बाद यूपीए के दौर में देखने को मिली। उदारीकरण की शुरूआत करने वाले मनमोहन सिंह के आर्थिक सलाहकार कौशिक बसु ने उसे ‘पॉलिसी-पैरेलिसिस’ कहा था।

लोकतांत्रिक भारत

उपलब्धियों की सूची बनाएंगे तो लोकतंत्र का नाम सबसे ऊपर होगा। आज सत्रहवीं लोकसभा इस लोकतंत्र का संचालन कर रही है। लोकतांत्रिक संस्थाएं और व्यवस्थाएं दूसरी उपलब्धि है। तीसरी है राष्ट्रीय एकीकरण। इतने बड़े देश की एकता को बनाए रखना बड़ा काम है। चौथी है सामाजिक न्याय। पाँचवीं है आर्थिक सुधार। छठी है शिक्षा-व्यवस्था और सातवीं, तकनीकी और वैज्ञानिक विकास। हम मंगलग्रह तक पहुँच चुके हैं और अब समानव यान अंतरिक्ष में भेजने की तैयारी कर रहे हैं। साठ के दशक में हरित क्रांति और नब्बे के दशक में कम्प्यूटर सॉफ्टवेयर-क्रांति वैज्ञानिकों और इंजीनियरों की उपलब्धि है।

राजनीतिक विडंबना

लोकतंत्र उपलब्धि है, तो राजनीति उसका अंतर्विरोध है। जब आप इन पंक्तियों को पढ़ रहे हैं, उसके पहले संसद के सत्र का समापन हुआ है, जिसका हंगामा आपको याद होगा। ऐसा पहली बार नहीं हुआ और न संसदीय कर्म को लेकर पहली बार सवाल उठे हैं। फरवरी 2014 में पंद्रहवीं लोकसभा के अंतिम दिनों में तेलंगाना-विधेयक पास करते वक्त सदन युद्ध का मैदान बना था। माहौल इतना बिगड़ा कि लोकसभा टीवी से लाइव टेलीकास्ट रोकना पड़ा। जनता से छिपाकर विधेयक पास हुआ। 13 मई, 2012 को जब संसद के 60 वर्ष पूरे हुए, तब एक विशेष-सभा में सांसदों ने आत्म-निरीक्षण किया। उन्होंने सदस्यों के असंयमित व्यवहार पर चिंता जताई और संकल्प किया कि हर साल कम से कम 100 बैठकें अवश्य हों। यह संकल्प उसके बाद न जाने कितनी बार टूटा है।

आदर्श और पाखंड दोनों हमारी राजनीति में हैं। फिर भी हमारी प्रतिष्ठा इसी लोकतंत्र की बदौलत है। आसपास देखें तो पाकिस्तान, अफगानिस्तान, मालदीव, श्रीलंका, बांग्लादेश, म्यांमार और नेपाल में लोकतांत्रिक पर खतरा बना रहता है। इन देशों में आंशिक लोकतंत्र है तो इसका एक बड़ा कारण भारतीय लोकतंत्र का धुरी के रूप में बने रहना है। यह बात पूरे विश्वास के साथ कही जा सकती है कि पश्चिमी लोकतंत्र के बरक्स भारतीय लोकतंत्र विकासशील देशों का प्रेरणा स्रोत है।

हरिभूमि में प्रकाशित

 

 

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