प्रधानमंत्री के साथ 24 जून को जम्मू-कश्मीर के राजनीतिक नेताओं की प्रस्तावित बैठक के निहितार्थ क्या हैं? क्यों यह बैठक बुलाई गई है? कश्मीर की जनता इसे किस रूप में देखती है और वहाँ के राजनीतिक दल क्या चाहते हैं? ऐसे कई सवाल मन में आते हैं। इस लिहाज से 24 की बैठक काफी महत्वपूर्ण है। पहली बार प्रधानमंत्री कश्मीर की घाटी के नेताओं से रूबरू होंगे। दोनों पक्ष अपनी बात कहेंगे। सरकार बताएगी कि 370 और 35ए की वापसी अब सम्भव नहीं है। साथ ही यह भी भविष्य का रास्ता यह है। सरकार ने 5 अगस्त, 2019 को यह भी कहा था कि भविष्य में जम्मू-कश्मीर को पूर्ण राज्य बनाया जाएगा। सवाल है कि ऐसा कब होगा और यह भी कि वहाँ चुनाव कब होंगे?
इस सिलसिले में महत्वपूर्ण यह भी है कि फारुक़ अब्दुल्ला के साथ-साथ
महबूबा
मुफ्ती भी इस बैठक में शामिल हो रही हैं। पहले यह माना जा रहा था कि वे फारुक़
अब्दुल्ला को अधिकृत कर देंगी। श्रीनगर में मंगलवार को हुई बैठक में गठबंधन से
जुड़े पाँचों दल बैठक में आए। ये दल हैं नेशनल कांफ्रेंस, पीडीपी, माकपा, अवामी
नेशनल कांफ्रेंस और जम्मू-कश्मीर पीपुल्स मूवमेंट। हमें नहीं भूलना चाहिए कि ये अलगाववादी
पार्टियाँ नहीं हैं और भारतीय संविधान को स्वीकार करती हैं।
पाकिस्तान में कुछ लोग मान रहे हैं कि मोदी सरकार को अपने कड़े
रुख से पीछे हटना पड़ा है। यह उनकी गलतफहमी है। पाकिस्तान की सरकार और वहाँ की
सेना के बीच से अंतर्विरोधी बातें सुनाई पड़ रही हैं। पर हमारे लिए ज्यादा
महत्वपूर्ण कश्मीरी राजनीतिक दल हैं। उन्हें भी वास्तविकता को समझना होगा। इन दलों
का अनुमान है कि भारत सरकार अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय बिरादरी को यह जताना चाहती
है कि हम लोकतांत्रिक-व्यवस्था को पुष्ट करने का प्रयास कर रहे हैं।
इंडियन
एक्सप्रेस ने कश्मीरी राजनेताओं से इन सवालों पर बातचीत की है। गुपकार गठबंधन
से जुड़े नेताओं को उधृत करते हुए अखबार ने लिखा है कि श्रीनगर में धारणा यह है कि
इस वक्त आंतरिक रूप से तत्काल कुछ ऐसा नहीं हुआ है, जिससे इस बैठक को जोड़ा जा
सके। केंद्र सरकार के सामने असहमतियों का कोई मतलब नहीं है। जिसने असहमति व्यक्त
की वह जेल में गया।
एक कश्मीरी राजनेता ने अपना नाम को प्रकाशित न करने का अनुरोध करते हुए कहा कि 5 अगस्त, 2019 के बाद से जो कुछ भी बदला है, वह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर है। चीन ने (गलवान और उसके बाद के घटनाक्रम को देखते हुए) इस मसले में प्रवेश किया है। अमेरिका में प्रशासन बदला है। उसकी सेनाएं अब अफगानिस्तान से हट रही हैं और सम्भावना है कि तालिबान की काबुल में वापसी होगी। अमेरिका को फिर भी पाकिस्तान में अपनी मजबूत उपस्थिति की दरकार है। इन सब बातों के लिए वह दक्षिण एशिया में शांत-माहौल चाहता है। जम्मू-कश्मीर में जो होगा, उसके व्यापक निहितार्थ हैं।
इसी रोशनी में भारत और पाकिस्तान के बीच चल रही बैक-चैनल बातचीत
को भी देखना चाहिए, जो संयुक्त अरब अमीरात के प्रयास से शुरू हुई है। जहाँ चीन के
साथ वास्तविक नियंत्रण रेखा पर टकराव बना हुआ है, भारत और पाकिस्तान ने नियंत्रण
रेखा पर बगैर-शर्त युद्ध-विराम किया है। पाकिस्तानी संसद ने कुलभूषण जाधव के मामले
में कानून में बदलाव किया है। सुरक्षा-एजेंसियाँ मानती हैं कि घुसपैठ तकरीबन न्यूनतम-स्तर
पर हैं। पिछले रविवार को सोपोर में एक पाकिस्तानी चरमपंथी मारा गया है, पर पिछले
आठ महीनों में ऐसा कोई एनकाउंटर नहीं हुआ, जिसमें गैर-स्थानीय उग्रवादी (यानी
पाकिस्तानी) मारा गया हो।
तकरीबन पूरा का पूरा अलगाववादी नेतृत्व सलाखों के पीछे है।
बैठक का एजेंडा अभी स्पष्ट नहीं है। चिंता इस बात पर भी है कि जिला विकास परिषदों
के गठन से भी राजनीतिक गतिविधियाँ बढ़ी नहीं हैं। हो सकता है कि केंद्र सरकार अपने
कार्यों को लोकतांत्रिक-आवरण पहनाने के लिए ‘निःशक्त-विधानसभा’ के चुनाव कराना चाहती हो। गुपकार
गठबंधन के एक और नेता ने कहा, चुनाव होने पर जम्मू-कश्मीर का कोई स्थानीय व्यक्ति
चुनकर मुख्यमंत्री बन जाएगा, पर सत्ता गैर-चुने उपराज्यपाल के पास होगी। केंद्र
सरकार ने जो बदलाव किए हैं, उन्हें वह सामान्य होने का बाना पहनाना चाहती है।
इन कड़वी प्रतिक्रियाओं के बावजूद इस बात को स्वीकार किया जा
रहा है कि इस बैठक का आयोजन राहत का संदेश दे रहा है। सरकार ने हमारे नेताओं और
कार्यकर्ताओं के साथ जो व्यवहार किया है, और पूर्व मुख्यमंत्रियों तक को पब्लिक
सेफ्टी एक्ट के तहत जेल में डाला, उससे यह संदेश जा रहा था कि वह हमें भागीदार
बनाए बगैर काम चलाना चाहती है। बहरहाल अब उन राजनेताओं को याद किया गया है,
जिन्हें पहले अपमानित किया गया था। पहली बार उनसे बात हो रही है।
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