देखते ही देखते किसान आंदोलन खेती से जुड़ी माँगों को छोड़कर तीन अलग-अलग रास्तों पर चला गया है। जिस आंदोलन के नेताओं ने शुरू में खुद को गैर-राजनीतिक बताया था और जिसके शुरुआती दिनों में राजनीतिक दलों के नेता उसके पास फटक नहीं रहे थे, वह राजनीतिक शक्ल ले रहा है। दूसरा रास्ता भारतीय किसान यूनियन के टिकैत ग्रुप ने पकड़ा है, जिसने इसे जाट-अस्मिता का रंग देकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान में खाप-महापंचायतों और रैलियों की धूम मचा दी है। तीसरे जिस खालिस्तानी साजिश का संदेह शुरू में था, उसकी भी परतें खुल रही हैं।
आंदोलनों की
वैश्विक मशीनरी भी इसमें शामिल हो गई है। आमतौर पर यह मशीनरी पर्यावरण, जलवायु परिवर्तन और संधारणीय विकास के
सवालों को लेकर चलती है। संयोग से इस आंदोलन की पृष्ठभूमि में पराली जलाने और
उत्तर भारत के पर्यावरण प्रदूषण में खेती की भूमिका से जुड़े सवाल भी थे। वे इस
आंदोलन के साथ गड्ड-मड्ड हो गए हैं।
पीछे रह गए
खेती के सवाल
इस पूरी बहस में
भारतीय कृषि की बदहाली और आर्थिक सुधारों की बात लगभग शून्य है। कोई यह समझने का
प्रयास नहीं कर रहा कि भविष्य की अर्थव्यवस्था और खासतौर से रोजगार सृजन में किस
किस्म की कृषि-व्यवस्था की हमें जरूरत है। खेती से जुड़े नए कानून कृषि-कारोबार और
उसकी बाजार-व्यवस्था के उदारीकरण की दीर्घकालीन प्रक्रिया का एक हिस्सा हैं और उन
आर्थिक सुधारों का हिस्सा हैं, जो पूरे नहीं हो पाए। सन 1950 में हमारी अर्थव्यवस्था में खेती की हिस्सेदारी 55 फीसदी से ज्यादा थी। आज 16 फीसदी से कुछ कम है। खाद्य सुरक्षा के लिए खेती की
भूमिका है और हमेशा रहेगी। खासतौर से भारत जैसे देश में जहाँ गरीबी बेइंतहा है।
हमारी खेती की उत्पादकता कम है। कम से कम चीन या दूसरे ऐसे देशों के मुकाबले कम है, जिनकी तुलना हम खुद से करते हैं। खेती में पूँजी निवेश और दलहन, तिलहन के उत्पादन को बढ़ाने की जरूरत है, जिसका हमें आयात करना पड़ता है। यह काम कैसे होगा और उसके लिए किस प्रकार की नीतियाँ अपनानी होंगी, यह समझने के लिए हमें विशेषज्ञों की शरण में जाना होगा।
इस समस्या के तमाम
पहलू हैं और उन्हें लेकर कई तरह की राय हैं, पर सारी बहस आंदोलन, प्रतिरोध और विरोध-प्रदर्शनों के इर्द-गिर्द चली गई
है। जो पश्चिमी देश भारत में कृषि-सुधारों की माँग कर रहे थे, वे चुप्पी साधे हैं। नब्बे के दशक में विश्व
व्यापार संगठन बन जाने के बाद वैश्विक कारोबार से जुड़े मसले लगातार उठ रहे हैं। एमएसपी
और कृषि-क्षेत्र की सब्सिडी को खत्म करने का उसका दबाव भी इसके पीछे है।
वैश्विक दबाव
भारत की
विदेश-सेवा से जुड़े 20 पुराने अधिकारियों ने हाल में विश्व
व्यापार संगठन के नाम एक चिट्ठी लिखी है। इस पत्र में वस्तुतः डब्लूटीओ, अमेरिका, ब्रिटेन और दूसरे पश्चिमी देशों के राजनीतिक समूहों
को कोसा है। इसका आशय यह है कि आप हमें बाजार खोलने का सुझाव देंगे और ऊपर से
नसीहत भी देंगे कि ऐसे नहीं वैसे। यह हमारे देश का मामला है। बाजार, खाद्य सुरक्षा और किसानों के बीच हमें किस
तरह संतुलन बनाना है, इसे हम
खुद देखेंगे। खेती से जुड़े कानून इस संतुलन को स्थापित करने के लिए हैं। यह तो
आपका दोहरा मापदंड है। एक तरफ आप वैश्विक खाद्य बाजार के चौधरी बने हुए हैं और
दूसरी तरफ किसान-आंदोलन का समर्थन कर रहे हैं।
पत्र में लिखा है
कि भारत डब्लूटीओ या विकसित देशों के कहने से खाद्यान्न बाजार को नियमित नहीं
करेगा, बल्कि भारतीय किसान के
बुनियादी हितों को देखकर फैसला करेगा। इस बीच लेखक संजीव सान्याल ने एक छोटा सा
नोट ट्विटर पर शेयर किया है, जिसमें
दिखाया गया है कि भारत के न्यूनतम समर्थन मूल्य को लेकर विश्व व्यापार संगठन का
भारत पर किस कदर दबाव है। इसके जवाब में भारत में नीदरलैंड्स के पूर्व राजदूत
अलफोंसस स्टोलिंगा ने एक रोचक ट्वीट किया है। उन्होंने लिखा, संजीव, हमारे मीडिया में लेखक तमाम विषयों पर तमाम बातें
लिखते है, पर भारत के बारे में
उनकी जानकारी भारत के अंग्रेजी मीडिया तक सीमित होती है। उनके विचार भारत के
अंग्रेजी मीडिया की कॉपी भर होते हैं।
अलफोंसस स्टोलिंगा
को ट्विटर पर फॉलो करें तो आप पाएंगे कि वे हिंदी की समझ रखते हैं और भारत को लेकर
उनके मन में स्नेह का भाव है। ऐसे भी कुछ लोग दुनिया में हैं, पर हम उनके बारे में कितना जानते हैं।
दूसरे रास्ते पर
उत्तर प्रदेश, राजस्थान और
हरियाणा की जाट-पट्टी है, जहाँ
यह आंदोलन जातीय-अस्मिता की शक्ल ले रहा है। खापों की महापंचायतों का दौर शुरू हो
गया है। भारतीय किसान यूनियन के राष्ट्रीय प्रवक्ता राकेश टिकैत पश्चिमी उत्तर
प्रदेश के अपने इलाके को छोड़कर बाहर इन महापंचायतों को सम्बोधित कर रहे हैं। उनके
भाई नरेश टिकैत ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश में आंदोलन की बागडोर थाम रखी है। राकेश
टिकैत हाल में हरियाणा के दौरे पर थे। उन्होंने जींद और कुरुक्षेत्र के पिहोवा
स्थित गुमथुलागढ़ू में महापंचायतों को सम्बोधित किया। इसके अलावा करनाल और पानीपत
जिलों का भी दौरा किया।
राजनीतिकरण
ज्यादातर राजनीतिक
दल या तो सीधे या इस मुद्दे से जुड़ने को आतुर हैं या परोक्ष रूप से इसका लाभ
उठाना चाहते हैं। भाकियू के नेता राकेश टिकैत की पहली रैली मुजफ्फरनगर में हुई,
जिसमें राष्ट्रीय लोकदल और आम आदमी
पार्टी के नेताओं ने भी शिरकत की थी। राकेश टिकैत अब उत्तर प्रदेश के बाहर रैलियाँ
कर रहे हैं। उधर हरियाणा भारतीय किसान यूनियन के प्रदेशाध्यक्ष गुरनाम सिंह चढूनी
अपने प्लेटफॉर्म से किसान रैलियां व सभाएं भी आयोजित कर रहे हैं। चढूनी और उनके
समर्थकों ने टिकैत की रैलियों से दूरी बनाकर रखी है। किसान संगठनों और उनके नेताओं
के बीच आपसी स्पर्धा भी है।
संयुक्त किसान
मोर्चा की सात सदस्यीय समन्वय समिति ने आंदोलन का स्वरूप बदला है। राजस्थान के भी
सभी रोड टोल प्लाजा को टोल मुक्त करवाने, किसानों से जुड़े सांस्कृतिक कार्यक्रमों को आयोजित करने के साथ 18 फरवरी को चार घंटे का सांकेतिक ‘रेल रोको’
अभियान चलाया गया। चूंकि आंदोलन को लम्बा चलाने की योजना है, इसलिए उसे बिखरने से बचाने तथा मुद्दों पर
फोकस करने की चुनौती है। पर ज्यादा बड़ी चुनौती इसके राजनीतिकरण की है।
संयुक्त किसान
मोर्चा के सदस्य बार-बार इस आंदोलन से राजनीति को दूर रखने की बात करते हैं,
लेकिन उसके भीतर से भी राजनीति की
बातें निकल रही हैं। गत 7
फरवरी को हरियाणा के कितलाना टोल प्लाजा पर आयोजित महापंचायत के दौरान पंजाब से आए
बलबीर राजेवाल ने हरियाणा सरकार को गिराने की बात कही। उन्होंने कहा कि पंजाब में
उन्होंने अकाली दल पर इतना दबाव बनाया कि आखिरकार उसे एनडीए से बाहर होना पड़ा।
हरियाणा की भाजपा सरकार कमजोर है। यह गिर गई तो केंद्र सरकार खुद हमारे पास आएगी।
उनकी बातों का खाप के कई प्रतिनिधियों ने विरोध भी किया।
संयुक्त किसान
मोर्चा के वरिष्ठ सदस्य दर्शनपाल कहते हैं, किसानों का मंच चुनावी मंच नहीं हैं। यह बात सभी को
समझा दी गई है। राजनीतिक दलों को किसानों का मंच इस्तेमाल नहीं करने देंगे। चाहे
वे समर्थन दें या न दें, किसानों
का मंच पूरी तरह से गैर-राजनीतिक रहेगा। पर रणनीति को लेकर मतभेद भी उभर रहे हैं।
इस साल बंगाल, तमिलनाडु,
केरल और असम विधानसभाओं के चुनाव होने
जा रहे हैं। इनपर शायद इस आंदोलन का ज्यादा असर नहीं होगा, पर अगले साल उत्तर प्रदेश के चुनाव पर राजनीतिक दलों
की निगाहें हैं।
जातीय पहचान और
चुनाव
हाल में इलाहाबाद
हाईकोर्ट ने उत्तर प्रदेश सरकार को निर्देश दिया है कि राज्य में 30 अप्रैल तक पंचायत चुनाव कराएं। इससे
ग्रामीण क्षेत्रों में राजनीतिक गतिविधियाँ बढ़ गई हैं। अगले साल विधानसभा चुनाव
भी हैं। इसे देखते हुए राजनीतिक सरगरमी पहले से है। अब किसान आंदोलन ने इसमें और
गरमाहट पैदा कर दी है।
उत्तर प्रदेश में
कांग्रेस, राष्ट्रीय लोकदल और
समाजवादी पार्टी ने इस मामले में पहल की है। उत्तर प्रदेश में प्रियंका गांधी ने
किसान पंचायतों का सिलसिला शुरू किया है। गत 26 जनवरी को हुई हिंसा के दौरान मृत युवा नवरीत के
गाँव में प्रियंका गांधी भी गई थीं। राजस्थान में भी कांग्रेस की ओर से किसान
महापंचायतें की जा रही हैं। पिछले दिनों में इनमें राहुल गांधी ने भी भाग लिया।
सचिन पायलट ने इसमें भूमिका निभाई है। कांग्रेस के अलावा रालोद के जयंत चौधरी ने 17 फरवरी से 7 मार्च तक अलग-अलग जिलों में पंचायत के कार्यक्रम
घोषित किए हैं। इनकी देखा-देखी आम आदमी पार्टी के अरविंद केजरीवाल भी इस पंचायती
राजनीति में कूद पड़े हैं। उनकी पहली पंचायत 28 फरवरी को मेरठ में होगी। आम आदमी पार्टी विधानसभा
चुनाव में उतरने जा रही है। राकेश टिकैत की मुजफ्फरनगर में हुई महापंचायत में
पार्टी के संजय सिंह भी पहुँचे थे।
बीबीसी हिन्दी की
एक रिपोर्ट में सवालिया शीर्षक है कि महापंचायतों ने किसान आंदोलन को क्या सिर्फ़
जाट समुदाय का आंदोलन बना दिया है? राकेश टिकैत वैसे तो पश्चिमी उत्तर प्रदेश से ताल्लुक रखते हैं, लेकिन अब हरियाणा राजस्थान, महाराष्ट्र, कर्नाटक और मध्य प्रदेश से भी किसान महापंचायतों का
बुलावा आ रहा है। उनके बड़े भाई नरेश टिकैत ने उत्तर प्रदेश में महापंचायतों की
कमान संभाली है। कांग्रेस नेता सचिन पायलट ने दौसा में महापंचायत की थी। उसमें
बहुत बड़ी संख्या में राजस्थान के गुर्जर किसान शामिल हुए थे। पायलट को गुर्जर
नेता के तौर पर देखा जाता है। पर्यवेक्षक मानते हैं कि जातीय-ध्रुवीकरण आंदोलन के
हित में नहीं है। कोई भी किसान आंदोलन केवल एक जाति पर खड़ा होकर नहीं चल सकता।
मुजफ्फरनगर में मुसलमान भी बड़ी संख्या में आए। यह भी कहा जा रहा है कि पश्चिमी
उत्तर प्रदेश में जाट ही किसान आंदोलनों का नेतृत्व करते रहे हैं। पंजाब में भी
सिख जाट इसकी अगली कतार में हैं।
खालिस्तान
कनेक्शन
तीसरा रास्ता
खालिस्तान के उस खतरनाक खेल की ओर बढ़ रहा है, जिसे लेकर पंजाब में पहले से आशंकाएं व्यक्त की जा
रही थीं। किसान आंदोलन शुरू होने के पहले ही पंजाब में पाकिस्तान से भेजे गए
ड्रोनों की मदद से हथियार गिराने की घटनाएं हुई थीं। इसकी शुरुआत ग्रेटा थनबर्ग और
लोकप्रिय पॉप गायिका रिहाना के ट्वीट से हुई। आंदोलन के अंतरराष्ट्रीयकरण और भारत
की छवि खराब करने के मामले को लेकर सचिन, तेन्दुलकर और लता मंगेशकर से लेकर अक्षय कुमार जैसे बॉलीवुड के कलाकारों ने
आवाज उठाई। पर खालिस्तानी कनेक्शन को लेकर चिंता उस ‘टूलकिट’ को लेकर है, जिसे ग्रेटा थनबर्ग ने अपने ट्वीट में शेयर
किया था। बाद में उन्होंने इसे डिलीट करके संशोधित ट्वीट जारी किया, पर उनके पिछले ट्वीट का विवरण छिप नहीं
पाया।
टूलकिट के विवरणों
को ध्यान से देखें, तो पाएंगे
कि उनमें आंदोलन की माँग का केवल एक जगह जिक्र भर है। दूसरी तरफ इसमें भारत की छवि
पर वैश्विक-प्रहार करने की कामना ज्यादा है। देश के विदेश मंत्रालय ने इसपर अपनी
कड़ी प्रतिक्रिया दी। खासतौर से विदेश मंत्री एस जयशंकर ने कहा, ''आप देखिए कि विदेश मंत्रालय ने कुछ हस्तियों
की ओर से ऐसे मुद्दे पर दिए गए बयान पर प्रतिक्रिया दी जिसके बारे में वह अधिक
नहीं जानते हैं, इसके पीछे कोई
वजह है।''
दिल्ली पुलिस ने
जो पड़ताल शुरू की है, उससे
पता लगा है कि ‘टूलकिट’ के पीछे ‘पोयटिक जस्टिस फाउंडेशन’ नाम की एक संस्था है,
जो खालिस्तानी संगठन है। शांतिपूर्ण
आंदोलन लोकतंत्र की बुनियादी शर्त है। समूचे किसान-आंदोलन पर दोष लगाना गलत होगा,
पर यह तो देखना ही होगा कि इसकी आड़
में देश-विरोधी ताकतें, तो
सक्रिय नहीं हैं? भारत के
अटॉर्नी जनरल ने गत 12 जनवरी,
2021 को सुप्रीम कोर्ट में बताया था
कि इस आंदोलन में खालिस्तानी प्रवेश कर गए हैं।
‘टूलकिट’ में
कार्यक्रमों के उप-शीर्षक हैं ‘अर्जेंट एक्शंस’ और ‘प्रायर एक्शन।’ एक विस्तृत खंड
है ‘हाउ यू कैन हैल्प?’ ‘अर्जेंट
एक्शंस’ सेक्शन में 4 और 5 फरवरी को ‘ट्विटर स्टॉर्म’ शुरू करने का
निर्देश है। इसके बाद 13-14
फरवरी को भारत के दूतावासों के सामने प्रदर्शन करने के निर्देश हैं। हालांकि अनेक
वैबलिंक अब बंद हैं, पर
‘टूलकिट’ में ‘मोर इनफॉर्मेशन-इम्पॉर्टेंट लिंक्स’ शीर्षक से पाँच लिंक दिए गए हैं,
जो आखिरी जानकारी मिलने तक जारी थे।
इनमें से एक वैबसाइट में बताया गया है, ‘हम कनाडा, अमेरिका और यूके
के वॉलंटियर समूह हैं, जो भारत
के किसान-समुदाय को सामाजिक-न्याय दिलाना चाहते हैं।’ केवल इस किसान आंदोलन की बात
नहीं है लंदन के भारतीय उच्चायोग पर हाल के वर्षों में कई बार हमले हुए हैं,
जिनमें पाकिस्तानी और खालिस्तानी
तत्वों का हाथ रहा है।
गत 26 जनवरी को लालकिले का दरवाजा तोड़कर उसमें
घुसने की घटना प्रतीक रूप में भारतीय राष्ट्र-राज्य पर हमला है। कनाडा स्थित कुछ
समूहों ने सन 2018 से
‘रेफरेंडम-2020’ नाम से एक
अभियान शुरू किया है। उसके लक्ष्य बहुत खतरनाक है। ऐसा नहीं कि गणतंत्र दिवस पर
सौ-पचास लोग रास्ता भटक कर लालकिले में पहुँच गए थे। दिल्ली पुलिस के अनुसार 9000 से ज्यादा ऐसे मोबाइल फोन लालकिले में
सक्रिय थे, जो दिल्ली के नहीं
बाहर के थे। 200 से ज्यादा
ट्रैक्टर और मोटर गाड़ियाँ परिसर में जबरन प्रवेश कर गई थीं।
कनाडा की संस्था
‘पोयटिक जस्टिस फाउंडेशन’ का संस्थापक एमओ धालीवाल है, जो खुद को 'प्राउड खालिस्तानी' बताता
है। वह पीआर फर्म स्काईरॉकेट का डायरेक्टर भी है। इस पीआर फर्म ने ही रिहाना वगैरह
से ट्वीट दिलवाए हैं। जांच एजेंसियों के अनुसार यह व्यक्ति किसान आंदोलन की आड़
में अलगाववादी आंदोलन को बढ़ावा देना चाहता है। धालीवाल का एक वीडियो भी वायरल हुआ
है, जिसमें वह कह रहा है कि
हमारा उद्देश्य केवल कानूनों की वापसी नहीं। अंतिम लक्ष्य खालिस्तान है।
Box
प्रियंका का फेक
ट्वीट और शराब का कांग्रेसी वायदा
आंदोलन के दौरान
हर रोज कुछ न कुछ ऐसा हो रहा है, जो ध्यान खींचता है। सोशल मीडिया पर तो इस आंदोलन का जबर्दस्त असर है। फेक
न्यूज की भरमार है। कांग्रेस नेता प्रियंका गांधी वाड्रा ने एक ट्वीट में ऐसी ही
गलती कर दी। गत 9 फरवरी को
उन्होंने एक ट्वीट किया, जिसमें
फौजी वर्दी पहने एक जवान की तस्वीर है, जो अपने पिता से मिल रहा है। ट्वीट के अनुसार यह जवान छुट्टी पर आया, तो पहले धरने पर बैठे अपने पिता के समर्थन
में सीधे सिंघु बॉर्डर पर आया। वस्तुतः वह तस्वीर सिंघु बॉर्डर की नहीं थी। बाद
में प्रियंका ने इस ट्वीट को डिलीट कर दिया था। यह तस्वीर कांग्रेस पार्टी के
मुख्य हैंडल से भी जारी हुई थी।
उधर हरियाणा की
कांग्रेस नेता विद्या रानी के एक बयान ने राकेश टिकैत जैसे किसान नेता को भी हैरत
में डाल दिया। उन्होंने कहा, किसान
आंदोलन हमें चलाना है; पैसा हो
या शराब, हर तरह से किसानों की
मदद करेंगे। उनका वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो गया। विद्या रानी जींद जिले के
गांव दनोदा की रहने वाली हैं। वे कांग्रेस की टिकट पर 2014 और 2019 में नरवाना से विधानसभा चुनाव लड़ चुकी हैं।
बहरहाल विद्या
रानी के बयान पर राकेश टिकैत ने कहा, 'यहां शराब का क्या काम? मुझे
नहीं पता कि उन्होंने ऐसे बयान क्यों दिए? ऐसे लोगों को आंदोलन में कुछ करने की जरूरत नहीं है। यह गलत है और ऐसा नहीं
होना चाहिए। वे अपने आंदोलन में जो चाहें बाँट सकते हैं।'
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