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Tuesday, August 18, 2020

श्रीलंका के बदलते हालात में भारत की भूमिका

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने श्रीलंका के राष्ट्रपति गौतबाया राजपक्षे और प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे को चुनाव में उनकी पार्टी की शानदार जीत के लिए बधाई दी है। इसी के साथ उन्होंने दोनों देशों के बीच संबंधों को और अधिक मजबूत होने का भी भरोसा जताया। मोदी ने राजपक्षे बंधुओं को एक पत्र अलग से लिखा है, जिसमें उन्होंने कहा कि हम आपके साथ सहयोग के इच्छुक हैं। यह एक सामान्य शिष्टाचार भी है और भारत-श्रीलंका के बीच की भौगोलिक परिस्थिति को देखते हुए बहुत आवश्यक भी।

लद्दाख में तनातनी बढ़ने के साथ चीन, नेपाल और पाकिस्तान की त्रयी ने भारत के सामने चुनौतियाँ खड़ी कर दी हैं। इस त्रयी ने दक्षिण एशिया में भारत के तीन मित्र देशों, बांग्लादेश, भूटान और अफगानिस्तान को भी अपने साथ जोड़ने और भारत-विरोधी मोर्चा बनाने की कोशिश भी की है। इन बातों को देखते हुए भारत सरकार अपने राजनयिक हितों की रक्षा के लिए पहले से ज्यादा सजग है।

श्रीलंका पोडुजाना पेरामुना या श्रीलंका पीपुल्स पार्टी (एसएलपीपी) के महिंदा राजपक्षे चौथी बार प्रधानमंत्री बने हैं। कुल मिलाकर श्रीलंका सरकार में तीन राजपक्षे बंधु और दो इनके बेटे शामिल हैं। हाल में हुए संसदीय चुनाव में उनकी पार्टी को दो तिहाई बहुमत से जीत मिली है। एसएलपीपी को देश की कुल 225 सीटों में से 145 पर जीत हासिल हुई, जबकि उसके नेतृत्व वाले गठबंधन को कुल 150 सीटें मिली हैं। इस चुनाव के पहले नवंबर में हुए राष्ट्रपति पद के चुनाव में इसी पार्टी के प्रत्याशी और महिंदा राजपक्षे के छोटे भाई गौतबाया राजपक्षे को विजय मिली थी। उन्होंने राष्ट्रपति बनते ही महिंदा राजपक्षे को प्रधानमंत्री पद पर नियुक्त कर दिया था।

भारत के साथ रिश्ते

सेना के पूर्व लेफ्टिनेंट कर्नल गौतबाया अपने देश में टर्मिनेटर के नाम से मशहूर हैं, क्योंकि लम्बे समय तक चले तमिल आतंकवाद को कुचलने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी। श्रीलंका के पिछले दस महीनों के इस बदलाव को देखते हुए भारत के नजरिए से दो बड़े सवाल हैं। पहला सवाल है कि श्रीलंका के तमिल नागरिकों के प्रति उनका नजरिया क्या होगा? तमिल नागरिक उन्हें किस नजरिए से देखते हैं? देश के उत्तरी तमिल इलाके का स्वायत्तता के सवाल पर उनकी भूमिका क्या होगी?

इस तमिल-प्रश्न के अलावा दूसरा सवाल है कि चीन के साथ उनके रिश्ते कैसे रहेंगे? भारत सरकार की निगाहें हिंद महासागर में चीन की आवाजाही पर रहती हैं और राजपक्षे परिवार को चीन-समर्थक माना जाता है। चीन के बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव (बीआरआई) में श्रीलंका भी शामिल है। देखना होगा कि वह किस हद तक चीन के साथ दोस्ती निभाता है।

चीनी गतिविधियाँ

अक्तूबर 2014 में जब गौतबाया अपने देश के रक्षा सचिव के रूप में भारत आए थे, तब भारत के रक्षा सलाहकार अजित डोभाल ने उन्हें चेताया था कि श्रीलंका ने चीनी युद्ध-पोतों को कोलम्बो बंदरगाह में आने दिया है, जो हमें ठीक नहीं लगता। उस वक्त राष्ट्रपति उनके भाई महिंदा राजपक्षे थे। अजित डोभाल के उस संदेश को ठीक से सुनने के बजाय श्रीलंका सरकार ने उल्टा काम किया।  उसके एक सप्ताह बाद ही चीन की पनडुब्बी चैंगझेंग-2 और युद्धपोत चैंग छिंग दाओ पाँच दिन की यात्रा पर कोलम्बो पहुँच गए।

इतना ही नहीं जनवरी 2015 में हुए राष्ट्रपति चुनाव में महिंदा राजपक्षे की पराजय के बाद उन्हें हराने वाले मैत्रीपाला सिरीसेना का दिल्ली में भव्य स्वागत किया गया था। राजपक्षे परिवार ने तब आरोप लगाया था कि भारत के एक राजनयिक ने उन्हें हराने में भूमिका निभाई थी। बहरहाल तब से अब तक काफी कुछ बदल चुका है। यहाँ तक कि उन्हें हराने वाले सिरीसेना के विचार भी बदल चुके हैं। उन्होंने भी दावा कर दिया कि उनकी हत्या की कोशिश की जा रही है और इशारा भारत की ओर कर दिया और 14 अक्तूबर, 2018 को अपनी कैबिनेट से कहा था कि भारत की अंतरराष्ट्रीय खुफिया एजेंसी रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रॉ) उनकी हत्या की साजिश रच रही है।

सिरीसेना-विक्रमासिंघे विवाद

2018-19 में श्रीलंका के भीतर जबर्दस्त राजनीतिक अस्थिरता देखने को मिली। सिरीसेना और देश के प्रधानमंत्री रानिल विक्रमासिंघे के बीच के विवाद के कारण हालात और बिगड़े। राष्ट्रपति ने प्रधानमंत्री को बर्खास्त कर दिया और महिंदा राजपक्षे को प्रधानमंत्री बना दिया। उन्हें भी वह पद छोड़ना पड़ा, पर प्रेक्षकों का कहना था कि भारत को श्रीलंका की सत्ता के उस उलट-फेर से दूर रहना चाहिए। हाँ एक बदलाव जरूर आया था। मैत्रीपाला सिरीसेना के कार्यकाल में श्रीलंका ने चीन के बजाय भारत और पश्चिमी देशों के साथ रिश्ते सुधारे थे। इसकी एक वजह थी हम्बनटोटा बंदरगाह की विफलता और उसके कारण देश पर लदा चीन का भारी कर्जा।

अब श्रीलंका में भी काफी लोग मानते हैं कि चीनी सहायता ने अंततः देश को कर्जदार बना दिया है और हमेशा के लिए देश दबाव में आ गया है। हम्बनटोटा बंदरगाह और मत्ताला राजपक्षे अंतरराष्ट्रीय एयरपोर्ट का उदाहरण सामने है। मजबूरी में हम्बनटोटा बंदरगाह चीन को 99 सील के पट्टे पर देना पड़ा है। माना जाता है कि यह बंदरगाह भारत की मदद के बगैर सफल नहीं होगा, क्योंकि इधर आने वाले ज्यादातर पोत भारत की तरफ जाते हैं। यदि भारत इस बंदरगाह का इस्तेमाल करेगा, तभी इसका फायदा श्रीलंका को मिलेगा। विशेषज्ञ मानते हैं कि श्रीलंका को चीन के साथ-साथ भारत, ओमान और सिंगापुर के निवेश की जरूरत है। इसलिए उसे एक तरफ झुकाव वाली नीतियों से बचना होगा।

अनुभवों से सीखा

महिंदा राजपक्षे एक अरसे से कहते रहे हैं कि उन्होंने भी अनुभवों से सीखा है और भारत के साथ उनके रिश्ते संतुलित रहेंगे। दूसरी तरफ भारत सरकार ने भी श्रीलंका की राजनीति में दोनों पक्षों के साथ संतुलन बरतने की कोशिश की है। राजनीतिक रैलियों में गौतबाया कहते रहे हैं कि हमारी विदेश नीति तटस्थ होगी और हम क्षेत्रीय विवादों से दूर रहेंगे। यहाँ सवाल केवल भारत का ही नहीं है, लिट्टे के क्रूर-दमन के बाद अमेरिका के साथ भी श्रीलंका के रिश्ते खराब हो गए थे। अंतरराष्ट्रीय मंचों पर जब अमेरिका ने इस मसले को उठाया, तो चीन ने श्रीलंका का साथ दिया। गौतबाया  के खिलाफ अमेरिका की अदालतों में कई मुकदमे चल रहे हैं।

पिछले साल श्रीलंका में हुए ईस्टर-संडे विस्फोटों के कारण सामाजिक ध्रुवीकरण भी हुआ है। देश में श्रीलंका फ्रीडम पार्टी (एसएलएफपी) का कमजोर हो जाना भी एक बड़ी खबर है। राजपक्षे की एसएलपीपी न केवल नई, बल्कि देश की सबसे ताकतवर पार्टी के रूप में उभरी है। यह पार्टी 2016 में ही बनी है और उसका उभार पहली बार फरवरी 2018 के स्थानीय निकाय चुनावों से देखने को मिला था। फिलहाल ऐसा लगता है कि श्रीलंका में भी राष्ट्रवादी ताकत का उभार हो रहा है और मजबूत नेता की मांग की जा रही है, जो न केवल दक्षिण एशिया के शेष देशों की प्रवृत्ति है, बल्कि वैश्विक राजनीति की बदलती दिशा है।

श्रीलंका में बीते साल हुए ईस्टर बम धमाकों के बाद वहां के कई क्षेत्रों में सांप्रदायिक हिंसा हुई थी, इसमें सिंहली समुदाय ने मुस्लिम समुदाय को काफी निशाना बनाया था। देश में 70 फीसदी सिंहली-बौद्ध आबादी है, चुनाव नतीजों को देखें तो सिंहली बहुल क्षेत्रों में राजपक्षे की पार्टी के उम्मीदवार भारी बहुमत से जीते हैं। खुद महिंदा राजपक्षे ने वोटों के मामले में नया इतिहास रचा है। इस प्रकार देश में एक ताकतवर सरकार सत्ता में आ गई है। पर यह सरकार पहले की भांति भारत-विरोध की राह पर भी नहीं चल सकती।

हिंद-प्रशांत गतिविधियाँ

हिंद महासागर क्षेत्र में गतिविधियाँ बढ़ रही हैं। भारत, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और जापान की चतुष्कोणीय सुरक्षा व्यवस्था शक्ल लेती जा रही है। ये देश केवल रक्षा-व्यवस्था पर ही जोर नहीं दे रहे हैं, बल्कि इंफ्रास्ट्रक्चर को बढ़ावा देने की योजनाओं पर भी काम कर रहे हैं। भारत ने हिंद महासागर और पूर्वी अफ्रीका के देशों के साथ राजनयिक रिश्ते मजबूत किए हैं। चीन ने मालदीव में अपने पैर जमा लिए हैं, जो अब उखड़ते नजर आ रहे हैं। फिलहाल केवल पाकिस्तान ही अरब सागर क्षेत्र में उसका महत्वपूर्ण मित्र देश है।

अब खबरें हैं कि चीन और ईरान के बीच पच्चीस वर्षीय समझौता होने जा रहा है, जिसके तहत ईरान में चीन 400 अरब डॉलर का निवेश करेगा। यह समझौता भी हुआ नहीं है, बल्कि प्रस्तावित है। यह हो जाने के बाद इसका व्यावहारिक रूप क्या होगा, इसे देखना होगा। फिलहाल हमें श्रीलंका पर ध्यान देना होगा। ईस्टर बम धमाकों और कोरोना महामारी के कारण उसकी 88 अरब डॉलर की अर्थव्यवस्था खराब हालत में है। एक डॉलर श्रीलंका के रुपये 185 रुपये के बराबर हो गया है। विकास दर 1.3 फीसदी रह गई है।  उसका विदेशी मुद्रा भंडार 6.5 अरब डॉलर ही रह गया है।

भारी निवेश

इन बातों को देखते हुए उसे भारत के साथ भी रिश्ते ठीक रखने होंगे। खबरें हैं कि चीन ने श्रीलंका में 11 अरब डॉलर के निवेश की योजना बनाई है। इसमें आठ अरब डॉलर का कर्ज शामिल है। पर अब श्रीलंका के नागरिक भी जानते हैं कि चीनी सहायता एक प्रकार का फंदा है। उधर भारत भी पहले से तैयार है और उसने जापान के साथ मिलकर श्रीलंका के विकास की कई योजनाओं को तैयार कर रखा है।

उत्तरी और दक्षिणी श्रीलंका में एक विशाल आवासीय योजना के अलावा, भारत उत्तर-मध्य प्रांत में एक बहु-जातीय स्कूल के विकास में भी शामिल है। जाफना में भारत एक सांस्कृतिक केंद्र और 3,000 रेन वॉटर हार्वेस्टिंग सिस्टम विकसित कर रहा है। उत्तरी श्रीलंका में कंकेसनथुराई हार्बर के विकास के लिए भारत ने 4.5 करोड़ डॉलर के कर्ज़ को मंज़ूरी दी है। कोलम्बो पोर्ट पर जापान के सहयोग से 50 करोड़ डॉलर के खर्च से एक कंटेनर डिपो का विकास होने वाला है। हाल में भारत के रिज़र्व बैंक ने सेंट्रल बैंक ऑफ श्रीलंका को 40 करोड़ डॉलर की मुद्रा की अदला-बदली की सुविधा दी है। इसके अलावा 1.1 अरब डॉलर के एक और मुद्रा विनिमय समझौते की रूपरेखा बन रही है।

दूसरी तरफ चीन के कार्यक्रम बहुत बड़े हैं, पर उनमें पेच हैं। भारत के कार्यक्रम जमीन पर दिखाई पड़ते हैं। अच्छी बात यह है कि इस समय दोनों देशों के बीच विवाद का कोई मसला नहीं है।

 

 

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