किसान-आंदोलन के दौरान दिल्ली में हुई की कवरेज पर नजर डालें, तो कोलकाता का टेलीग्राफ केंद्र सरकार के खिलाफ और आंदोलन के समर्थन में साफ दिखाई पड़ता है। इस आंदोलन में नक्सली और खालिस्तानी तत्वों के शामिल होने की खबरों को अभी तक अतिरंजना कहा जाता था। ज्यादातर दूसरे अखबारों ने हिंसा की भर्त्सना की है। इंडियन एक्सप्रेस ने अपने संपादकीय में लिखा है कि देश के 72वें गणतंत्र दिवस पर राजधानी में अराजक (लुम्पेन) भीड़ का लालकिले के प्राचीर से ऐसा ध्वज फहराना जो राष्ट्रीय ध्वज नहीं है, गंभीर सवाल खड़े करता है। इन सवालों का जवाब किसान आंदोलनकारियों को देना है।
संयुक्त किसान मोर्चा ने खुद को ‘समाज-विरोधी तत्वों’ से अलग कर लिया है, और न्हें अवांछित करार दिया है, पर इतना पर्याप्त नहीं है। वह ट्रैक्टर मार्च के हिंसक होने पर अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकते। इस हिंसा ने किसानों के आंदोलन को धक्का पहुँचाया है और इस आंदोलन के सबसे बड़े दावे को धक्का पहुँचाया है कि आंदोलन शालीन और शांतिपूर्ण रहा है। काफी हद तक इस नेता-विहीन आंदोलन के नेताओं ने इस रैली के पहले कहा था कि तयशुदा रास्तों पर ही मार्च होगा। ऐसा हुआ नहीं और भीड़ बेकाबू हो गई।…छह महीने पहले जबसे यह आंदोलन शुरू हुआ है, यह नेता-विहीन है। इस बात को इस आंदोलन की ताकत माना गया। पहचाना चेहरा आंदोलन के उद्देश्यों (तीन कृषि कानूनों की वापसी) पर फोकस करने का काम करता। अब मंगलवार की हिंसा के बाद आंदोलन ने अपने ऊपर इस आरोप को लगने दिया है कि यह नेता-विहीनता, दिशाहीनता बन गई है। उधर सरकार भी यह कहकर बच नहीं सकती कि हमने तो कहा था कि हिंसा हो सकती है।
किसान आंदोलन यहाँ से किधर जाएगा, यह सवाल दीगर है, पर इस आंदोलन ने इस बात को रेखांकित किया है कि शासन चलाने, कानून बनाने और सुधार करने की राह ऐसी नहीं होनी चाहिए। सम्बद्ध लोगों की चिंताओं पर ध्यान दिए बगैर सुधार आरोपित नहीं किए जा सकते। कानूनों को बनाने के पहले व्यापक विचार-विमर्श के काम को त्यागा नहीं जाना चाहिए। संचार-संपर्क और मनुहार का काम होना ही चाहिए। उधर किसानों ने जो सेल्फ गोल किया है, वह उनकी जीत नहीं है। कुछ मीडिया रिपोर्टों में कहा गया है कि स्वर्ण सिंह पंढेर के ग्रुप की इस हिंसा में भूमिका है। पंढेर ग्रुप संयुक्त किसान मोर्चा का हिस्सा नहीं है, तब वह इसके बीच कहाँ से आ गया? सबसे बड़ी बात सरकारी इंटेलिजेंस का क्या हुआ? गणतंत्र दिवस पर ऐसी अराजकता परेशान करने वाली है।
एक्सप्रेस में खबर यह भी है कि
किसानों के साथ बात आगे चलेगी या नहीं, इसपर सवालिया
निशान हैं। लिज़ मैथ्यूस की खबर में किसी सरकारी स्रोत ने कहा है कि हमारी
रणनीति भी अब बदलेगी। ऐसा कैसे संभव है कि आप लालकिले में घुस जाएं, वहाँ झंडा लगा
दें और फिर कहें कि आओ बात करें। उधर आज के हिन्दू ने अपने सरकारी स्रोतों के
हवाले से खबर दी है कि सरकार अब भी बातचीत
के लिए तैयार है।
बीबीसी हिंदी की यह रिपोर्ट भी देखें
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