पाकिस्तान में प्रधानमंत्री इमरान खान की प्रसिद्धि ‘यू-टर्न पीएम’ के नाम से है। पर भारत-पाकिस्तान रिश्तों को लेकर जब उनका यू-टर्न हुआ, तो पाकिस्तान में भी काफी लोगों को हैरत हुई। बुधवार 31 मार्च को जब खबर मिली कि इकोनॉमिक कोऑर्डिनेशन कौंसिल (ईसीसी) ने भारत से चीनी और कपास मँगाने का फैसला किया है, तो लगा कि रिश्तों को बेहतर बनाने का जो ज़िक्र एक महीने से चल रहा है, यह उसका पहला कदम है।
इसके पहले नरेंद्र
मोदी ने 23 मार्च को ‘पाकिस्तान
दिवस’ पर इमरान खान को बधाई
का पत्र भेजा कि पाकिस्तान के साथ भारत दोस्ताना रिश्ते चाहता है। साथ ही यह भी कि
दोस्ती के लिए आतंक मुक्त माहौल जरूरी है। जवाब में इमरान खान की चिट्ठी आई, 'हमें भरोसा है कि दक्षिण एशिया में शांति और
स्थिरता के लिए दोनों देश सभी मुद्दों को सुलझा लेंगे, खासकर जम्मू-कश्मीर को सुलझाने लायक बातचीत के लिए सही
माहौल बनना जरूरी है।'
दोनों पत्रों में रस्मी बातें थीं, पर दोनों ने अपनी सैद्धांतिक शर्तों को भी लिख दिया था। फिर भी लगा कि माहौल ठीक हो रहा है। गत 26 फरवरी से नियंत्रण रेखा पर और पिछले कुछ समय से अखबारों में बयानों की गोलाबारी रुकी हुई है। बताते हैं कि यूएई ने बीच में पड़कर माहौल बदला है। तीन महीनों से दोनों देशों के बीच बैक-चैनल बात चल रही है वगैरह।
आंशिक-व्यापार शुरू करने के ऐलान पर प्रतिक्रियाएं आई नहीं
थीं कि वहाँ की कैबिनेट ने इस फैसले को रोक दिया और कहा कि
जब तक भारत 5 अगस्त, 2019 के फैसले को रद्द करके जम्मू-कश्मीर में 370 की वापसी
नहीं करेगा, तब तक कारोबार नहीं होगा। इतने तेज यू-टर्न की उम्मीद किसी को
नहीं थी।
भाँजी किसने मारी? इमरान व्यापार मंत्रालय खुद देखते हैं। ईसीसी के फैसले के पर उनके दस्तखत हैं।
बताया गया कि विदेश मंत्रालय से मशविरा नहीं किया गया। एक हाथ को दूसरे की खबर
नहीं? समझ में नहीं आता कि व्यापार-बहाली के फैसले
में जल्दबाजी हुई या उसे रद्द करने में। पाकिस्तान सरकार जोखिम से डर गई या खुद को कमजोर साबित करना नहीं चाहती? या फिर कश्मीर को लेकर जो जुनून है, उससे पीछे हटने का तरीका समझ में नहीं आ
रहा है? दूसरी तरफ वह बैकरूम-बातें
तो कर रहा है, पर कदम उठाने में घबरा रहा है।
बीती बातें भुलाने की सलाह
दोनों के रिश्तों में उतार-चढ़ाव बहुत तेजी से आता है,
इसलिए इस पलटी से हैरान होने की जरूरत नहीं है। पर इसके पीछे की कहानी और वैश्विक
परिस्थितियों को पढ़ने की जरूरत है। प्रधानमंत्रियों की चिट्ठियों के पहले 17
मार्च को इमरान खान ने पाकिस्तान के थिंकटैंक नेशनल सिक्योरिटी डिवीजन के ‘इस्लामाबाद सिक्योरिटी डायलॉग’
का उद्घाटन करते हुए कहा, हम भारत से रिश्तों को सुधारने की
कोशिश कर रहे हैं।
बाद में इसी कार्यक्रम में जनरल ने ‘बीती बातों को भुलाने’ की सलाह दी थी। बाजवा ने रस्मी
तौर पर कश्मीर का जिक्र जरूर किया, पर 5 अगस्त, 2019 से पहले की स्थिति बहाल करने और सुरक्षा परिषद के
प्रस्तावों का जिक्र नहीं किया। अब जब इमरान खान ने बातचीत के लिए एक शर्त जोड़ दी
है, तब सोचना पड़ेगा कि जनरल बाजवा किन बातों को भुलाने का सुझाव दे रहे थे।
इस दौरान नई बात यह हुई कि पाकिस्तानी सरकार और सेना ‘एक पेज’ पर नजर आए। अतीत की भारत-पाकिस्तान वार्ताओं
में ‘कांफिडेंस बिल्डिंग मैजर्स (सीबीएम)’ का सबसे ज्यादा इस्तेमाल होता है। इस
सीबीएम का रास्ता आर्थिक है। बाजवा ने उसपर जोर दिया। दोनों के आर्थिक-सहयोग की
जबर्दस्त सम्भावनाएं हैं, पर पाकिस्तान का ‘कश्मीर कॉज़’ आड़े आता है।
नियंत्रण रेखा पर व्यापार
फिर से शुरू होने पर हालात बड़ी तेजी से सुधरेंगे। दोनों देशों के बीच व्यापार की
जबर्दस्त सम्भावनाएं हैं। इससे दोनों को फायदा होगा, लोगों का आना-जाना बढ़ेगा।
दोनों देश संगीत, सिनेमा, क्रिकेट, हॉकी और टीवी धारावाहिकों के अलावा शादी के
जोड़ों, सलवार-कमीजों, खान-पान, आयुर्वेदिक और यूनानी दवाओं, मिर्च-मसालों और
अचारों के मार्फत ही नहीं जुड़े हुए हैं। सगे भाई-बहनों, मामा-भांजों, चचा-भतीजों
वगैरह-वगैरह के मार्फत जुड़े हैं।
कठोर सच
अगस्त, 2019 में भारत ने जम्मू कश्मीर से अनुच्छेद 370 की
वापसी की थी, जिसके जवाब में पाकिस्तान ने कारोबारी रिश्ते तोड़े, राजनयिक रिश्तों
को डाउनग्रेड किया और कहा, हम किसी भी हद तक जा सकते हैं। यह हद या तो फौजी है या
डिप्लोमैटिक। दोनों के परिणाम वह देख चुका है। उसे अब अपने ‘हठ’
को त्यागना होगा।
अफगानिस्तान की शांति-प्रक्रिया भी इससे जुड़ी है। दुशान्बे
में हुए हार्ट ऑफ एशिया सम्मेलन में विदेशमंत्री एस जयशंकर ने ‘डबल पीस’ शब्द का इस्तेमाल किया। यानी
शांति-स्थापना, अफगानिस्तान में ही नहीं, पूरे इलाके में चाहिए। ऐसा कैसे
होगा और कौन इसे सम्भव कराएगा?
लगता है कि बाजवा के चश्मे से सच
बेहतर दिखाई पड़ता है। उन्हें पूर्व में मजबूत भारत, पश्चिम में बदलता अफगानिस्तान
और जटिल ईरान दिखाई पड़ रहा है। साथ ही अमेरिका, जो उनका साथ छोड़ रहा है। अतीत में
पाकिस्तान को अपनी ‘भू-राजनीतिक’ स्थिति
को लेकर अभिमान था, पर बाजवा ने ‘भू-अर्थनीति’ का हवाला दिया है। उनके अनुसार सुरक्षा-तंत्र कमजोर
अर्थव्यवस्था के सहारे नहीं चलेगा। इससे पहले आसिफ अली ज़रदारी और नवाज शरीफ भारत
के साथ कारोबारी रिश्तों को बेहतर बनाने के पक्ष में थे। उन्हें ‘देशद्रोही’ करार दिया गया।
कुछ गलतफहमियाँ
‘विचारधारा’ का दूसरा पहलू भी है। कुछ लोग कहते हैं कि हम अपने स्टैंड को कैसे भुला दें? पाकिस्तान के पूर्व डिप्लोमैट अशरफ
जहाँगीर क़ाज़ी ने ‘डॉन’
में प्रकाशित अपने लेख में कहा, बातचीत की बुनियादी शर्त
होनी चाहिए कि भारत अगस्त, 2019 में कश्मीर से 370 की वापसी के फैसले को वापस ले। क़ाज़ी
साहब को क्यों लगता है कि भारत अपने कदम वापस ले लेगा? क्या अनंत काल तक लड़ेंगे? क्या पाकिस्तानी नीति-निर्धारकों ने इस
गणित को ठंडे दिमाग से पढ़ लिया है या वे सिर्फ जोशो-जुनून को ही अपनी नीतियों का
आधार बनाना चाहते हैं?
यह केवल क़ाज़ी साहब की निजी राय नहीं है। पाकिस्तान के एक
तबके का यह विचार है। उनकी धारणा है कि मोदी अकेले पड़ गए हैं। कश्मीर की वजह से पश्चिमी
देशों में भारत की छवि खराब हुई है। मोदी अब घिर गए हैं वगैरह। पाकिस्तानी
डिप्लोमेसी ने भारत पर हमले जरूर किए हैं, पर वे इतने धारदार नहीं हैं कि भारत की
साख गिर जाए। बल्कि हुआ, इसके विपरीत है। क्वाड में भारत की भूमिका से बात को
समझना चाहिए। अब ब्रिटिश प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन भारत आ रहे हैं। ईयू के साथ चीन
के रिश्ते बनते-बनते बिगड़ गए हैं।
घाटी में जन-जीवन को सामान्य बनाने में पाकिस्तान को अपने
यहाँ आतंकी-कैम्प गिराने होंगे और घुसपैठ पर रोक लगानी होगी। कश्मीर की घुट्टी
पीकर पली-बढ़ी पाकिस्तानी सियासत इसे मंजूर नहीं करेगी। यह असम्भव शर्त है, पर उनके
पास विकल्प क्या है? अर्थव्यवस्था
रसातल में है। उसकी 280 अरब डॉलर की जीडीपी के मुकाबले भारत की दस गुना बड़ी 2.8
ट्रिलियन डॉलर अर्थव्यवस्था है। बांग्लादेश की जीडीपी भी पाकिस्तान से ज्यादा है।
यह अंतर लगातार बढ़ेगा।
अमेरिका की भूमिका
पाकिस्तानी तार चीन से जुड़े हैं, पर डोरियाँ अमेरिकी हाथों
में भी हैं। अर्थव्यवस्था डांवांडोल है। ऊपर से एफएटीएफ की तलवार लटकी है। चीन उसे
काली सूची में जाने से बचा सकता है, पर ग्रे लिस्ट से बाहर नहीं निकाल सकता। उसे
अमेरिका, फ्रांस और ब्रिटेन ही बचा सकते हैं। जब तक अमेरिका-चीन के रिश्तों में
गर्मजोशी थी, पाकिस्तान के लिए हालात आसान थे। पर अब कहानी बदल रही है।
बाजवा ने कहा है कि अमेरिका को सी-पैक के चश्मे से
पाकिस्तान को नहीं देखना चाहिए। यह सफाई है कि हम चीन-परस्त नहीं हैं। दो नावों की
सवारी सम्भव नहीं। पाकिस्तान इस दौरान सऊदी अरब और खाड़ी के देशों की बदलती भूमिका
को भी ठीक से पढ़ नहीं पाया। अमेरिका की दिलचस्पी चीन पर काबू पाने में है।
सुरक्षा परिषद में सन 1957 के बाद कश्मीर पर कोई विचार नहीं हुआ। सन 1971 के युद्ध के बाद
एकबार कश्मीर का जिक्र हुआ,
पर 1972 में
शिमला समझौता होने के बाद कई साल तक पाकिस्तान ने चुप्पी रखी। नब्बे के दशक में
पाकिस्तान ने अफ़ग़ान-जेहाद की आड़ में कश्मीर में हिंसा को बढ़ावा दिया और संरा
महासभा में कश्मीर का जिक्र फिर से करना शुरू कर दिया। सन 1998 में दोनों देशों
ने एटमी धमाके किए, लाहौर
यात्रा, करगिल, विमान का अपहरण, संसद पर हमला और
फिर आगरा शिखर सम्मेलन हुआ।
घूम-फिरकर 2003 में नियंत्रण रेखा पर गोलाबारी रोकने का समझौता हुआ, जिसने माहौल को बदला।
यह स्थिति 2008 तक रही। पर 26 नवम्बर, 2008 को मुम्बई हमले के बाद स्थिति फिर बदल
गई। उसके पहले लग रहा था कि दोनों देशों ने शांति-फॉर्मूला बना लिया है, जिसे ‘मुशर्रफ-मनमोहन फॉर्मूला’
कहा गया था। कहानी वहीं वापस आ रही है।
No comments:
Post a Comment