देश के आर्थिक-सामाजिक-सांस्कृतिक और यहाँ तक कि राजनीतिक विकास के लिए जिस बुनियादी तत्व की जरूरत है, वह है शिक्षा। शिक्षा पर विचार किए बगैर प्रगति का पहिया चल नहीं सकता। दुर्भाग्य से हम शिक्षा के बारे में गहराई से विचार करने से बचते रहे। यह बात हमारी तमाम समस्याओं के केंद्र में है। केंद्र सरकार ने 29 जुलाई को 35 साल बाद नई शिक्षा नीति पर मुहर लगाई है। अच्छी बात है कि इस नीति का आमतौर पर स्वागत हुआ है, वर्ना अक्सर प्रतिक्रियाएं राजनीतिक चाशनी में डूबी हुई होती हैं।
लगभग दो लाख सुझाव मिलने के बाद नई शिक्षा नीति को तैयार किया गया है। इसके तहत अब 10+2 को 5+3+3+4 के फॉर्मेट में बदला जाएगा। इस नीति पर व्यापक विचार-विमर्श करने के पहले उसे को अच्छी तरह से समझने की जरूरत है। देश के रूपांतरण की पहली और बुनियादी शर्त है शिक्षा। इसके पहियों पर सवार होकर ही हम आगे बढ़ पाएंगे। हालांकि अभी इस नीति का प्रारूप ही सामने आया है। सभी दस्तावेज अभी उपलब्ध नहीं हैं, पर इस संकल्पना से भरोसा पैदा हो रहा है कि हम सही दिशा में जा रहे हैं। जिस वृहत अवधारणा को यह नीति दर्शा रही है, वह उत्साहवर्धक है।
जिस वर्तमान शिक्षा नीति को बदला जा रहा है उसका प्रारूप 1986 में तैयार किया गया था। हालांकि उसमें सन 1992 में कुछ बदलाव किए गए, पर बदलते समय के साथ उसमें जो बदलाव होने चाहिए थे, वे पीछे रह गए। सन 1992 में नई आर्थिक नीति लागू की जा रही थी और तकनीकी तथा आर्थिक बदलावों की शुरुआत हो ही रही थी। उस परिदृश्य में जितनी कल्पना की जा सकती थी, वही उस नीति में शामिल किया गया। बहरहाल उस परिवर्तन के डेढ़ दशक बाद देश ने सार्वभौमिक शिक्षा की दिशा में एक बड़ा कदम उठाया। 86वें संशोधन अधिनियम-2002 के तहत संविधान में अनुच्छेद 21-क जोड़ा गया, जिसके तहत देश ने 6 से 14 साल के बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार प्रदान किया। इसके बाद अनिवार्य शिक्षा के अधिनियम-2009 के मार्फत यह अधिकार 1 अप्रेल 2010 से देश के बच्चों को प्राप्त हुआ है।
इस अधिकार को और व्यापक स्तर पर शिक्षा में बदलावों को किस प्रकार लागू किया जाएगा, इसके लिए जिस नीति और रणनीति की जरूरत है, वह अब जाकर तैयार हो पाई है। पिछले पाँच साल में पहले टीएसआर सुब्रह्मण्यन समिति ने 2016 में और पिछले साल के कस्तूरीरंगन समिति ने अपनी सिफारिशें दीं। अच्छी बात यह है कि इस नीति की आमतौर पर सभी ने तारीफ की है और राजनीति का शिकार होने नहीं दिया है। इस नीति में यह स्वीकार किया गया है कि बच्चों की बुनियाद बेहतर होनी चाहिए।
शिक्षा-केन्द्रित भारतीय एनजीओ ‘प्रथम’ की सालाना रिपोर्टों ‘असर’ से पता लगता है कि शिक्षा का अधिकार कानून (आरटीई) लागू होने के बाद स्कूलों की संख्या और उनमें दाखिले में भारी बढ़ोतरी जरूर हुई है, पर पढ़ाई-लिखाई की गुणवत्ता गिरी है। सर्वे के अनुसार सरकारी स्कूलों पर आम जनता का विश्वास घट रहा है। आरटीई का सकारात्मक असर है कि 6-14 वर्ष उम्र वर्ग के बच्चों के स्कूल में दाखिले में भारी वृद्धि हुई है, पर बच्चे स्कूलों में साधारण कौशल भी नहीं सीख पा रहे हैं।
अब शिक्षा को ज्यादा प्रयोग-मूलक, व्यापक, नवाचार-मुखी और आनंददायक बनाने के प्रयासों को बढ़ावा देने का विचार नई नीति में शामिल किया गया है। समय के साथ हमारी शिक्षा में विज्ञान और मानविकी से जुड़े विषयों के बीच में एक दीवार बन गई है। उसे तोड़ने की कोशिश भी की गई है। इस नीति की मंशा है कि केवल एक स्ट्रीम की शिक्षा देने वाली संस्थाएं खत्म की जाएं और सन 2040 तक देश की सभी शिक्षा संस्थाएं मल्टी-डिसिप्लिन यानी विविध-विषयों की शिक्षा दें। कुछ आईआईटी में इंजीनियरी के अलावा मानविकी, कला और चिकित्सा विज्ञान की शिक्षा देने की व्यवस्था शुरू भी हो चुकी है। विचार यह है कि इंजीनियर को केवल इमारत बनाने की जानकारी देना ही पर्याप्त नहीं है। उसे पर्यावरण, मनुष्य के स्वभाव, उसके व्यवहार वगैरह का ज्ञान भी होना चाहिए। यदि उसकी इच्छा सीखने की है, तो यह अड़चन नहीं होनी चाहिए कि उसके पास साइंस की डिग्री है या आर्ट्स की।
नई शिक्षा नीति में स्कूली शिक्षा की नई संरचना सबसे महत्वपूर्ण है, जिसे 5+3+3 के फॉर्मेट में तब्दील कर दिया गया है। भारतीय भाषाओं के माध्यम से पढ़ाई पर जोर दिया गया है, ताकि बच्चों की मौलिकता को प्रोत्साहन मिले। इसमें बस्ते का वजन कम करने और प्रयोगों के आधार पर सीखने पर जोर दिया गया है। ग्यारह साल की इस स्कूली शिक्षा के बाद चार-वर्षीय स्नातक शिक्षा की अवधारणा इसमें दी गई है। ऐसे एक कोर्स की शुरुआत छह साल पहले दिल्ली विवि ने की थी, जिसे बाद में रोक दिया गया।
अब जो प्रस्ताव है उसके अनुसार छात्र पहले साल के बाद कोर्स को छोड़ेगा, तो उसे सर्टिफिकेट मिलेगा, दूसरे साल के बाद डिप्लोमा, तीसरे साल के बाद बैचलर की डिग्री। चौथे साल के कोर्स में शोध कार्य शामिल होगा, जो उसके आगे के शोध का आधार बनेगा। एमफिल के कोर्स को समाप्त किया जा रहा है, जो अभी पीएचडी के लिए अनिवार्य था। इसमें प्रयास किया गया है कि छात्र के पास हर तरह के विषयों को पढ़ने का विकल्प बना रहे।
उच्चतर शिक्षा के क्षेत्र में भारतीय शिक्षा को वैश्विक शिक्षा से जोड़ने के विचार से दुनिया के सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों के कैम्पस भारत में स्थापित करने लिए द्वार भी खोले जा रहे हैं। भारतीय विवि भी विदेश जाकर कैम्पस कायम कर सकें, यह भी सुनिश्चित किया जा रहा है। शैक्षिक नियामक संस्थाओं के दोहराव को रोकने के लिए विवि अनुदान आयोग और अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद (एआईसीटीई) को भंग किया जा रहा है।
यह नीति शिक्षा की व्यापक दिशा को बता रही है, अनिवार्यता को नहीं। देश में शिक्षा समवर्ती सूची का विषय है, इसलिए इसे लागू करने में राज्यों की भूमिका भी है। इसे पूरी तरह लागू करने के लिए 2040 तक के समय का अनुमान लगाया गया है साथ ही शिक्षा के लिए जीडीपी के छह फीसदी परिव्यय का लक्ष्य रखा है। विडंबना है कि यह परिव्यय ढाई फीसदी के आसपास रहता है। यह कैसे बढ़ेगा, इसपर हमें अब विचार करना होगा।
हरिभूमि में प्रकाशित
नई शिक्षा-नीति क्या है?
लगभग दो लाख सुझाव मिलने के बाद नई शिक्षा नीति को तैयार किया गया है। इसके तहत अब 10+2 को 5+3+3+4 के फॉर्मेट में बदला जाएगा। इस नीति पर व्यापक विचार-विमर्श करने के पहले उसे को अच्छी तरह से समझने की जरूरत है। देश के रूपांतरण की पहली और बुनियादी शर्त है शिक्षा। इसके पहियों पर सवार होकर ही हम आगे बढ़ पाएंगे। हालांकि अभी इस नीति का प्रारूप ही सामने आया है। सभी दस्तावेज अभी उपलब्ध नहीं हैं, पर इस संकल्पना से भरोसा पैदा हो रहा है कि हम सही दिशा में जा रहे हैं। जिस वृहत अवधारणा को यह नीति दर्शा रही है, वह उत्साहवर्धक है।
जिस वर्तमान शिक्षा नीति को बदला जा रहा है उसका प्रारूप 1986 में तैयार किया गया था। हालांकि उसमें सन 1992 में कुछ बदलाव किए गए, पर बदलते समय के साथ उसमें जो बदलाव होने चाहिए थे, वे पीछे रह गए। सन 1992 में नई आर्थिक नीति लागू की जा रही थी और तकनीकी तथा आर्थिक बदलावों की शुरुआत हो ही रही थी। उस परिदृश्य में जितनी कल्पना की जा सकती थी, वही उस नीति में शामिल किया गया। बहरहाल उस परिवर्तन के डेढ़ दशक बाद देश ने सार्वभौमिक शिक्षा की दिशा में एक बड़ा कदम उठाया। 86वें संशोधन अधिनियम-2002 के तहत संविधान में अनुच्छेद 21-क जोड़ा गया, जिसके तहत देश ने 6 से 14 साल के बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार प्रदान किया। इसके बाद अनिवार्य शिक्षा के अधिनियम-2009 के मार्फत यह अधिकार 1 अप्रेल 2010 से देश के बच्चों को प्राप्त हुआ है।
इस अधिकार को और व्यापक स्तर पर शिक्षा में बदलावों को किस प्रकार लागू किया जाएगा, इसके लिए जिस नीति और रणनीति की जरूरत है, वह अब जाकर तैयार हो पाई है। पिछले पाँच साल में पहले टीएसआर सुब्रह्मण्यन समिति ने 2016 में और पिछले साल के कस्तूरीरंगन समिति ने अपनी सिफारिशें दीं। अच्छी बात यह है कि इस नीति की आमतौर पर सभी ने तारीफ की है और राजनीति का शिकार होने नहीं दिया है। इस नीति में यह स्वीकार किया गया है कि बच्चों की बुनियाद बेहतर होनी चाहिए।
शिक्षा-केन्द्रित भारतीय एनजीओ ‘प्रथम’ की सालाना रिपोर्टों ‘असर’ से पता लगता है कि शिक्षा का अधिकार कानून (आरटीई) लागू होने के बाद स्कूलों की संख्या और उनमें दाखिले में भारी बढ़ोतरी जरूर हुई है, पर पढ़ाई-लिखाई की गुणवत्ता गिरी है। सर्वे के अनुसार सरकारी स्कूलों पर आम जनता का विश्वास घट रहा है। आरटीई का सकारात्मक असर है कि 6-14 वर्ष उम्र वर्ग के बच्चों के स्कूल में दाखिले में भारी वृद्धि हुई है, पर बच्चे स्कूलों में साधारण कौशल भी नहीं सीख पा रहे हैं।
अब शिक्षा को ज्यादा प्रयोग-मूलक, व्यापक, नवाचार-मुखी और आनंददायक बनाने के प्रयासों को बढ़ावा देने का विचार नई नीति में शामिल किया गया है। समय के साथ हमारी शिक्षा में विज्ञान और मानविकी से जुड़े विषयों के बीच में एक दीवार बन गई है। उसे तोड़ने की कोशिश भी की गई है। इस नीति की मंशा है कि केवल एक स्ट्रीम की शिक्षा देने वाली संस्थाएं खत्म की जाएं और सन 2040 तक देश की सभी शिक्षा संस्थाएं मल्टी-डिसिप्लिन यानी विविध-विषयों की शिक्षा दें। कुछ आईआईटी में इंजीनियरी के अलावा मानविकी, कला और चिकित्सा विज्ञान की शिक्षा देने की व्यवस्था शुरू भी हो चुकी है। विचार यह है कि इंजीनियर को केवल इमारत बनाने की जानकारी देना ही पर्याप्त नहीं है। उसे पर्यावरण, मनुष्य के स्वभाव, उसके व्यवहार वगैरह का ज्ञान भी होना चाहिए। यदि उसकी इच्छा सीखने की है, तो यह अड़चन नहीं होनी चाहिए कि उसके पास साइंस की डिग्री है या आर्ट्स की।
नई शिक्षा नीति में स्कूली शिक्षा की नई संरचना सबसे महत्वपूर्ण है, जिसे 5+3+3 के फॉर्मेट में तब्दील कर दिया गया है। भारतीय भाषाओं के माध्यम से पढ़ाई पर जोर दिया गया है, ताकि बच्चों की मौलिकता को प्रोत्साहन मिले। इसमें बस्ते का वजन कम करने और प्रयोगों के आधार पर सीखने पर जोर दिया गया है। ग्यारह साल की इस स्कूली शिक्षा के बाद चार-वर्षीय स्नातक शिक्षा की अवधारणा इसमें दी गई है। ऐसे एक कोर्स की शुरुआत छह साल पहले दिल्ली विवि ने की थी, जिसे बाद में रोक दिया गया।
अब जो प्रस्ताव है उसके अनुसार छात्र पहले साल के बाद कोर्स को छोड़ेगा, तो उसे सर्टिफिकेट मिलेगा, दूसरे साल के बाद डिप्लोमा, तीसरे साल के बाद बैचलर की डिग्री। चौथे साल के कोर्स में शोध कार्य शामिल होगा, जो उसके आगे के शोध का आधार बनेगा। एमफिल के कोर्स को समाप्त किया जा रहा है, जो अभी पीएचडी के लिए अनिवार्य था। इसमें प्रयास किया गया है कि छात्र के पास हर तरह के विषयों को पढ़ने का विकल्प बना रहे।
उच्चतर शिक्षा के क्षेत्र में भारतीय शिक्षा को वैश्विक शिक्षा से जोड़ने के विचार से दुनिया के सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों के कैम्पस भारत में स्थापित करने लिए द्वार भी खोले जा रहे हैं। भारतीय विवि भी विदेश जाकर कैम्पस कायम कर सकें, यह भी सुनिश्चित किया जा रहा है। शैक्षिक नियामक संस्थाओं के दोहराव को रोकने के लिए विवि अनुदान आयोग और अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद (एआईसीटीई) को भंग किया जा रहा है।
यह नीति शिक्षा की व्यापक दिशा को बता रही है, अनिवार्यता को नहीं। देश में शिक्षा समवर्ती सूची का विषय है, इसलिए इसे लागू करने में राज्यों की भूमिका भी है। इसे पूरी तरह लागू करने के लिए 2040 तक के समय का अनुमान लगाया गया है साथ ही शिक्षा के लिए जीडीपी के छह फीसदी परिव्यय का लक्ष्य रखा है। विडंबना है कि यह परिव्यय ढाई फीसदी के आसपास रहता है। यह कैसे बढ़ेगा, इसपर हमें अब विचार करना होगा।
हरिभूमि में प्रकाशित
नई शिक्षा-नीति क्या है?
जमीनी हकीकतों पर चिपकाये गये चाँदी के वर्क।
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