कांग्रेस पार्टी एकबार फिर से संकट का सामना कर रही है। अगले साल के फरवरी-मार्च महीनों में उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा और मणिपुर में विधान सभा चुनाव होंगे। पिछले बुधवार को पूर्व केंद्रीय मंत्री जितिन प्रसाद के पार्टी छोड़ने के बाद राजस्थान में सचिन पायलट खेमे का हौसला बढ़ा है। शुक्रवार को सचिन पायलट के पिता राजेश पायलट की पुण्यतिथि थी। पिछले साल उनकी पुण्यतिथि से पैदा हुए असंतोष ने फिर से सिर उठाया है। यह आक्रोश किस हद तक जाएगा, इसका पता अगले कुछ दिन में लगेगा। पार्टी हाईकमान ने अजय माकन, रणदीप सुरजेवाला और अविनाश पांडेय को जयपुर भेजा है। सचिन खुद शुक्रवार को दिल्ली आ गए हैं और हाईकमान के सम्पर्क में हैं। उनसे फौरन खतरा नजर नहीं आ रहा है, पर पार्टी में असंतोष है।
पंजाब
और राजस्थान
पंजाब में नवजोत
सिद्धू की महत्वाकांक्षाओं ने सिर उठाया है। मल्लिकार्जुन खड़गे के नेतृत्व में
तीन सदस्यों की समिति ने हाईकमान को सुझाव दिया है कि राज्य में वैकल्पिक नेतृत्व
तैयार करना चाहिए। कांग्रेस ने अपेक्षाकृत अच्छे परिणाम पंजाब में दिए हैं। इसके
पीछे कैप्टेन अमरिंदर सिंह का कड़क नेतृत्व भी है। फिर भी बीजेपी से कांग्रेस में
आए सिद्धू की इतनी हिम्मत कैसे होती है? इसके पीछे कारण है कि वे हाईकमान से रिश्ता बनाकर रखते हैं।
एकबार वे कह भी चुके हैं कौन कैप्टेन अमरिंदर? मेरे कैप्टेन राहुल गांधी हैं।
उधर राजस्थान में सचिन पायलट के समर्थकों का कहना है कि पार्टी पंजाब में वैकल्पिक नेतृत्व की बात कर रही है और राजस्थान में हमारी उपेक्षा। हाईकमान के सूत्र कह रहे हैं कि कोई बगावत राजस्थान में नहीं है। मंत्रिमंडल में खाली पड़े नौ पदों को जल्दी ही भरा जाएगा। इतने पदों के लिए करीब 40 दावेदार हैं। पायलट-समर्थक भी 30-35 हैं। अशोक गहलोत सरकार को बहुमत प्राप्त करने के लिए बसपा और निर्दलीय विधायकों का समर्थन लिया गया था। इनकी कुल संख्या 15 के आसपास है। उन्हें भी जगह देनी है।
अध्यक्ष
पद का असमंजस
कांग्रेस के
राष्ट्रीय अध्यक्ष पद का चुनाव फिर टल गया है। कार्यसमिति की 10 मई को हुई बैठक
में महामारी की स्थिति को देखते हुए चुनाव टालने का फैसला किया गया। पर्यवेक्षक
मानते हैं कि अंततः राहुल गांधी ही अध्यक्ष बनेंगे। और नाममात्र के लिए किसी को
अध्यक्ष बनाया भी गया, तब भी कमान राहुल गांधी के हाथ में ही होगी।
सवाल दूसरे हैं। जब
उदीयमान युवा नेता पार्टी छोड़कर जाने लगें, तो सवाल पैदा होते हैं कि यह हो क्या
रहा है। राहुल गांधी ने जिन युवा सहयोगियों को बढ़ावा दिया, वे क्यों भाग रहे हैं? जितिन प्रसाद के पार्टी छोड़ने की खबर
के कुछ घंटे बाद ही मध्य प्रदेश कांग्रेस ने पार्टी से उनकी विदाई पर खुशी जताते
हुए उन्हें कूड़ा बता दिया। एमपी कांग्रेस के ट्विटर हैंडल से किए गए ट्वीट को कुछ
मिनट बाद ही डिलीट कर दिया गया, लेकिन
तब तक यह वायरल हो गया। इससे पहले छत्तीसगढ़ कांग्रेस की ओर से किए गए एक ट्वीट
में कहा गया-जितिन प्रसाद जी का कांग्रेस पार्टी छोड़ने के लिए धन्यवाद। सवाल है
कि यदि वे कूड़ा ही थे, तो
पश्चिम बंगाल में हाल में हुए चुनाव में उन्हें प्रभारी क्यों बनाया गया?
परिवार
का वर्चस्व
इतिहास लेखक रामचंद्र
गुहा ने लिखा है कि जितिन प्रसाद ने पार्टी इसलिए छोड़ी, क्योंकि हिमंत बिस्व सरमा
और ज्योतिरादित्य सिंधिया की तरह उन्हें कांग्रेस में रहते हुए अपनी प्रगति की
संभावनाएं दिखाई नहीं पड़ रही थीं। इस सिलसिले में उन्होंने तृणमूल कांग्रेस की
सांसद मोहुआ मित्रा और प्रियंका गांधी की प्रगति के विपरीत तौर-तरीकों की तुलना
की। मोहुआ मित्रा ने अमेरिका में पढ़ाई की और फिर न्यूयॉर्क और लंदन में जेपी
मॉर्गन चेस में नौकरी की।
करीब दस साल की नौकरी
के बाद उन्होंने 35 साल की उम्र में भारत आकर सार्वजनिक क्षेत्र में उतरने का
फैसला किया और कांग्रेस में शामिल हो गईं। उन्हें शायद जल्दी समझ में आ गया कि
पार्टी कहीं नहीं जाने वाली है और तृणमूल कांग्रेस में जाने का फैसला किया। लॉबीबाजी
से नहीं, अपनी मेहनत से उन्होंने राज्यसभा की सदस्यता हासिल की। संसद में उनकी
बेहतर पहचान बनी। इसके विपरीत प्रियंका गांधी मार्च 2019 में औपचारिक रूप से
पार्टी में शामिल हुईं और आते ही उन्हें महासचिव का पद मिले। उनकी यह उपलब्धि
खानदान की वजह से थी। कार्यकर्ता के रूप में अपने कृतित्व का परिचय उन्हें न तो किसी
को देना था और न महासचिव के रूप में देना है।
उपलब्धि
क्या?
अगरचे चुनावों में
जीत हासिल करते हुए भाजपा के विजय-रथ को परिवार ने रोक लिया होता, तो उसकी पाँचवीं
पीढ़ी को भी स्वीकृति मिलती। केवल वफादारी कहाँ तक काम करेगी? असम में पार्टी लगातार दूसरी बार इसलिए
हारी, क्योंकि हिमंत बिस्व सरमा को अपने साथ नहीं रख पाई। मध्य प्रदेश में उसकी
सरकार इसलिए गई, क्योंकि ज्योतिरादित्य को रोका नहीं गया। राज्यसभा की सम्भावित सदस्यता तक उन्हें न देकर वफादार
दिग्विजय सिंह को दे दी गई।
वफादार नेता मानते
हैं कि खानदान का सिर पर हाथ नहीं रहा, तो पार्टी डूब जाएगी या टूट जाएगी। अब कांग्रेस
की विचारधारा का नाम है-परिवार। पिछले साल 23 वरिष्ठ सदस्यों के पत्र को लेकर जो
बैठक हुई थी, उसमें पार्टी का रुख साफ था। राहुल गांधी कहते हैं कि हमारी
विचारधारा की लड़ाई है, पर
उसकी कसौटी क्या है? भीतर से जो संकेत मिल
रहे हैं, वे बताते हैं कि निचले स्तर के कार्यकर्ता के साथ नेतृत्व की संवादहीनता
है। विचारधारा को बनाने में जमीनी यथार्थ की क्या भूमिका है?
सर्जरी
का सुझाव
हाल में पाँच राज्यों
के जो चुनाव हुए हैं, उसके पाँच साल पहले उन्हीं राज्यों के नतीजे आने के बाद
दिग्विजय सिंह ने अपने एक ट्वीट में कहा था कि अब बड़ी सर्जरी की जरूरत है।
उन्होंने कहीं यह भी कहा कि प्रियंका गांधी के राजनीति में आने से कांग्रेसजन को
बेहद खुशी होगी। अखबारों में उनका यह बयान भी छपा कि चुनाव परिणाम पार्टी के
केन्द्रीय नेतृत्व की विफलता को परिलक्षित नहीं करते। शशि थरूर ने कहा, ‘आत्ममंथन का समय गुजर गया, अब कुछ करने का समय है...नजर आने वाले
बदलाव होने चाहिए।...अब वक्त है कि कुछ निष्कर्ष निकाले जाएं और कार्रवाई की जाए।’
कोई नहीं बता पाता कि
सर्जरी का मतलब क्या है? पाँच साल पहले पार्टी
के सीनियर नेता मानते थे कि असम में गोगोई को हटाकर हिमंत विश्व सरमा को उनकी जगह
लाना चाहिए था। राहुल ने बात नहीं मानी। तरुण गोगोई अपने बेटे को चाहते थे। सन
2014 की पराजय के बाद राहुल गांधी ने पार्टी के सीनियर नेताओं से कहा था कि वे
अपनी रिपोर्ट बनाकर दें कि अब आगे क्या किया जाए। रिपोर्ट देने की आखिरी तारीख थी
20 फरवरी 2015। उसे गुजरे छह साल गुजर गए हैं। कितने सुझाव दिए गए, कितने माने गए?
विचारधारा की लड़ाई
जून, 2014 में पार्टी के वरिष्ठ नेता एके
एंटनी ने केरल में पार्टी कार्यकर्ताओं से कहा था कि हमें ‘छद्म धर्म निरपेक्षता’
और अल्पसंख्यकों के प्रति झुकाव रखने वाली छवि को सुधारना होगा। उनके बयान से
लहरें उठी थीं, पर
जल्द थम गईं। गुजरात विधानसभा चुनाव के पहले राहुल गांधी ने कुछ मंदिरों में जाना
शुरू किया। वे कैलाश मानसरोवर की यात्रा पर गए।
उनके इन प्रयासों पर
देश के कुछ प्रगतिशीलों ने इसे सॉफ्ट हिन्दुत्व बताया। वस्तुतः इस किस्म के पनीले
प्रयासों से विचारधारा नहीं बनता। जनता के नजरिए को समझना और उसे अपने नजरिए से
परिचित कराना असली राजनीति है। भारतीय जनता पार्टी अपने नजरिए को जनता के सामने न
केवल रखने में, बल्कि
उसका अनुमोदन पाने में सफल हुई है। कांग्रेस उसका काउंटर-नैरेटिव तैयार नहीं कर
पाई।
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