देश में कोविड-19 संक्रमण की दूसरी लहर इस साल 28 मार्च को होली के चार-पाँच दिन बाद तक कम से कम उत्तर भारत के लोगों को नजर नहीं आ रही थी। पिछले 15 दिनों में इसकी शिद्दत का पता लगा और पिछले एक हफ्ते में इसकी भयावहता सामने आई है। बीमारों की असहायता को देखते हुए स्वास्थ्य सेवाओं को लेकर जनता की नाराजगी जायज है। पहली नजर में इसके लिए सरकारें ही जिम्मेदार हैं। पर इसे राजनीतिक रंग देना भी ठीक नहीं। कई तरह की गलत सूचनाएं पिछले कुछ दिनों में राजनेताओं के ट्विटर हैंडलों से जारी हुई हैं। शायद उन्हें लगता है कि इसका राजनीतिक लाभ उन्हें मिलेगा।
आज के टाइम्स ऑफ इंडिया ने अपने सम्पादकीय में खासतौर से ऑक्सीजन की कमी का उल्लेख किया है। अखबार ने लिखा है कि कोविड-19 के इलाज रेमडेसिविर जैसी दवा की उतना भूमिका नहीं है, जितनी बड़ी भूमिका ऑक्सीजन की है। पर पिछले एक साल में ज्यादा अस्पतालों ने हवा से ऑक्सीजन एकत्र करने वाले संयंत्रों को नहीं लगाया। अब जब इस मामले की समीक्षा करने का समय आएगा, तब केंद्र और राज्य सरकारों को सार्वजनिक-स्वास्थ्य पर कम बजट का जवाब देना होगा। उधर ऑक्सीजन की सप्लाई को लेकर राज्यों के बीच विवाद खड़े हो गए हैं। केंद्र को इसमें समन्वय करना होगा। साथ ही राजनीति को पीछे रखना होगा।
आज के हिन्दुस्तान
टाइम्स ने देश के नाम प्रधानमंत्री के सम्बोधन के संदर्भ में लिखा है कि राज्यों
का सशक्तिकरण अच्छी बात है, पर उन्हें संसाधन भी उपलब्ध कराने होंगे। प्रधानमंत्री
ने पिछले साल कई बार नागरिकों को सम्बोधित किया था। उस दृष्टि से उन्होंने नवीनतम
सम्बोधन में कुछ देर की है। नागरिक जानना चाहते थे कि सरकार क्या कर रही है। प्रधानमंत्री
के भाषण के चार संदेश हैं। यह लहर जबर्दस्त है, सरकार ने स्वास्थ्य-इंफ्रास्ट्रक्चर
को बेहतर बनाने के लिए बहुत कुछ किया है और आपूर्ति में जो दिक्कतें आ रही हैं,
उन्हें दूर करेगी, नागरिकों को जिम्मेदारी लेनी चाहिए और सामाजिक-समूहों को
कोविड-19 से जुड़े आचार-व्यवहार को लागू करना चाहिए, और राज्य सरकारों को लॉक डाउन
का इस्तेमाल अंतिम विकल्प के रूप में करना चाहिए। प्रधानमंत्री ने इस लहर की
शिद्दत को स्वीकार किया यह अच्छी बात है, पर केंद्र ने इस बात को कुछ दिन पहले समझ
लिया होता, तो स्थिति शायद इतनी खराब नहीं हुई होती। इस वक्त अस्पतालों में
बिस्तरों और ऑक्सीजन की जो कमी दिखाई पड़ रही है, उससे प्रधानमंत्री की बातें मेल
नहीं खाती हैं। जब नागरिकों को स्वास्थ्य सेवाओं की जरूरत है, तब सरकार की कोई
भूमिका दिखाई नहीं पड़ रही है और उन्हें अपने हवाले छोड़ दिया गया है।
आज के हिन्दू ने भी प्रधानमंत्री के संदेश को अपने सम्पादकीय का विषय बनाया है। उसने लिखा है कि प्रधानमंत्री ने जब लॉकडाउन को अंतिम विकल्प कहा है, तब उसके पीछे पिछले साल का अनुभव है, जिसमें असंगठित क्षेत्र और मजदूरों को भारी दिक्कतों का सामना करना पड़ा था। अलबत्ता प्रधानमंत्री ने आर्थिक गिरावट को रोकने और स्वास्थ्य सुविधाओं में सुधार के बारे में उन कदमों पर रोशनी नहीं डाली जो वे उठाने जा रहे हैं। इस वक्त वैक्सीनेशन को बढ़ाने और संक्रमण को रोकने के काम को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। फिलहाल 1 मई से 18 साल से ऊपर के लोगों के सार्वभौमिक टीकाकरण के काम की चुनौती है। केंद्र ने जिस योजना को खोला है, उससे अनियंत्रित और वैक्सीन की बाजार-आधारित कीमतों का रास्ता खुल रहा है। बेशक वैक्सीन निर्माण का आधार भी मजबूत रहना चाहिए, पर सरकार को निःशुल्क टीकाकरण की व्यवस्था भी करनी चाहिए।
आज के इंडियन
एक्सप्रेस के सम्पादकीय में लिखा है कि प्रधानमंत्री ने नागरिकों को यह विश्वास
दिलाया है कि इस दूसरी लहर से उनकी रोजी-रोटी पर कम
से कम विपरीत प्रभाव पड़ेगा। उनका यह संदेश कि लॉकडाउन अंतिम विकल्प होगा, दूर
तक गया है। अलबत्ता राज्यों ने जो कदम उठाए हैं, वे किस हद तक इस लहर को रोकने में
कामयाब होंगे, इसका पता अगले कुछ दिनों में लगेगा। अलबत्ता दूसरी लहर ने देश के
स्वास्थ्य-इंफ्रास्ट्रक्चर की अपर्याप्तता को खोलकर रख दिया है। यह खराबी केवल
दूर-दराज के इलाकों में ही नहीं है, बल्कि देश की राजधानी दिल्ली और वित्तीय
राजधानी मुम्बई में भी खुलकर सामने आई है। दवाओं, बिस्तरों और ऑक्सीजन की कमी के
अलावा टेस्टिंग-सुविधाओं की कमी भी प्रकट हुई है। अस्पतालों में ऑक्सीजन की कमी से
मरीजों की जिंदगी खतरे में पड़ गई है। वैक्सीन के मोर्चे पर भी कई तरह की नई
चुनौतियाँ उठ खड़ी हुई हैं। कोवीशील्ड की दो तरह की कीमतों के कारण केंद्र और
राज्यों के बीच टकराव पैदा होगा। वैक्सीन की खरीद में अस्पष्टता को 1 मई के पहले
ही दूर किया जाना चाहिए। वैक्सीन के उत्पादन को बढ़ाने से जुड़े फैसले महीनों पहले
हो जाने चाहिए थे। अब हम आयात से किस हद तक कमी को दूर कर पाएंगे, यह विचारणीय
विषय है। इन सब बातों का असर देश की अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा।
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