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Sunday, January 24, 2021

हर्ष और विषाद के दोराहे पर गणतंत्र


हम अपना 72वाँ गणतंत्र दिवस मनाने जा रहे हैं। अगले साल 15 अगस्त को हम 75वाँ स्वतंत्रता दिवस मनाएंगे। हमारे तीन राष्ट्रीय पर्व हैं। स्वतंत्रता दिवस 15 अगस्त, गांधी जयंती 2 अक्तूबर और ‘गणतंत्र दिवस’ 26 जनवरी। वास्तविक अर्थ में जनता का दिन। कैसा महसूस कर रहे हैं आप? जवाब आपके चेहरों पर लिखा है। बेशक यह खुशी का मौका है, पर इस साल हम हर्ष और विषाद के दोराहे पर हैं।

रघुवीर सहाय की एक कविता की अंतिम पंक्तियाँ हैं, ‘कौन-कौन है वह जन-गण-मन/ अधिनायक वह महाबली/ डरा हुआ मन बेमन जिसका/ बाजा रोज़ बजाता है।’ इस सवाल की गहराई पर जाने की कोशिश करें। वह जन-गण-मन अधिनायक कौन है, जिसका बाजा हमारा डरा हुआ मन रोज बजाता है? कुछ ऐसा संयोग पड़ा है कि इस गणतंत्र दिवस पर दो अंतर्विरोधी घटनाएं एक साथ हो रही हैं।

करीब-करीब एक साल तक महामारी के दंश से पीड़ित देश ने दुनिया का सबसे बड़ा टीकाकरण अभियान शुरू किया है। मृत्यु पर जीवन की विजय। दुनिया की सबसे बड़ी चिकित्सकीय परियोजना। दूसरी ओर गणतंत्र दिवस के मौके पर नाराज किसान ट्रैक्टर मार्च निकालने जा रहे हैं। महात्मा गांधी ने कहा था, भारत का प्रधानमंत्री एक किसान होना चाहिए। विडंबना है कि गांधी के देश में किसान आंदोलन की राह पर हैं।  

व्यथित देश

हर्ष से ज्यादा गहरा गणतांत्रिक विषाद है। दशकों पहले काका हाथरसी ने लिखा, ‘जन-गण-मन के देवता, अब तो आँखें खोल/ महँगाई से हो गया, जीवन डांवांडोल।’ काका को भी जन-गण-मन के देवता से शिकायत थी। हम अपने गणतंत्र से संतुष्ट नहीं हैं, तो क्यों? कौन है जिम्मेदार इसका? इस गणतंत्र दिवस पर तीन बातें एक साथ सामने हैं। एक, कोविड-19 से मुकाबला, दूसरे, अर्थ-व्यवस्था की वापसी और तीसरे किसान आंदोलन। तीनों परेशान करती हैं और तीनों के भीतर संभावनाएं हैं। इन तीन के अलावा सामाजिक जीवन में घुलता विषाद भी बड़ी समस्या है।

देश व्यथित है। यह व्यथा काफी हद तक कोविड-19 की देन है। भारत के एक करोड़ पाँच लाख से ऊपर नागरिक संक्रमण के शिकार हुए हैं, जो अमेरिका के बाद दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा संक्रमण है। भारत के डेढ़ लाख से ज्यादा लोगों की इस महामारी में मृत्यु हुई है। हालांकि संक्रमणों की संख्या में तेज गिरावट है और अमेरिका तथा यूरोप के अनेक देशों के मुकाबले हमारे यहाँ तेजी से सुधार भी हुआ है, पर भय का जो वातावरण बना था, वह कायम है। ऐसे में दो भारतीय वैक्सीनें उम्मीद की किरण बनकर सामने आई हैं।

कोविड-19 से लड़ाई

गत 3 जनवरी को भारत के ड्रग रेग्युलेटर ने ऑक्सफोर्ड विवि और एस्ट्राजेनेका की कोवीशील्ड और भारत बायोटेक की कोवैक्सीन को आपातकालीन उपयोग की अनुमति दी और 16 जनवरी से देश में टीकाकरण शुरू हो गया है। भारत की इस सफलता की कहानी अगले कुछ महीनों में दुनियाभर की सुर्खियों में शामिल होने वाली है। क्या यह विस्मय की बात नहीं है कि पाकिस्तान ड्रग रेग्युलेटरी अथॉरिटी ने देश में जिस पहली वैक्सीन को रजिस्टर किया है, वह भारत में बनी कोवीशील्ड है। दोनों देशों के बीच व्यापार बंद है, पर पाकिस्तान सरकार को उम्मीद है कि किसी तीसरे रास्ते से वह इस वैक्सीन को हासिल करने में कामयाब होगा। नेपाल, बांग्लादेश, श्रीलंका और मालदीव सहित दक्षिण एशिया के सभी देश वैक्सीन के लिए भारत की ओर देख रहे हैं।

भारत दुनिया में वैक्सीन का सबसे बड़ा सप्लायर है। उम्मीद है की भारत सरकार वैक्सीन के निर्यात की इजाजत भी दे सकती है। ब्राजील ने चीनी वैक्सीन को खारिज करके भारत में निर्मित वैक्सीन को लाने के लिए विशेष विमान भारत भेजा। कोरोना की वैक्सीन सबसे पहले तैयार करने वाले पाँच देशों में भारत भी शामिल है। ये पाँच देश हैं अमेरिका, ब्रिटेन, रूस, चीन और भारत।

गणतंत्र दिवस के भावुक समारोहों के फौरन बाद हम अर्थव्यवस्था के कठोर धरातल पर उतरेंगे। आगामी 1 फरवरी को संसद में आम बजट पेश होगा। संसद का बजट सत्र 29 जनवरी से शुरू होगा। कोविड-19 के कारण संसद का शीत-सत्र नहीं हो पाया। अब बजट सत्र का पहला हिस्सा 29 जनवरी से 15 फरवरी तक चलेगा और दूसरा हिस्सा 8 मार्च से 8 अप्रैल तक।

संकुचित अर्थव्यवस्था

देश के सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय के राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (एनएसओ) ने गत 7 जनवरी को इस वित्त वर्ष के लिए राष्ट्रीय आय (जीडीपी) का पहला अग्रिम अनुमान (एफएई) जारी किया, जिसमें केवल कृषि को छोड़कर अर्थव्यवस्था के लगभग सभी क्षेत्रों में संकुचन (कांट्रैक्शन) का अनुमान लगाया गया है। एनएसओ के मुताबिक, देश की अर्थव्यवस्था में चालू वित्त वर्ष (2020-21) में 7.7 प्रतिशत के संकुचन का अनुमान है, जबकि इससे पिछले वित्त वर्ष 2019-20 में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 4.2 प्रतिशत वृद्धि दर्ज की गई थी। इस संकुचन के लिए कोविड-19 वैश्विक महामारी को मुख्य कारण बताया गया है।

हरेक वित्त वर्ष में मंत्रालय जीडीपी के बारे में नियमित रूप से अपने अग्रिम अनुमान जारी करता है। यह अनुमान हर साल 7 जनवरी को जारी होता है। इस अनुमान का महत्व यह है कि केंद्र सरकार आगामी वर्ष के बजट के लिए इस अनुमान को आधार बनाती है। जैसे ही जानकारी और मिलती है, इस अनुमान में संशोधन किया जाता है। अब 26 फरवरी को मंत्रालय चालू वित्त वर्ष के लिए दूसरा अग्रिम अनुमान जारी करेगा।

दिसंबर में रिजर्व बैंक की मुद्रा नीति समिति की बैठक में वित्त वर्ष का संकुचन 7.5 फीसदी माना था। हालांकि नवंबर के बाद से अर्थव्यवस्था में फिर से संवृद्धि के लक्षण नजर आ रहे हैं, पर वास्तविक संकुचन को लेकर अभी दो-तीन तरह के अनुमान हैं। हाल में खबरें थीं कि जीएसटी के संग्रह में रिकॉर्ड वृद्धि हुई है, डीलरों के पास पैसेंजर कारों की रिकॉर्ड डिलीवरी हुई है, मैन्युफैक्चरिंग परचेंज़िग इंडेक्स (पीएमआई) काफी मजबूत है। इस प्रकार अर्थव्यवस्था की रिकवरी के संकेत हैं।

आजादी के बाद से केवल तीन बार ऐसा हुआ है जब बजट को संकुचन की पृष्ठभूमि में पेश करना पड़ा हो। ऐसे मौके 1966-67, 1973-74 और 1980-81 के बजट पेश करते समय आए थे। इन बजटों से ठीक पहले के वर्षों में भारतीय अर्थव्यवस्था क्रमशः 3.7 फीसदी, 0.3 फीसदी और 5.2 फीसदी तक संकुचित हुई थी। तीनों मौकों पर कृषि उत्पादन में तीव्र गिरावट थी। तब भारतीय अर्थव्यवस्था खेती के सहारे थी। पर अब हालात उलटे हैं। वर्ष 2020-21 में कृषि उपज में रिकॉर्ड वृद्धि के बावजूद अर्थव्यवस्था में संकुचन है। इसकी वजह है कि खेती अब हमारी अर्थव्यवस्था की बुनियाद नहीं है। कोविड-19 के कारण लॉकडाउन से विनिर्माण और सेवा-क्षेत्र में काम ठप हो गया। देश की अर्थव्यवस्था कृषि के स्थान पर औद्योगिक शक्ल अख्तियार कर रही है।

मायूस किसान

देश का सुस्त औद्योगीकरण हमारे गाँवों की बदहाली की एक वजह है। लगभग 30 फीसदी आबादी शहरों में रह रही है, जबकि चीन में 53 फीसदी शहरों में आ गई है। विकसित देशों में 80 से 90 फीसदी तक आबादी शहरों में है। दूसरी तरफ जोत छोटी, तकनीक का विस्तार न हो पाने, तकरीबन 60 फीसदी खेती मौसम के भरोसे होने, फसल बीमा जैसी सुविधाओं की कमी और ग्रामीण क्षेत्रों में आधारभूत सुविधाओं का विकास न होने के कारण भी समस्याएं पैदा हुईं हैं।

फरवरी 2018 में प्रकाशित सीएसडीएस के भारतीय किसानों की दशा पर एक सर्वे में 64 फीसदी किसानों ने कहा कि हम खेती का काम छोड़कर शहरों में जाना चाहेंगे, बशर्ते रोजगार की गारंटी हो। ऐसा ही एक सर्वे 2013 में किया गया था, तब यह बात कहने वाले किसानों का प्रतिशत 62 प्रतिशत था। ध्यान देने वाली बात यह थी कि 60 फीसदी किसान नहीं चाहते कि उनके बच्चे भी खेती करें, जबकि 2013 के सर्वे में यह प्रतिशत 36 था।

सन 1950 में हमारी जीडीपी में खेती का हिस्सा 54 फीसदी था, सन 1970 में 43 फीसदी था और 1991-92 में घटकर 29.4 फीसदी हो गया। मोटा अनुमान है कि इस समय यह 16 फीसदी से कम है, जबकि देश के 55 फीसदी श्रमिक खेती में आज भी लगे हैं। अर्थव्यवस्था में खेती की भूमिका कम हो रही है। अर्थ-व्यवस्था में सेवा क्षेत्र, औद्योगिक उत्पादन और गैर-कृषि कारोबार बढ़ा है। पर गैर-कृषि क्षेत्र में रोजगारों की संख्या उस अनुपात में नहीं बढ़ी है। वस्तुतः हमें खेती और उद्योगों दोनों में पूँजी निवेश और संतुलन की जरूरत है।

इस वित्त वर्ष के सवा दो महीने अभी बाकी हैं। अब सवाल किए जा रहे हैं अगले साल यानी कि 2021-22 में जीडीपी वृद्धि 2019-20 की तुलना में कैसी रहेगी? पिछले साल लॉकडाउन के पहले लगता था कि अर्थव्यवस्था इस साल पटरी पर वापस आएगी, पर हुआ उल्टा। फिर जब पहली तिमाही में 24 फीसदी संकुचन की खबर आई, तो देश में गहरी निराशा बैठ गई। पिछले महीने से धारणाएं फिर से सकारात्मक दिशा में हैं।

बहरहाल अब बजट का इंतजार है, पर किसान आंदोलन का क्या होगा? कृषि कानूनों को लेकर सुप्रीम कोर्ट के ताजा आदेश को लेकर जो प्रतिक्रियाएं सामने आई हैं, उनमें से ज्यादातर ने अदालत के हस्तक्षेप पर आपत्ति व्यक्त की है। अदालत के रुख से लगता है कि वह सांविधानिक समीक्षा के बजाय राजनीतिक मध्यस्थ की भूमिका निभाना चाहती है, जो अटपटा लगता है। ऐसा लगता है कि जैसे अदालत ने सरकार को फटकार लगाकर किसानों को भरोसे में लेने की कोशिश की और फिर अपने पुराने सुझाव को लागू कर दिया।

अदालत ने पिछले महीने सरकार को सलाह दी थी कि आप इन कानूनों को कुछ समय के लिए स्थगित क्यों नहीं कर देते? अनुमान यही है कि सरकार ने अपनी जिम्मेदारी से बचने के लिए अदालत का सहारा लिया है। आंदोलन का लंबे समय तक चलना भी ठीक नहीं है। पिछले साल इन्हीं परिस्थितियों में दिल्ली और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में फसाद हुए थे। रास्ता तो निकालना ही होगा। और यह रास्ता निकालने की जिम्मेदारी सरकार की है।

लोकतांत्रिक व्यवस्था की यह परीक्षा है। देश की आबादी का काफी बड़ा हिस्सा गरीबी और बदहाली से घिरा है। उसकी जानकारी का स्तर वह है ही नहीं कि वह इस भूल-भुलैया से बाहर निकलने का रास्ता जानती हो। वैसे ही जैसे फिल्म मदर इंडिया के सुक्खी लाला के चोपड़े गाँव वाले नहीं पढ़ पाते थे। पर एक ‘नई जनता’ उभर कर आ रही है। जिम्मेदारी जन-गण और मन तीनों की है और भाग्य विधाता है इस देश की जनता।

 

 

 

 

 

 

 

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संविधान दिवस और गणतंत्र दिवस

गणतंत्र दिवस का मतलब है संविधान लागू होने का दिन। संविधान सभा ने 29 नवम्बर 1949 को संविधान को अंतिम रूप दे दिया था। इसे उसी रोज लागू किया जा सकता था या 1 दिसम्बर या 1 जनवरी को लागू किया जा सकता था। पर इसके लिए 26 जनवरी की तारीख मुकर्रर की गई। सन 2015 में संविधान के निर्माता डॉ. आंबेडकर के 125वें जयंती वर्ष के रूप में 26 नवंबर को सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय ने इसे 'संविधान दिवस' के रूप में मनाने के केंद्र सरकार के फैसले को अधिसूचित किया था।

26 जनवरी को गणतंत्र दिवस के रूप में मनाने की भी एक वजह है। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के दिसम्बर 1929 में हुए लाहौर अधिवेशन में पूर्ण स्वराज्य का प्रस्ताव पास किया गया और  26 जनवरी, 1930 को कांग्रेस ने भारत की पूर्ण स्वतंत्रता के निश्चय की घोषणा की और अपना सक्रिय आंदोलन आरंभ किया। उस दिन से 1947 में स्वतंत्रता प्राप्त होने तक 26 जनवरी ‘पूर्ण स्वराज्य दिवस’ के रूप में मनाया जाता रहा। पर स्वतंत्रता मिली 15 अगस्त को। 26 जनवरी का महत्व बनाए रखने के इसे आगामी 26 जनवरी 1950 से लागू करने का फैसला किया गया। अब हर वर्ष 26 नवंबर का दिन देश संविधान दिवस के तौर पर मनाया जाता है। उसे राष्ट्रीय कानून दिवस के रूप में भी जाना जाता है।

हिन्दी ट्रिब्यून

 

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