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Tuesday, March 30, 2021

स्वेज़ में जहाज फँसने से उठते सवाल


मिस्र की स्वेज़ नहर में जाम खुल गया है। क़रीब एक हफ़्ते से वहां फँसे विशाल जहाज़ को बड़ी मुश्किल से रास्ते से हटाया जा सका। टग बोट्स और ड्रैजर की मदद से 400 मीटर (1,300 फुट) लंबे 'एवर गिवेन' जहाज़ को निकाला गया। जहाज़ को हटाने में मदद करने वाली कंपनी, बोसकालिस के सीईओ पीटर बर्बर्सकी ने कहा, "एवर गिवेन सोमवार को स्थानीय समयानुसार 15:05 बजे फिर पानी पर उतराने लगा था। जिसके बाद स्वेज़ नहर का रास्ता फिर से खोलना संभव हुआ।" जहाज निकल गया, पर दुनिया के लिए कई तरह के सबक छोड़ गया है। 

एवर गिवन जहाज काफी बड़े आकार का है, लेकिन उससे भी बड़े जहाज इससे गुजरते रहे हैं। इसकी लंबाई करीब 400 मीटर, चौड़ाई 60 मीटर और गहराई 14.5 मीटर है। यह कुल दो लाख टन का वजन उठा सकता है। इसके चालक दल के सभी सदस्य भारतीय हैं। पर नहर पार करने का जिम्मा मिस्रवासी पायलट के पास था। यह जहाज 20,000 कंटेनर लेकर शंघाई से रोटरडैम के सफर पर निकला था।

इस अटपटी परिघटना के बाद सवाल है कि जब 19वीं सदी में बने एक ढांचे में 21वीं सदी की तकनीक का इस्तेमाल होने लगता है तब क्या ऐसा ही होता है? एक अहम समुद्री परिवहन मार्ग के अवरुद्ध होने से कुछ ऐसा ही हुआ है। इस घटना के बड़े दुष्परिणाम भी हो सकते हैं। मंगलवार 23 मार्च की सुबह कंटेनर ढोने वाला जहाज 'एवर गिवन' स्वेज़ नहर से गुजर रहा था। उसी समय वह थोड़ा टेढ़ा होकर किनारे से जा लगा और पूरी नहर ही अवरुद्ध हो गई। 

स्वेज़ नहर के रास्ते होने वाली आवाजाही पूरी तरह बाधित हो गई। इसकी वजह से नहर के मुहाने पर इंतजार कर रहे जहाजों की लंबी कतार लग गई। जहाज के फँसने वाली जगह पर नहर की चौड़ाई करीब 300 मीटर है। उलटे शंकु वाले आकार में बनी स्वेज नहर की तली सतह से कम चौड़ी है और दोनों किनारों पर ढलान बनी हुई है। एवर गिवन जहाज नहर के पूर्वी किनारे पर जाकर मिट्टी में धंस गया था।

जहाज के निकल जाने के बाद अब प्रशासन को दूसरी चुनौती से निपटना होगा-जाम। स्वेज़ नहर प्राधिकरण के प्रमुख ने कहा कि जाम में फँसे सैकड़ों जहाज़ों में से पहले उन्हें निकलने दिया जाएगा जो पहले आएंगे। हालांकि जहाज़ों पर लदे माल को देखते हुए कुछ जहाज़ों को प्राथमिकता दी जा सकती है। बीबीसी की रिपोर्ट के अनुसार मिस्र के अधिकारियों का कहना है कि जाम की वजह से फँसे सभी जहाज़ों को निकलने में तीन दिन का वक़्त लगेगा, लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि वैश्विक शिपिंग पर पड़े असर को खत्म होने में हफ़्तों या महीनों तक लग सकते हैं। तेज़ हवाओं और रेत के तूफ़ान के बीच फँसे दो लाख टन वज़न वाले जहाज़ को निकालना बचाव टीमों के लिए मुश्किल चुनौती थी।

इस जहाज को निकालने के लिए विशेषज्ञ टीम, एसएमआईटी ने 13 टगबोट का इंतज़ाम किया। टगबोट छोटी लेकिन शक्तिशाली नावें होती हैं जो बड़े जहाज़ों को खींच कर एक जगह से दूसरी जगह ले जा सकती हैं। ड्रैजर भी बुलाए गए, जिन्होंने जहाज़ के किनारों के नीचे से 30,000 घन मीटर मिट्टी और रेत खोदकर निकाली। इसके पहले सोचा जा रहा था कि बात नहीं बनी तो जहाज़ को हल्का करने के लिए कुछ माल को उतारना पड़ेगा। करीब 18,000 कंटेनर निकालने पड़ सकते थे।

अंततः ऊंची लहरों ने टगबोट और ड्रैजर की मदद की और सोमवार 29 मार्च की सुबह स्टर्न (जहाज़ के पिछले हिस्से) को निकाला गया, फिर तिरछे होकर फँसे इस विशाल जहाज़ को काफी हद तक सीधा किया जा सका। इसके कुछ घंटों बाद बो (जहाज़ का आगे का हिस्सा) भी निकल गया और एवर गिवेन तैरने लायक स्थिति में आ गया यानी वह पूरी तरह से निकाल लिया गया।

जहाज़ को खींचकर ग्रेट बिटर लेक तक ले जाया गया, जो जहाज़ के फँसने वाली जगह से उत्तर की तरफ नहर के दो हिस्सों के बीच स्थित है। यहां ले जाकर जहाज़ की सुरक्षा जांच की जा रही है।

एवर गिवेन जहाज़ को निकाल लेना एक बड़ी कामयाबी मानी जा रही है। विशेषज्ञों ने पहले चेताया था कि इस जहाज़ को निकालने में हफ़्तों लग सकते हैं। लेकिन ऊंची लहरों के साथ-साथ विशेषज्ञ उपकरणों ने बचाव अभियान में पूरी तरह मदद की।

स्वेज़ नहर के रास्ते रोजाना करीब 10 अरब डॉलर मूल्य के उत्पादों का आवागमन होता है। इसमें वैश्विक तेल एवं गैस आपूर्ति का 10वां हिस्सा शामिल है। इस नहर का इस्तेमाल करने से यूरोप एवं एशिया की यात्रा पर निकले किसी भी जहाज का 10-14 दिन का समय बच जाता है। नहर का इस्तेमाल न करने पर जहाज को आशा अंतरीप (केप ऑफ गुडहोप) के रास्ते अफ्रीका महाद्वीप का पूरा चक्कर लगाकर जाना पड़ता है।

करीब 10 वर्ष तक चले निर्माण के बाद स्वेज़ नहर को आवागमन के लिए 1869 में खोला गया था। इस अद्भुत निर्माण परियोजना ने समूचे समुद्री व्यापार की सूरत ही बदलकर रख दी। फ्रांसीसी इंजीनियर फर्दिनांद डि लेसप को स्वेज नहर के निर्माण एवं परिचालन के लिए 99 साल का ठेका मिला था। इस परियोजना के अधिकांश शेयर-धारक फ्रांस के रहने वाले थे। वर्ष 1882 में ब्रिटेन ने मिस्र पर हमला कर इस नहर को अपने कब्जे में ले लिया और दोनों विश्व युद्धों में भी इसका परिचालन करता रहा।

वर्ष 1956 में मिस्र के राष्ट्रपति नासिर ने लेसप को दिया गया अनुबंध निरस्त करने के साथ ही स्वेज नहर का राष्ट्रीयकरण कर दिया। इससे नाराज ब्रिटेन, फ्रांस और इजरायल ने मिस्र पर हमला कर दिया। इसके बावजूद आखिर में मिस्र को ही स्वेज नहर की कमान मिली। वर्ष 1967 में इजरायल ने सिनाई पर कब्जा कर लिया तो पूर्वी तट ईस्ट बैंक भी उसके नियंत्रण में आ गया। वर्ष 1973 में मिस्र के सैनिकों ने नहर को पार कर धावा बोल दिया। जिसके जवाब में इजरायली सेना भी पश्चिमी किनारे को पार कर गई। जब बेगिन और सादात के बीच शांति समझौता हुआ तो इजरायल ने मिस्र को सिनाई लौटा दिया और स्वेज़ नहर को सैन्य अतिक्रमण से मुक्त कर दिया गया। स्वेज़ नहर की वजह से मिस्र को साल भर में 7 अरब डॉलर की बड़ी रकम आवागमन शुल्क के तौर पर मिल जाती है।

वर्ष 1869 में जब नहर का निर्माण हुआ था तो उसकी क्षमता काफी अधिक थी। उस समय जहाज काफी छोटे होते थे और पानी की सतह के नीचे भी वे कम गहरे हुआ करते थे। नहर को कई बार चौड़ा एवं गहरा किया जा चुका है। लेकिन एवर गिवन जहाज इस नहर की क्षमता के हिसाब से ऊपर (स्वेज़मैक्स) की श्रेणी में आता है।

स्वेज नहर, पनामा नहर और ट्रांस-साइबेरियन रेलवे जैसी बड़ी परियोजनाओं ने विश्व व्यापार का रूप ही बदलकर रख दिया। कंटेनरों के आने से नई तरह की सुविधाएं पैदा हुईं। मानक आकार एवं रूप के कंटेनर होने से उन्हें जहाजों में लादने और रेलवे वैगनों एवं ट्रकों में ले जाने लायक ढाँचा बना पाना आसान हो गया। नतीजा यह हुआ कि माल-ढुलाई के समय में काफी कमी आई है। कंटेनरों के आने के पहले माल की लदाई एवं उतराई में कई दिन लग जाते थे। अब यह काम चंद घंटों में ही पूरा हो जाता है। कंटेनरों की ढुलाई के लायक जहाजों को बनाने से बड़े पैमाने पर तेल की भी बचत हुई है।

कंटेनरों के जरिए माल-ढुलाई के भी कुछ मसले हैं। टर्मिनलों का वितरण असमान है। मसलन, भारत के पूर्वी तट पर मौजूद ढुलाई टर्मिनल श्रीलंका से पीछे रह गए हैं। विश्व व्यापार के असमान प्रवाह ने भी निर्यातोन्मुखी एशिया में कंटेनरों की किल्लत पैदा कर दी है, जबकि अमेरिका एवं यूरोप में खाली कंटेनरों का जखीरा बनता गया। जहाजों का आकार भी अब उस सीमा पर पहुंच चुका है जहां स्वेज एवं पनामा नहरों से निकल पाना मुश्किल होने लगा है। यह वाकया बीमा कंपनियों को कंगाल भी कर सकता है। ऐसे में इस घटना का विश्व व्यापार पर गंभीर असर पड़ेगा।

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