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Wednesday, January 13, 2021

हिंद-प्रशांत क्षेत्र की ताकत बनने में लंबा सफर

प्रेमवीर दास, बिजनेस स्टैंडर्ड  

पिछले कुछ दिनों में विदेश मंत्री एस जयशंकर ने हिंद-प्रशांत क्षेत्र पर लगातार कुछ न कुछ कहा है। देश की विदेश नीति के प्रभारी एवं रणनीतिक मामलों के जानकार दोनों की हैसियत से उनकी कही गई बातें महत्त्वपूर्ण हैं। इस समय देश में जयशंकर की तरह इन मामलों में विशेष जानकारी रखने वाले कुछ गिने-चुने लोग ही हैं। ऐसे में उन्होंने जो कहा है उनसे चार महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। पहली बात तो यह कि हिंद-प्र्रशांत बीते हुए कल की वास्तविकता थी, न कि आने वाले कल की जरूरत है। दूसरी अहम बात यह है कि अब देश की रक्षा एवं रणनीतिक पहलुओं से जुड़े मामलों में समुद्री क्षेत्र की अहमियत अधिक है। एक और महत्त्वपूर्ण बात उन्होंने यह कही है कि हिंद महासागर क्षेत्र में भारत को एक अहम किरदार निभाना चाहिए था और चौथी बात यह है कि भारत को हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अपने हितों का तालमेल समान सोच रखने वाले दूसरे देशों के हितों के साथ बैठाना है।

एक अन्य ध्यान आकृष्ट करने वाला बयान चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ (सीडीएस) ने दिया है। उन्होंने मैरीटाइम थियेटर बनाने की हिमायत की है। ऐसा लगता है कि इसमें मौजूदा पूर्वी एवं पश्चिमी नौसेना कमान के  साथ तीनों सेना की अंडमान एवं निकोबार कमान भी शामिल होंगी। इस थियेटर का आकार कितना होगा फिलहाल यह मालूम नहीं है, लेकिन समुद्र में तमाम बातों की स्वतंत्रता बनाए रखने, व्यापार के लिए सुरक्षित मार्ग सुनिश्चित करने और मानवीय सहायता एवं आपदा राहत (एचएडीआर) पर मोटे तौर पर चर्चा चल रही है। इस लिहाज से किसी शत्रु का नाम या उसकी पहचान नहीं की गई है, लेकिन ऐसा समझा जा रहा है कि चीन और पाकिस्तान पर ही नजरें हैं।

जयशंकर और विपिन रावत इन दोनों में किसी के भी वक्तव्य पर सवाल नहीं उठाया जा सकता है। बस चर्चा का एक ही विषय है कि भारत कितना सक्षम है। सामुद्रिक शक्ति का महत्त्व केवल नौसेना तक ही सीमित नहीं है बल्कि विदेश व्यापार, एचएडीआर और दूसरे देशों से संपर्क आदि सभी लिहाज से भी यह उतना ही अहम हैं। अब यह बात भी स्पष्ट है कि जब तक हिंद महासागर क्षेत्र में भारत अपनी क्षमताएं नहीं बढ़ाता है और एक विश्वसनीय एवं उपयोगी साझेदार के तौर पर अपनी छवि विकसित नहीं करता है तब तक इन उत्तरदायित्वों का पालन नहीं किया जा सकता है। यह कुछ कारकों पर निर्भर करता है। इसमें कुछ कारक परिवर्तनशील हैं और कुछ नहीं बदले जा सकते हैं। इन नहीं बदलने वाले कारकों में पहला भूगोल है। आम तौर पर चारों तरफ से जमीनी सीमा से घिरे देश सागर में अपनी ताकत स्थापित करने की पहल नहीं करते हैं। जिन देशों की कुछ तटीय सीमाएं हैं उनकी पहुंच भी खुले जल तक होनी चाहिए। जर्मनी, फ्रांस, रूस सभी के पास बड़ी नौसेनाएं हैं लेकिन वे अब तक समुद्र में अपनी विश्वसनीय ताकत स्थापित नहीं कर पाए हैं। 

दो शताब्दी पहले ब्रिटेन ने ट्राफ ल्गर और नील की लड़ाई में फ्रांस को शिकस्त दी थी, जबकि उस समय जहाजों के मामले में फ्रांस ब्रिटेन पर भारी पड़ रहा था। रूस का बेड़ा 1917 में बाल्टिक सागर से लेकर सी ऑफ जापान तक जा सकता था, बावजूद इसके उसे जापान के हाथों करारी हार झेलनी पड़ी। जर्मनी ने टिरपिट्ज और बिस्मार्क जैसे शक्तिशाली लड़ाकू  जहाज बनाए थे लेकिन इनसे वह अटलांटिक सागर में अपना प्रभुत्व स्थापित नहीं कर पाया। दूसरी तरफ ब्रिटेन की नौसेना ने तीन शताब्दियों तक समुद्री क्षेत्र में अपनी ताकत का पंचम लहराया और जापान ने अमरिका जैसे शक्तिशाली देश के नौसैनिक अड्डे पर्ल हार्बर पर हमला करने में सफल रहा। यहां तक कि ऑस्ट्रेलिया ने भी कोरिया और वियतनाम की लड़ाई में अपना योगदान दिया। ये तीनों देश टापू राष्ट्र कहलाते हैं। अमेरिका की उत्तरी सीमा कनाडा से लगती है और दक्षिण में मैक्सिको से इसकी जमीनी सीमा लगती है लेकिन इसके पूर्व और पश्चिम दोनों दिशाओं में अथाह समुद्र है, जिससे यह दुनिया में सबसे बड़ी ताकतवर नौसेना रखता है।

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