पिछले सप्ताह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के एक बयान की ओर बहुत कम लोगों ने ध्यान दिया था, जिसमें उन्होंने चिकित्सा आपात स्थिति के दौरान दक्षिण एशिया और हिंद महासागर क्षेत्र के देशों के बीच डॉक्टरों, नर्सों और एयर एंबुलेंस की निर्बाध आवाजाही के लिए क्षेत्रीय सहयोग योजना के संदर्भ में कहा कि 21 वीं सदी को एशिया की सदी बनाने के लिए अधिक एकीकरण महत्वपूर्ण है। पाकिस्तान सहित 10 पड़ोसी देशों के साथ ‘कोविड-19 प्रबंधन, अनुभव और आगे बढ़ने का रास्ता’ विषय पर एक कार्यशाला में उन्होंने यह बात कही थी। उस बैठक में मौजूद पाकिस्तानी प्रतिनिधि ने भारत के रुख का समर्थन किया था। बैठक में यह भी कहा गया कि ‘अति-राष्ट्रवादी मानसिकता मदद नहीं करेगी।’ पाकिस्तान ने कहा कि वह इस मुद्दे पर किसी भी क्षेत्रीय सहयोग का हिस्सा होगा।
यह केवल संयोग नहीं है कि दोनों देशों ने जम्मू-कश्मीर में नियंत्रण रेखा पर भारत और पाकिस्तान के बीच गोलीबारी रोकने के सन 2003 के समझौते को पुख्ता तरीके से लागू करने की घोषणा की है। उधर दूसरी खबर यह है कि एफएटीएफ ने पाकिस्तान को जून तक ‘ग्रे लिस्ट’ में ही रखने का फैसला किया है। पाकिस्तान लगातार अपनी छवि सुधारने का प्रयास कर रहा है। तीसरे भारत और चीन के बीच पूर्वी लद्दाख में सीमा पर शांति बनाए रखने की जो बातचीत चल रही है, उसके बहुत से पहलू भारत-पाकिस्तान रिश्तों से भी जुड़ते हैं। चीन की दिलचस्पी भारत से रिश्तों को एकदम खराब करने में नहीं है। यों लगता है कि भारत ने अपने मित्र देशों को घटनाक्रम से परिचित करा रखा होगा। अमेरिका की प्रतिक्रिया से ऐसा लगता है। अमेरिकी विदेश विभाग के प्रवक्ता का कहना है कि हमने दोनों देशों को आपसी मसलों को सीधे बातचीत से सुलझाने की सलाह दी है।
भारतीय प्रतिक्रिया
युद्धविराम की
घोषणा के कुछ घंटों के भीतर विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अनुराग श्रीवास्तव ने कहा कि
भारत, पाकिस्तान के साथ
सामान्य पड़ोसी जैसे रिश्ते चाहता है और शांतिपूर्ण तरीके से सभी मुद्दों को
द्विपक्षीय ढंग से सुलझाने के लिए प्रतिबद्ध हैं। उन्होंने कहा, ‘भारत, पाकिस्तान के साथ सामान्य पड़ोसी जैसे रिश्ते चाहता
है और शांतिपूर्ण तरीके से सभी मुद्दों को द्विपक्षीय ढंग से सुलझाने के लिए
प्रतिबद्ध है।’ दोनों देशों के बीच संघर्ष विराम को लेकर फैसला बुधवार आधी रात से
लागू हो गया।
इन खबरों के पीछे की खबर यह है कि भारत-पाकिस्तान के बीच पिछले तीन महीने से बैक-चैनल बातचीत चल रही थी। इस सिलसिले में भारत के रक्षा सलाहकार अजित डोभाल और पाकिस्तानी प्रधानमंत्री के रक्षा मामलों में विशेष सलाहकार मोईद युसुफ के बीच किसी तीसरे देश में मुलाकात भी हुई है। बताया यह भी जाता है कि अजित डोभाल और पाकिस्तानी सेना प्रमुख जनरल कमर जावेद बाजवा के बीच भी सम्पर्क है। पाकिस्तानी अखबार डॉन ने भी इसकी पृष्ठभूमि पर रोशनी डाली है। इसका मतलब यह भी है कि दोनों देशों के बीच आने वाले समय में कुछ और कदम उठाए जा सकते हैं। हालांकि पाकिस्तानी सूत्रों ने दोनों देशों के रक्षा सलाहकारों के बीच मुलाकात की बातों का खंडन किया है, पर लगता यह है कि दोनों सरकारें इस सम्पर्क को धीरे-धीरे ही सामने लाना चाहती हैं। दोनों तरफ इतनी ज्यादा बदमज़गी फैल चुकी है कि उसे रास्ते पर लाने में समय लगेगा।
गुरुवार को पहले
यह घोषणा हुई कि दोनों देशों के डायरेक्टर जनरल मिलिट्री ऑपरेशंस (डीजीएमओ) की हॉटलाइन
पर बातचीत के बाद एलओसी पर युद्धविराम को लागू करने पर सहमति हो गई है। यह सहमति
केवल डीजीएमओ स्तर की बातचीत से सम्भव नहीं थी। यह इतना सरल था, तो काफी पहले ही
हो जाता। वस्तुतः यह घोषणा 26 नवम्बर 2008 को मुम्बई पर हुए हमले के बाद पहली बार
दोनों देशों के बीच सबसे बड़ी सकारात्मक घोषणा है। यदि वह हमला नहीं हुआ होता, तो न
केवल जम्मू-कश्मीर को लेकर दोनों देशों के बीच बड़े समझौतों की सम्भावना थी, बल्कि
व्यापार और दूसरे कुछ महत्वपूर्ण क्षेत्रों में समझौते होने की उम्मीद उन दिनों
पैदा हो रही थी।
युद्धविराम की
भूमिका
वस्तुतः 2003 का
युद्धविराम एक महत्वपूर्ण प्रस्थान-बिंदु था, जहाँ से रिश्तों में बदलाव आना शुरू
हुआ था। इसकी पृष्ठभूमि में दोनों देशों की आगरा-शिखर वार्ता के संकेत थे। वह शिखर
सम्मेलन फौरी तौर पर विफल था, पर उसके सहारे कुछ उम्मीदें जन्म ले गई थीं। मुम्बई
हमले के पहले स्थितियाँ शांति के लिए मुफीद नजर आने लगी थीं। उसके बाद सन 2015 में
उफा सम्मेलन के हाशिए पर दोनों देशों के बीच जो बातचीत हुई थी, उससे भी सम्भावनाएं
बनीं, जो जनवरी 2016 में पठानकोट प्रकरण के बाद टूटी, सो अबतक टूटी पड़ी हैं।
हालांकि मुम्बई
हमले के एक साल पहले 13
ग्रुपों ने मिलकर तहरीके तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) का गठन कर लिया था, पर वह पाकिस्तानी सत्ता प्रतिष्ठान के लिए
बड़ा खतरा बनकर नहीं उभरा था। पाकिस्तानी सिविल सोसायटी का प्रभाव हालांकि आज भी
गहरा नहीं है, पर दिसम्बर 2014 में आर्मी पब्लिक स्कूल, पेशावर के हत्याकांड ने नागरिकों के मन में
खून-खराबे को लेकर आंशिक वितृष्णा पैदा की है। अपनी बदहाली को रोकने और आर्थिक
विकास के प्रति पाकिस्तानी नागरिकों की दिलचस्पी बढ़ी है। भारत से व्यापार बढ़ाने
की कोशिशें वहाँ का व्यापारी समुदाय एक अरसे से करता रहा है, पर 2019 के
पुलवामा-बालाकोट प्रकरण के बाद दोनों का व्यापार लगभग ठप पड़ा है। सन 2011 से दोनों देशों ने व्यापारिक रिश्तों को
बेहतर बनाने की योजना पर काम शुरू किया था, पर सीमा पर अचानक गतिविधियाँ बढ़ने से
और भारत में सत्ता परिवर्तन से सारे काम रुक गए।
अंधेरा रास्ता
भारत-पाकिस्तान
सम्बन्ध अंधेरे रास्ते की तरह हैं। इसमें कई बार समतल जमीन मिलती है और कई बार
ठोकरें। फिलहाल हमें न तो आक्रामक उन्मादी होकर सोचना चाहिए और न खामोश रहकर। सच
यह भी है कि दोनों देशों के रिश्तों में जो थोड़ा सा भी सुधार नजर आता है, वह व्यापारी समुदाय के आपसी रिश्तों और
दोनों देशों के बीच ‘ट्रैक
टू’ के सम्पर्कों के
कारण है। सच है कि अटल बिहारी वाजपेयी की लाहौर यात्रा के बाद करगिल कांड हुआ,
पर करगिल के बाद ही आगरा शिखर सम्मेलन
हुआ और सन 2003 का सीमा पर
शांति बनाए रखने का समझौता हुआ। और यह भी कि लाहौर यात्रा नहीं हुई होती और करगिल
कांड होता तब उस लड़ाई का आयाम शायद कुछ और होता। इसी तरह 25 दिसम्बर 2015 को
नरेंद्र मोदी की लाहौर यात्रा न हुई होती और पठानकोट होता तब शायद भारत की
प्रतिक्रिया कुछ और होती।
भारत-पाकिस्तान के
बीच जहाँ सम्बंधों को सामान्य बनाने वाली ताकतें काम करती हैं, वहीं रिश्तों को
खराब करने वाले भी सक्रिय रहते हैं। मुम्बई हमले के फौरन बाद 28 नवम्बर 2008 को एक फर्जी फोन करने वाले ने खुद को भारतीय विदेश मंत्रालय
का प्रतिनिधि बताते हुए पाकिस्तानी राष्ट्रपति ज़रदारी को फोन करके युद्ध की धमकी
दे डाली थी। सम्पर्क और बातचीत को जारी रखना दोनों देशों के हित में है। साथ ही
हमें जेहादी तत्वों के या तो कमजोर होने या उनपर पाकिस्तान सरकार का नियंत्रण
साबित होने का इंतजार करना होगा। पाकिस्तान लम्बे अरसे तक जेहादियों को छुट्टा
छोड़ने की स्थिति में अब नहीं है। उसके सामने भी दाएश या आईएस का खतरा है। चीन के
साथ रिश्ते बेहतर बनाए रखने के लिए भी उसे जेहादियों को काबू में रखना होगा।
पाकिस्तानी पहल
इस घटनाक्रम की
रोशनी में पाकिस्तानी जनरल बाजवा के गत 2 फरवरी के एक बयान का हवाला भी दिया जा
रहा है। जनरल बाजवा ने पाकिस्तानी एयरफोर्स एकेडमी में कहा कि यह समय है कि हम
हरेक दिशा में शांति के प्रयास करें। पाकिस्तान और भारत को लम्बे अरसे से चले आ
रहे कश्मीर विवाद का समाधान कर लेना चाहिए। पर्यवेक्षक कहते हैं कि अगस्त 2019 में
अनुच्छेद 370 की वापसी के बाद से पाकिस्तान की ओर से आया सद्भावना से भरा यह सबसे
बड़ा बयान है। उसके बाद 11 फरवरी को मोईद युसुफ ने कहा, यदि हमें शांति चाहिए, तो
हमें आगे बढ़ना होगा। और यदि आगे बढ़ना है, तो हमें विवेकशील बनना होगा। उसके बाद
18 फरवरी की वह बैठक हुई, जिसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दक्षिण एशिया की
एकता की ओर इशारा किया। उसके बाद ही भारत ने पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान को
श्रीलंका जाने का हवाई रास्ता दिया।
भारत-पाकिस्तान
टकराव दक्षिण एशिया में सहयोग का माहौल बनाने में सबसे बड़ी बाधा है। बावजूद इसके
आपदाएं आने पर दोनों तरफ से मदद के हाथ बढ़ाए जाने के उदाहरण भी हैं। जनवरी 2001 में गुजरात में आए भूकम्प के बाद पाकिस्तान
ने राहत सामग्री से लदा एक विमान अहमदाबाद भेजा था। सहायता से ज्यादा उसे सद्भाव
का प्रतीक माना गया। यह सद्भाव आगे बढ़ता, उसके पहले ही उस साल भारतीय संसद पर हमला हुआ और न्यूयॉर्क में 9/11 की घटना हुई। इसके बाद अक्तूबर 2005 में कश्मीर में आए भूकम्प के बाद भारत ने 25 टन राहत सामग्री पाकिस्तान भेजी। ऐसे मौके
भी आए जब भारतीय सेना ने उस पार फँसे पाकिस्तानी सैनिकों की मदद के लिए नियंत्रण
रेखा को पार किया।
इक्कीसवीं सदी के
पहले दशक में 26 नवम्बर 2008 तक दोनों देशों के बीच सद्भाव और सहयोग की
भावना पैदा होती रही। कारोबारी रिश्ते बेहतर बनाने के प्रयास भी हुए। अक्तूबर 2014 में भारतीय मौसम दफ्तर ने समुद्री तूफान
नीलोफर के बारे में पाकिस्तान को समय से जानकारियाँ देकर नुकसान से बचाया था। सन 2005 के बाद से भारतीय वैज्ञानिक अपने पड़ोसी
देशों के वैज्ञानिकों को मौसम की भविष्यवाणियों से जुड़ा प्रशिक्षण भी दे रहे हैं।
एकीकरण का
विरोध
दुर्भाग्य से
अंतरराष्ट्रीय घटनाक्रम कुछ इस प्रकार घूमा है कि दक्षिण एशिया की घड़ी की सूइयाँ अटकी
रह गई हैं। मोदी सरकार ने 2014 में शुरुआत पड़ोस के आठ शासनाध्यक्षों के स्वागत के साथ की थी। पर दक्षिण
एशिया में सहयोग का उत्साहवर्धक माहौल नहीं बना। नवम्बर, 2014 में काठमांडू के दक्षेस शिखर सम्मेलन में
पहली ठोकर लगी। उस सम्मेलन में दक्षेस देशों के मोटर वाहन और रेल सम्पर्क समझौते
पर सहमति नहीं बनी, जबकि
पाकिस्तान को छोड़ सभी देश इसके लिए तैयार थे। दक्षेस देशों का बिजली का ग्रिड
बनाने पर पाकिस्तान सहमत हो गया था, पर उस दिशा में भी कुछ हो नहीं पाया।
काठमांडू के बाद
दक्षेस का अगला शिखर सम्मेलन नवम्बर, 2016 में पाकिस्तान में होना था। भारत, बांग्लादेश और कुछ अन्य देशों के बहिष्कार के कारण वह शिखर सम्मेलन नहीं हो
पाया और उसके बाद से गाड़ी जहाँ की तहाँ रुकी पड़ी है। इसके बाद भारतीय राजनय में
बदलाव आया। ‘माइनस पाकिस्तान’ अवधारणा बनी। दक्षेस से बाहर जाकर सहयोग के रास्ते
खोजने शुरू हुए। फरवरी 2019 में पुलवामा और बालाकोट की घटनाओं के बाद और फिर
जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 के निष्क्रिय होने के बाद से दोनों देशों के रिश्तों में कड़वाहट अपने उच्चतम
स्तर पर है।
चीनी पहलकदमी
बहरहाल बीमारी से
लड़ने की मुहिम इस इलाके में राजनीतिक रिश्तों को बेहतर बना सके, तो इसे उपलब्धि माना जाएगा। पिछले साल
ब्रुकिंग्स इंस्टीट्यूट की एक रिपोर्ट में बताया गया था कि दक्षिण एशिया के देशों
के साथ भारत का व्यापार उसके सकल विदेशी व्यापार का 4 फीसदी से भी कम है। यह
स्थिति अस्सी के दशक से है। जबकि इस दौरान चीन ने इस इलाके में अपने निर्यात में
546 फीसदी की वृद्धि की है। सन 2005 में इस इलाके के देशों में उसका निर्यात 8 अरब
डॉलर का था, जो 2018 में 52 अरब डॉलर हो गया था।
दक्षिण एशिया
दुनिया का सबसे कम जुड़ाव वाला (इंटीग्रेटेड) क्षेत्र है। कुछ साल पहले श्रीलंका
में हुई सार्क चैम्बर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री की बैठक में कहा गया कि दक्षिण
एशिया में कनेक्टिविटी न होने के कारण व्यापार सम्भावनाओं के 72 फीसदी मौके गँवा
दिए जाते हैं। इस इलाके के देशों के बीच 65 से 100 अरब डॉलर तक का व्यापार हो सकता
है। ये देश परम्परा से एक-दूसरे के साथ जुड़े रहे हैं। यह क्षेत्र बड़ी आसानी से एक
आर्थिक ज़ोन के रूप में काम कर सकता है। पर इसकी परम्परागत कनेक्टिविटी राजनीतिक
कारणों से खत्म हो गई है। यह जुड़ाव आज भी सम्भव है, पर धुरी के बगैर यह जुड़ाव
सम्भव नहीं। यह धुरी भारत ही हो सकता है, चीन नहीं।
दक्षेस की
भूमिका
दक्षिण एशिया के
देशों ने क्षेत्रीय सहयोग के जिस संगठन सार्क की शुरूआत की थी, वह मृतप्राय है।
सात साल से इसके शिखर नेताओं की कोई बैठक नहीं हुई है। भारत और चीन के बीच भी
सीमा-विवाद हैं, पर हमारे नेताओं की आपसी बातचीत होती है, पर पाकिस्तान के साथ
नहीं होती। इसके पीछे पाकिस्तान सरकार की रणनीति भी रही है। जब भी बातचीत के अवसर
आए, कोई न कोई दुर्घटना हुई। ऐसा अंतिम अवसर 2016 में आने वाला था, जिसे पठानकोट
के हमले ने न केवल रोका, बल्कि बातचीत पर पूर्ण विराम लगा दिया।
इस इलाके के
एकीकरण में भारत की राजनीतिक-आर्थिक कमजोरी एक बड़ा कारण है। पर हाल के वर्षों में
भारत ने औषधि उत्पादन में अपनी महारत को स्थापित किया है। अब चीन भी हमसे दवाएं
खरीद रहा है। सॉफ्टवेयर, इलेक्ट्रॉनिक्स, ऑटोमोबाइल्स, चिकित्सा और शिक्षा नए
क्षेत्र हैं, जिनमें भारत आने वाले कुछ वर्षों में बड़ी ताकत के रूप में उभरेगा।
उस स्थिति में हम इस इलाके को जोड़ने की स्थिति में होंगे।
जी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (२७-०२-२०२१) को 'नर हो न निराश करो मन को' (चर्चा अंक- ३९९०) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
--
अनीता सैनी
भारत सरकार की एक सकारात्मक पहल।
ReplyDeleteसुन्दर लिख ।
बढ़िया लेख
ReplyDeleteअच्छी खबर
ReplyDeleteसामायिक विषय, विस्तृत विवरण देता सुंदर आलेख।
ReplyDelete