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Thursday, October 22, 2020

किसने और क्यों खींचीं नाज़्का रेखाएं?

पेरू के एक पहाड़ पर दो हजार साल पहले उकेरी गई बिल्ली की एक तस्वीर सामने आने के साथ ही नाज़्का लाइंस का जिक्र एकबार फिर से शुरू हुआ है। नाज़्का लाइंस दक्षिणी पेरू के नाज़्का रेगिस्तान में खिंची ऐसी लकीरें हैं, जिनसे कई तरह के रूपाकार बने हैं। ये सभी आकृतियाँ 500 वर्ष ईसवी पूर्व से लेकर सन 500 के बीच बने हैं। इन विशाल आकार के भू-चित्रों को किसने बनाया, क्यों बनाया और कैसे बनाया, इस बात को लेकर कई तरह की अटकलें हैं। विशेषज्ञ बताते हैं कि ये नाज़्का संस्कृति की पहचान हैं। रेगिस्तानी मैदान में गहरे गड्ढे खोदकर उनमें स्थित पत्थरों को हटाया गया होगा ताकि अलग-अलग रंग की मिट्टी आसमान से नजर आए और उससे कोई रूपाकार बने। ये चित्र 500 मीटर से लेकर डेढ़ किलोमीटर की ऊँचाई से सबसे अच्छे नजर आते हैं।

ज्यादातर नाज़्का लाइनें सीधी खड़ी या पड़ी हैं। साथ ही पशुओं और पेड़ों की आकृतियाँ भी बनी हैं। इन सभी चित्रों की रेखाओं को नापा जाए, तो वे करीब 1300 किलोमीटर लम्बी हैं। इन चित्रों ने करीब 50 वर्ग किलोमीटर जगह घेरी है। इन लकीरों को खींचने के लिए 10 से 15 सेमी यानी 4 से 6 इंच गहरी रेखाएं खींची गई हैं। इनकी चौड़ाई अलग-अलग है, पर आधी से ज्यादा रेखाएं करीब एक फुट चौड़ी हैं। कई जगह इनकी चौड़ाई 6 फुट तक है। इन रेखाओं का एक उद्देश्य यह लगता है कि जमीन पर आयरन ऑक्साइड के कारण लाल रंग के पत्थर हटाकर पीली और स्लेटी रंग की जमीन को सामने लाया जाए। चूंकि इस पठारी इलाके की जलवायु खुश्क है और हवा बहुत कम चलती है, इसलिए ये लकीरें प्राकृतिक रूप से अभी तक बदस्तूर हैं। केवल मनुष्यों के आवागमन के कारण इनकी शक्लो-सूरत में फर्क आया है। यह भी सम्भव है कि कुछ लकीरें अबतक मिट चुकी हों।

नाज़्का लकीरों का पहला उल्लेख पेड्रो सिएजा डि लियोन ने 1553 में प्रकाशित अपनी किताब में किया था। उनका कहना था कि ये राह बताने वाले निशान (ट्रेल मार्कर) हैं। सन 1558 में लुइस मोंजोन ने पेरू में प्राचीन खंडहरों और सड़कों का उल्लेख किया। हालांकि ये लकीरें आसपास की पहाड़ियों से नजर आती थीं, पर 20 वीं सदी में पेरू के सैनिक और असैनिक पायलटों ने उनका पहला उल्लेख किया। सन 1927 में पेरू के पुरातात्विक विद्वान टोरिबो मेजा शैस्पे ने इन पहाड़ियों की तलहटी पर भ्रमण के दौरान इन लकीरों पर गौर किया। उसने सन 1939 में लीमा में हुए एक सम्मेलन में इनका विवरण दिया। न्यूयॉर्क के लांग आयलैंड विवि के अमेरिकी इतिहासकार पॉल कोसोक नाज़्का लकीरों का गहराई से अध्ययन किया। 1940-41 में इस सिलसिले में उन्होंने इस इलाके पर उड़ान भरने के बाद पाया कि एक आकृति पक्षी जैसी है।

अमेरिका के इस इतिहासकार के साथ बाद में इन लकीरों के उद्देश्य को समझने के कार्य में अमेरिकी पुरातत्व विज्ञानी रिचर्ड पी शीडेल और जर्मन गणितज्ञ और पुरातत्व शास्त्री मारिया रीच भी शामिल हो गए। उन्होंने कहा कि ये चिह्न अंतरिक्षीय गतिविधियों के संकेतक हैं। यानी कि किन खास अवसरों पर सूर्योदय किधर से होता है वगैरह। इतिहासकार, गणितज्ञ और पुरातत्व विज्ञानी इस काम को तबसे करते ही रहे हैं। ये लाइनें जहाँ खत्म होती हैं वहाँ लकड़ी के खूंटे जैसे उपकरण पाए गए। इनकी कार्बन डेटिंग भी की गई। इनका इस्तेमाल इन गड्ढों को खोदने के लिए किया गया होगा।

इन चिह्नों को परालौकिक रहस्यों के रूप में देखने का प्रयास भी किया गया। सन 1969 में स्विस लेखक एरिक वॉन डैनिकेन ने कहा कि प्राचीन काल के अंतरिक्ष यात्रियों ने इन्हें बनाया था। इसके बाद इक्कीसवीं सदी में परावैज्ञानिक दावों और रहस्यों की काट करने वाले अमेरिकी विद्वान जो निकेल ने हजारों साल पहले नाज़्का लोगों के पास उपलब्ध तकनीक से ऐसी आकृतियों को तैयार करके दिखाया और एरिक वॉन डैनिकेन की अवधारणा को गलत बताया। जो निकेल का कहना था कि कुछ लोगों की टीम कुछ दिन के भीतर ऐसी कृतियाँ बना सकती है।

बहरहाल अभी ऐसी आकृतियाँ और मिलती जा रही हैं। इनमें वह बिल्ली भी शामिल है, जिसका इन दिनों जिक्र हो रहा है। इन आकृतियों को लेकर धार्मिक, वैज्ञानिक, तंत्र-मंत्र और अंतरिक्ष से आने वाले लोगों तक के बारे में तमाम अवधारणाओं की कमी नहीं है।

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