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Thursday, October 8, 2020

टीआरपी की घातक प्रतिद्वंद्विता

इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की टीआरपी प्रतिद्वंद्विता ऐसे मोड़ पर पहुँच गई है, जहाँ पत्रकारिता की साख गिरनी ही गिरनी है। यह बात केवल मुम्बई में टीआरपी बटोरने के सिलसिले में पैसे के इस्तेमाल से ही जुड़ी नहीं है। सच यह है कि टीआरपी के इस वात्याचक्र के पहले केबल टीवी नेटवर्क से जुड़ने के लिए जिस तरह से पैसे का इस्तेमाल होता रहा है, वह अपने आप में बहुत खराब है। मीडिया के कारोबार में पैसे का खेल इसकी साख को डुबो रहा है।


टीआरपी के खेल के साथ-साथ मीडिया की सनसनीखेज प्रवृत्ति उसकी साख को धक्का पहुँचा रही है। चैनलों के संवाददाता मदारियों और बाजीगरों जैसी हरकतें कर रहे हैं। स्टूडियो में भारी शोर-गुल के बीच उत्तेजक बहसें हो रही हैं, जिन्हें अच्छी तरह से सुनना भी मुश्किल है।

मीडिया के तीन मंच इस दौर में सबसे ज्यादा चर्चा में हैं। पहला है मुख्यधारा का प्रिंट मीडिया, दूसरी टीवी और तीसरा सोशल मीडिया। इन तीनों की गुणवत्ता में ह्रास हुआ है। पर तीनों में एक बुनियादी फर्क है। भारत के प्रिंट मीडिया के पास करीब दो सौ साल का इतिहास है। उसके अलावा वैश्विक पत्रकारिता का करीब तीन सौ साल से ज्यादा का अनुभव है। इस लम्बे कालखंड में अखबारों ने अपने ऊपर संयम और संतुलन की कुछ मर्यादा रेखाएं खींची हैं। टीवी की पत्रकारिता अपेक्षाकृत नई है। उसके पास साख गिरने और बचाने का लम्बा अनुभव नहीं है।
विज़ुअल्स के कारण टीवी का प्रभाव दर्शक पर बहुत गहरा होता है। फिर सम्पादन और ध्वनि तथा दृश्यों के साथ छेड़छाड़ करने की सम्भावनाएं भी उसमें बहुत ज्यादा होती हैं। इतना ही काफी नहीं था। अब चैनलों की राजनीतिक प्रतिबद्धता एक नई समस्या बनकर सामने आ रही है। पत्रकार की जिम्मेदारी तथ्यों को पवित्र मानते हुए उनकी रक्षा करने की होती है। पर अब ऐसे हालात पैदा हो गए हैं, जिनसे लगता है कि पत्रकार तथ्यों के साथ जमकर छेड़छाड़ कर रहे हैं। यह किसी एक चैनल की बात नहीं है। जिसे मौका लग रहा है, वह ऐसा कर रहा है।

मीडिया के तीसरे मंच के रूप में उभर रहे सोशल मीडिया ने माहौल को और ज्यादा खराब किया है। सोशल मीडिया के मॉडरेशन की समस्या सबसे बड़ी है। उसकी वैश्विक प्रकृति है। किसी एक देश के नियम उसपर लागू नहीं होते हैं। इस मीडिया के पास प्रिंट, टीवी और रेडियो सबकी तकनीक है, पर जिम्मेदारी न्यूनतम है। बेशक इस मीडिया ने प्रिंट और टीवी के एकाधिकार को तोड़ा है और तमाम सकारात्मक कार्यों को बढ़ावा भी दिया है। यह जनता की आवाज बनकर उभरा है, पर इसके दुरुपयोग की सम्भावनाएं भी बहुत ज्यादा हैं।

सबसे बड़ा खतरा फ़ेकन्यूज़ का है। झूठी और गलत जानकारियाँ देखते ही देखते सामाजिक विद्वेष का कारण बनती हैं। हाल में फेसबुक की एक पोस्ट के कारण एक उत्तेजित भीड़ ने बेंगलुरु में आगजनी की और थाना फूँक दिया। इसके पीछे असामाजिक तत्वों का हाथ भी था, पर उत्तेजना के पीछे सोशल मीडिया की पोस्ट थी।

मीडिया की इस मारकाट पर ठंडे दिमाग से विचार करने की जरूरत है। ऐसे ही कुछ सवालों पर ओमकार चौधरी के यूट्यूब चैनल पर मेरी उनके साथ छोटी सी चर्चा हुई थी। आप ठीक समझें तो उसे देखें। यूट्यूब पर जाने के लिए लिंक पर क्लिक करें।




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