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Thursday, April 29, 2021

त्रासद समय में पश्चिमी मीडिया का रुख


दुनिया के किसी भी देश ने कोविड-19 की भयावहता को उस शिद्दत से महसूस नहीं किया, जिस शिद्दत से भारत के लोग इस वक्त महसूस कर रहे हैं। अमेरिका के थिंकटैंक कौंसिल ऑन फॉरेन रिलेशंस की वैबसाइट पर ग्लोबल हैल्थ जैसे विषयों पर लिखने वाली लेखिका क्लेरी फेल्टर ने लिखा है कि इस दूसरी लहर के महीनों पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने अपने देश की कमजोर स्वास्थ्य-प्रणाली को मजबूत करने का मौका खो दिया। वर्तमान संकट का उल्लेख करते हुए उन्होंने इस बात का उल्लेख भी किया है कि भारत सरकार अब ऑनलाइन आलोचना को सेंसर कर रही है। इस आपदा पर पश्चिमी देशों, कम से कम उनके मीडिया का दृष्टिकोण कमोबेश ऐसा ही है। भारत सरकार ने इस विदेशी हमले का अनुमान भी नहीं लगाया था। अब विदेशमंत्री एस जयशंकर ने दुनियाभर में फैले अपने राजदूतों तथा अन्य प्रतिनिधियों से कहा है कि वे इस सूचना-प्रहार का जवाब दें। 

न्यूयॉर्क टाइम्स ने अपने पहले पेज पर दिल्ली में जलती चिताओं की एक विशाल तस्वीर छापी। लंदन के गार्डियन ने लिखा, द सिस्टम हैज़ कोलैप्स्ड। लंदन टाइम्स ने कोविड-19 को लेकर मोदी-सरकार की जबर्दस्त आलोचना करते हुए एक लम्बी रिपोर्ट छापी, जिसे ऑस्ट्रेलिया के अखबार ने भी छापा और उस खबर को ट्विटर पर बेहद कड़वी भाषा के साथ शेयर किया गया। पश्चिमी मीडिया में असहाय भारत की तस्वीर पेश की जा रही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के प्रमुख टेड्रॉस गैब्रेसस ने कहा, भारत की दशा को व्यक्त करने के लिए हृदय-विदारक शब्द भी हल्का है।

मोदी सरकार वर्तमान त्रासदी की जिम्मेदारी से बच नहीं सकती, पर आलोचकों  का नज़रिया भी साफ है। इनमें से ज्यादातर मोदी के सनातन आलोचक हैं। इन रिपोर्टों के साथ चिताओं की तस्वीरों के अलावा दो तरह की तस्वीरें और लगाई जा रही हैं। हरिद्वार में गंगा-स्नान करते साधुओं की या बंगाल में नरेंद्र मोदी की चुनाव-रैलियों की। यह सारी समस्या का सरलीकरण है और कमोबेश भारतीय मीडिया की प्रतिच्छवि भी है।

भारतीय मीडिया एकांगी नहीं है। इसी मीडिया के भीतर से अपने प्रतिस्पर्धियों के लिए एक शब्द निकला है गोदी-मीडिया। सारी कहानी 2014 में मोदी के आगमन के बाद शुरू हुई है। भारतीय मीडिया का यह ध्रुवीकरण शुरू हुआ है, सन 2002 के गुजरात-प्रसंग के बाद से। शुरू में यह अस्पष्ट था, पर अब एकदम साफ है।

पश्चिमी मीडिया के पास भारत को देखने की अपनी कोई स्वतंत्र व्यवस्था नहीं है, वह एक धड़े के मार्फत भारत को देखता है। उनका नज़रिया कितना ऑब्जेक्टिव है, इसे लेकर अपनी-अपनी राय है। अलबत्ता सन 2017 में न्यूयॉर्क टाइम्स का एक लेख बहुत चर्चित हुआ था, जिसमें साड़ी के पहनावे को हिन्दुत्व के प्रसार से जोड़ा गया था। भारतीय पत्रकारों का एक वर्ग मानता है कि पश्चिमी अखबारों का रुख भारतीय जनता पार्टी को लेकर नकारात्मक ही रहता है। यह शिकायत आज की नहीं काफी पहले से चली आ रही है। और यह भी माना जाता है कि केवल बीजेपी ही नहीं, पूरे भारत को लेकर पश्चिम का नजरिया नकारात्मक रहा है।

विदेशी मीडिया की कड़वी बातों को लेकर भारतीय सोशल मीडिया में दो अलग-अलग किस्म की प्रतिक्रियाएं हैं। एक तबके ने इसे राष्ट्रीय अपमान माना है। उनका कहना है कि लाशों की तस्वीरें छापकर हमारा अपमान किया गया है। इसी मीडिया ने अमेरिका में हुई मौतों की कवरेज इस तरह से नहीं की थी। इतना ही नहीं अमेरिकी मीडिया पहले से अपने लोगों की लाशों की तस्वीरों को प्रकाशित करने से बचता रहा है। सन 2001 के 9 सितम्बर को न्यूयॉर्क के ट्विन टावर पर हुए हमले में हजारों मौतें हुईं थीं, पर मीडिया ने लाशों की तस्वीरें नहीं छापीं। पर भारत के श्मशानों की तस्वीरें छापने में उन्हें कोई दर्द महसूस नहीं हुआ।

भारत में ही एक दूसरा तबका ऐसा भी है, जो मानता है कि केवल विदेशी मीडिया ने ही भारत का सच सामने रखा है। हालांकि जो तस्वीरें विदेशी मीडिया में प्रकाशित हुई हैं, वैसी ही तस्वीरें भारतीय मीडिया में भी प्रकाशित हुई हैं, पर कोरोना पीड़ितों की संख्या को लेकर विदेशी मीडिया भारत सरकार द्वारा जारी संख्याओं को सही नहीं मानता। फाइनेंशियल टाइम्स के प्रतिनिधि जॉन बर्न-मर्डोक ने अपने एक लम्बे ट्वीट थ्रैड में कहा है कि वास्तविक संख्या आधिकारिक संख्या की दस गुना तक हो सकती है। दूसरी तरफ इस तरह के दावों को गलत और पूर्वग्रही मानने वाली रिपोर्टें भी हैं। संख्या को लेकर भारतीय मीडिया के मन में भी संदेह हैं। साथ ही ऐसी रिपोर्टें भी हैं, जिनमें कहा गया है कि अमेरिकी मीडिया ने पिछले दिनों अमेरिका की ऐसी तस्वीरें भी प्रकाशित की हैं। हालांकि वह दौर पिछले प्रशासन का था, जिसमें अमेरिकी मीडिया ने डोनाल्ड ट्रम्प की आलोचना में कसर नहीं छोड़ी थी।

1 comment:

  1. जब ज़ख्म अपनों ने दिए हों तो दूसरों की शिकायत क्या करें। विदेशी लोग तो चाहते ही हैं कि भारत खत्म हो जाये। लेकिन अफ़सोस तो तब होता है कि यहीं के गिध्द पत्रकार लाशों पर बैठकर पत्रकारिता करते हैं।

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