आज अचानक मेरे मन में राजेन्द्र माथुर के एक पुराने आलेख को फिर से छापने की इच्छा पैदा हुई है। यह इच्छा निर्मला सीतारमन के बजट पर मिली प्रतिक्रियाओं के बरक्स है। यह लेख नई दुनिया के समय का यानी सत्तर के दशक का है। इसमें आज के संदर्भों को खोजने की जरूरत नहीं है। इसमें समाजवाद से जुड़ी परिकल्पना और भारतीय मनोदशा का आनंद लेने की जरूरत है। आज वामपंथ एक नए रूप में सामने आ रहा है। राजेंद्र माथुर को पसंद करने वाले काफी हैं, पर काफी लोग उन्हें नापसंद भी करते हैं। आज वे जीवित होते तो पता नहीं राष्ट्रवाद की उनकी दृष्टि क्या होती, पर उस दौर में भी उन्हें संघी मानने वाले लोग थे। वे नेहरू के प्रशंसक थे, भक्त नहीं। बहरहाल इस आलेख को पढ़िए। कुछ समय बाद मैं कुछ और रोचक चीजें आपके सामने रखूँगा।
इंदिरा गांधी और जगजीवन राम गरीबी हटाने की चाहे जितनी बात करें, लेकिन जो गरीबी राजनैतिक रूप से दुखद नहीं है, वह कभी नहीं हटेगी। जिस बच्चे ने चिल्लाना नहीं सीखा है, वह बिना दूध के भूखा ही मरेगा। वह यों भी हमेशा भूखों मरता आया है और तृप्ति को उसने कभी अपना अधिकार नहीं माना है। यह सर्वहारा वर्ग अभी राजनीति से विलग है, इसलिए रूस या चीन जैसा समाजवाद इस देश में नहीं आ सकता।
फिर भारत में
कौन-सा वर्ग सबसे अधिक मुखर, और
राजनीति में पगा हुआ है? उत्तर
स्पष्ट है, मध्यम वर्ग। इसमें
क्लर्क, शिक्षक, व्यापारी, खाते-पीते, किसान, ट्रेड यूनियन के
मजदूर और उनके लाखों बीए पास बेटे आ जाते हैं। कोई बाबू नेता (और हमारे यहां सारे
नेता बाबू ही हैं) क्या ऐसे समाजवाद की कल्पना करता है जिसमें उसके बेटे को हंसिया
लेकर खेत काटने पड़ें या एमबीबीएस करने के बाद गांव-गांव साइकिल पर बैठकर
दवाएं बांटनी पड़ें या गांव का गोबर खुद उठाना पड़े?
कितने क्लर्कों के
बेटे आज तक ट्रक ड्राइवर बने हैं? क्या डॉक्टर के बेटे ने कभी दवा की दुकान लगाई है? ये सब लोग समाजवाद चाहते हैं क्योंकि उसका अर्थ है
सरकारी दफ्तरों का एक अनंत सिलसिला, जिसमें अनंत बाबू-नौकरियां पैदा होती जाती हैं। नारा लगता है पढ़े-लिखों को काम
दो। क्या काम दो? जब सारे
वयस्क रूस या अमेरिका की तरह पढ़-लिख जाएंगे, तब क्या वे सबके सब पैंट और बुशर्ट पहनकर कुर्सी
टेबल पर डट जाएंगे? भारत में
समाजवाद का अर्थ यह है कि राजनैतिक रूप से कष्टप्रद वाले वर्ग को अधिक-से-अधिक
मुफ्तखोर नौकरियां मुहैया कराई जाएं।
बेशक उन्नत देशों
में यह स्थिति आ गई है कि मेहनत के कामों की जगह अक्ल की सफेदपोश नौकरियां बढ़ गई
हैं। मशीन का लक्ष्य ही आखिर काम का अंत है। वह औद्योगीकरण की अंतिम स्थिति है,
लेकिन भारत में हम पाते हैं कि अमीरी
की पहली सीढ़ी पर चढ़ने के पहले ही हम काम का अंत चाहते हैं। इसलिए मैसूर सरकार ने
सरकारी दफ्तरों का हफ्ता 5 दिन
का कर दिया है और इंटक भी मांग कर रही है कि कारखानों में 5 दिन का हफ्ता कर दिया जाए।
क्या लेनिन ने 1917 में राज संभालते ही 5 दिन का हफ्ता कर दिया था? और वैसे सरकारी दफ्तरों में 3 दिन का हफ्ता कर दिया जाए, तो भी शायद कोई फर्क नहीं पड़ेगा क्योंकि प्रशासन का
काफी काम जनता की दृष्टि से अप्रासंगिक है। हमारे यहां शासन जनता का काम करने वाला
यंत्र नहीं है। वह एक राहत कार्य है और बेकारों को वेतन देने का जरिया है। काम का
साइनबोर्ड लगाकर यदि किसी को बेकाम होने के मजे लूटने हों, तो वह सरकार में चला जाए।
इस प्रकार भारत
में समाजवाद की कल्पना मूलतः सामंतवादी है और हिन्दू परंपरावादी है। वह पंचायती धन
को पढ़े-लिखे लोगों द्वारा बर्बाद करने की होड़ है। कल्पना साम्राज्यवादी भी है
क्योंकि अंग्रेजों के जमाने की तरह हर साक्षर आदमी यहां हाकिम बनना चाहता है और
जनता से कटकर उस पर रौब गालिब करना चाहता है। कल्पना जातिवादी है क्योंकि हर आदमी
अपनी जातीय गरिमा के अनुरूप काम चाहता है, योग्यता के अनुरूप नहीं।
हम सफेदपोश स्वर्ग
के अलावा कुछ नहीं चाहते, इसका
सबसे बड़ा सबूत हमारी शिक्षा प्रणाली है। यह कोई संयोग नहीं है कि 24 साल से सब उसे बुरा-बुरा कहते हैं, लेकिन कोई उसे बदलता नहीं। इसमें तुक है। यह
शिक्षा पद्धति हमें पसंद है। ज्ञान का श्रम किए बिना डिग्री लो, उसके बाद काम का श्रम बचाने वाली नौकरी
मांगो। हमारी शिक्षा पद्धति आजकल नितांत समाजवादी है। वह मैकॉले ने बनाई थी और हम मैकॉले
के ही योग्य हैं।
लेकिन सफेद पोशी
का सिलसिला सदा के लिए तो नहीं चल सकता? जिन लोगों के लिए स्वर्ग के द्वार बंद हो चुके हैं, वे कलकत्ता की गलियों में बम फेंकते हैं या लंका में
विद्रोह संगठित करते हैं, लेकिन
ये लोग सत्ता प्राप्त करके भी क्या कर लेंगे? एक सफेदपोश व्यवस्था की समस्या दूसरी सफेदपोश
व्यवस्था कायम करके हल नहीं की जा सकती।
प्रजातंत्रीय
देशों में तो मध्यवर्गीय वोटर के आग्रह के कारण समाजवाद एक मृग-मरीचिका है।
तानाशाही देशों में स्थिति और भी विकट है। वहां समाजवाद किसी एक आदमी की सामंतवादी
सनक है। जहांपनाह खुश हुए और उन्होंने आवाम को समाजवाद का तोहफा भेंट कर दिया।
जहांपनाह को नहीं मालूम कि राज कैसे चलाया जाता है और समाजवाद में कितनी
युगों-युगों की मगजपच्ची है।
माओ या कोसिगिन
में कोई खामी हो, लेकिन इस तरह
की मुगले आजम हरकतों को उन्होंने समाजवाद नहीं माना। इस तरह एक तानाशाह की मर्जी
से कहीं दुनिया बदलती है, खासकर
तब, जबकि तानाशाह सफेदपोश वर्ग
का हो और उसकी सत्ता की नींव भी यही वर्ग हो। क्रांति के लिए तो खमीर नीचे से उठना
चाहिए। क्रांति इसलिए नहीं होती कि वह बड़ी अच्छी चीज है, बल्कि इसलिए होती है कि उसका होना ऐतिहासिक
परिस्थितियों के कारण लगभग अनिवार्य हो उठता है।
भारत में क्रांति
अथवा परिवर्तन की उम्मीद उस वर्ग से कतई नहीं की जानी चाहिए, जो इन दिनों समाजवाद के भरपूर नारे लगा रहा
है। इस वर्ग को तो वर्तमान व्यवस्था से टुकड़े मिल ही रहे हैं, और भ्रष्टाचार की सुविधाएं भी। यह वर्ग बहुत
बड़ा है। यदि भारत की सबसे गरीब जनता को उन्नति के समान लाभांश नहीं मिल पाते,
तो इसका कारण टाटा, बिड़ला या गिने-चुने 44 परिवार नहीं हैं। कारण है 4-5 करोड़ लोगों का एक समूह जो अधिक जबर्दस्त होने के
कारण विकास के लाभ पहले ही लूट लेता है और सामाजिक न्याय को विकृत कर देता है।
जाहिर है कि इस
तरह के सफेदपोश वर्ग के लिए न पूंजीवाद में कोई गुंजाइश है और न साम्यवाद में।
पूंजीवाद में बाजार की ताकतें काम करती हैं और जिस काम के लिए एक आदमी काफी है,
उसके लिए 4 कभी नहीं रखे जाते। साम्यवाद में भी आदमी की
उत्पादक शक्ति का आखिरी औंस तक उपयोग होता है। गरीब देश में अनुत्पादक नौकरियां
बांटने की ऐयाशी वह नहीं कर सकता। इसीलिए हमें न तो पूंजीवाद चाहिए और न साम्यवाद।
हमें प्रजातंत्रीय समाजवाद चाहिए, ताकि तरक्की की सारी कुर्बानियों से हम बच सकें और नेताओं के मंत्रबल से
स्वर्ग में पहुंच जाएं। याद रखने वाली बात यह है कि जादुई कालीन पर उठाकर ले जाने
वाली वह सुबह कभी नहीं आएगी।
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