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Saturday, June 27, 2020

चीन का धन-बल और छल-बल


इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने हाल में लिखा है कि चीन शायद काफी समृद्ध और ताकतवर हो जाए, पर उस तरह से दोस्तों और प्रशंसकों को आकर्षित नहीं कर पाएगा, जिस तरह से अमेरिका ने किया है। उन्होंने हारवर्ड के विद्वान जोसफ नाय का हवाला देते हुए लिखा कि चीन के पास 'हार्ड पावर' तो है, लेकिन 'सॉफ्ट पावर' नहीं है। अपने वर्चस्व को कायम करने के लिए वह संकीर्ण तरीकों का इस्तेमाल करता है। इसीलिए उससे मुकाबला काफी जटिल है।

सोशल मीडिया पर इन दिनों एक अमेरिकी पत्रकार जोशुआ फिलिप का वीडियो वायरल हुआ है। उन्होंने बताया है कि चीन तीन रणनीतियों का सहारा लेता है। मनोवैज्ञानिक, मीडिया और सांविधानिक व्यवस्था की यह ‘तीन युद्ध’ रणनीति है। वह अपने प्रतिस्पर्धी देशों को उनके ही आदर्शों की रस्सी से बाँध देता है। उसके नागरिकों के पास अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं है। प्रतिस्पर्धी देशों में है। वह इसके सहारे लोकतांत्रिक देशों में अराजकता पैदा करना चाहता है। अमेरिका के ‘एंटीफा’ आंदोलन के पीछे कौन है? दावे के साथ कुछ नहीं कहा जा सकता, पर किसी रोज परोक्ष रूप से चीनी कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े किसी समूह का हाथ दिखाई पड़े, तो विस्मय नहीं होना चाहिए। यों भी चीन को हांगकांग के आंदोलन में अमेरिकी हाथ नजर आता है, इसलिए बदला तो बनता है। 
हमारी व्यवस्था के छिद्र

चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने हमारे जैसे देशों के छिद्र खोज लिए हैं। आपके यहाँ वाणी की स्वतंत्रता है, तो वह व्यवस्था विरोधी आंदोलनों को हवा देगा। आपकी न्याय व्यवस्था का सहारा लेकर आपको कठघरे में खड़ा किया जाएगा। आपके मीडिया की मदद लेगा। आपका बौद्धिक वर्ग उसके एजेंटों का काम करेगा। ट्विटर, फेसबुक और यूट्यूब जैसे सोशल मीडिया को चीन में घुसने नहीं दिया गया है, पर इनमें चीन समर्थक हैंडलों की भरमार है। इसके लिए सैकड़ों-हजारों लोगों को भरती किया गया है।

दुनिया के कम्युनिस्ट कहते रहे हैं, ‘पूँजीवाद हमें वह रस्सी बनाकर बेचेगा, जिसके सहारे हम उसे लटकाकर फाँसी देंगे।’ यानी पूँजीवाद की समाप्ति के उपकरण उसके भीतर ही मौजूद हैं। चालीस के दशक में स्पेन के गृहयुद्ध से निकली रणनीति है ‘फिफ्थ कॉलम’, आपके घर में घुसकर बैठा शत्रु या ‘घर के भेदी।’

अपनी बढ़ी हुई आर्थिक सामर्थ्य के सहारे चीन ने छोटे-छोटे देशों में प्रभुत्व स्थापित कर लिया है। बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव (बीआरआई) इसमें मददगार है। जिन देशों में सड़कें, बिजलीघर, रेल लाइनें और दूसरे कार्यक्रम शुरू हो रहे हैं, उन्हें दिखाकर राजनेता विकास की तस्वीर खींच रहे हैं। चीन को ठेके मिल रहे हैं। उसके लोगों को काम मिल रहा है और उसकी सामग्री का निर्यात हो रहा है। स्थानीय राजनेताओं और सरकारी अफसरों को घूस देकर वह अपने प्रभाव में कर लेता है।

विकासशील देशों में घुसपैठ

अमेरिकी थिंक टैंक ब्रुकिंग्स की एक रिपोर्ट के अनुसार सन 2012 में शी चिनफिंग के राष्ट्रपति बनने के बाद से उसकी वैश्विक महत्वाकांक्षा ने नया रूप धारण किया है। कम्युनिस्ट पार्टी ने पूँजी और सूचना माध्यमों को अपना हथियार बनाया है। बीआरआई के मार्फत भारी मात्रा में स्टील और अल्युमिनियम के निर्यात का काम शुरू हुआ है। वह दूसरे देशों में केवल पूँजी निवेश ही नहीं करता, स्थानीय राजनीति में हस्तक्षेप भी करता है। श्रीलंका, मालदीव, पाकिस्तान और नेपाल इसके उदाहरण हैं। सेशेल्स में भारतीय सैनिक अड्डे की स्थापना के विरोध में वहाँ के विरोधी दलों ने अभियान चलाया, जो चीन से प्रेरित था।

नेपाल में प्रधानमंत्री केपी ओली की सरकार बचाने में उसने भूमिका निभाई। एशिया और अफ्रीका के राजनीतिक दलों के साथ चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने सीधे संबंध बनाए हैं। वे ट्रेनिंग प्रोग्राम और कार्यशालाएं चलाते हैं, जैसी हाल में नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी के साथ संचालित की गई। अफ्रीकी देशों में चीन के पत्रकार प्रशिक्षण कार्यक्रम चलते हैं। उनके पत्रकार चीन यात्रा पर जाते हैं।

चीन को प्लेटिनम, कोबाल्ट, मैग्नीज़ और यूरेनियम जैसे खनिज और कच्चे माल के लिए और भविष्य में मशीनरी वगैरह के निर्यात के लिए अफ्रीका की जरूरत है। सम्पूर्ण विश्व का करीब 90 फीसदी प्लेटिनम और कोबाल्ट, करीब 50 फीसदी सोना, दो तिहाई मैग्नीज़ और 35 फीसदी यूरेनियम अफ्रीका में है। दुनिया का 75 फीसदी कोल्टान अफ्रीका में है, जो मोबाइल फोन तथा अन्य इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों में लगता है। अफ्रीका के कई देशों में चीन रेल लाइनें बिछा रहा है। इन देशों में या इनके आसपास वह अपनी सैनिक उपस्थिति भी बढ़ा रहा है।

विकसित देशों में प्रवेश


सन 2016 के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में रूसी हस्तक्षेप की खबरें थीं, पर चीनी हस्तक्षेप का विवरण कम मिलता है। चीन छिपकर और गहराई से व्यवस्था में घुसपैठ करता है। जर्मन थिंक टैंक मैरिक्स (मर्केटर इंस्टीट्यूट ऑव चायना स्टडीज़ और जीपीपीआई (ग्लोबल पब्लिक पॉलिसी इंस्टीट्यूट) की एक रिपोर्ट के अनुसार चीन का तरीका राष्ट्रीय नीतियों से जुड़ी विभिन्न संस्थाओं, संस्थानों, व्यक्तियों और नेताओं को प्रभावित करने का होता है।

रिपोर्ट में अमेरिकी सीनेटर स्टीव डेंस और ऑस्ट्रेलिया के पूर्व सीनेटर सैम डैस्टायरी का उल्लेख किया, जिन्हें चीनी दानदाताओं ने पैसा दिया। इस रिपोर्ट के अनुसार चीन ने पत्रकारीय सूचना को तोड़ने-मरोड़ने पर काफी पैसा लगाया है। वक्त जरूरत दबे हुए देशों से राजनीतिक समर्थन हासिल किया। रुकावट बनने वालों के अपहरणों, प्रताड़नाओं और देश-निकाले का सहारा भी लिया गया। वह हर कीमत पर अपना दबदबा चाहता है।

चीन का सर्विलांस सिस्टम अपने देश में तो काम करता है, विदेश में भी उसका विस्तार हो रहा है। एक रिपोर्ट के अनुसार 18 देशों में आर्थिक समझौतों की आड़ में उसकी दूरसंचार कंपनियों का जाल स्थापित हो गया है। इनमें जिम्बाब्वे, उज्बेकिस्तान, पाकिस्तान, केन्या और यूएई जैसे देश शामिल हैं। थाईलैंड भी इनमें शामिल है। इथोपिया का पूरा नेटवर्क अब चीन के पास है।

विश्वविद्यालयों में पैठ

इसी फरवरी की खबर है। अमेरिकी विश्वविद्यालयों को मिलने वाले चीनी दान और तोहफों की संख्या बढ़ती जा रही है। सन 2013 से अबतक करीब एक अरब डॉलर के तोहफे इन शिक्षा संस्थानों को मिल चुके हैं। अमेरिका के 115 कॉलेजों को चीन ने पैसा दिया है। इनमें सबसे ज्यादा पैसा हारवर्ड विवि को 9.37 करोड़ डॉलर (करीब 650 करोड़ रुपये) मिला। सदर्न कैलिफोर्निया विवि और पेंसिल्वेनिया विवि का स्थान दूसरा और तीसरा रहा। यह मामला तब ज्यादा उछला जब हारवर्ड विवि के केमिस्ट्री के एक प्रोफेसर साहब चीन से मिले पैसे का विवरण छिपाने के आरोप में गिरफ्तार किए गए।

विश्वविद्यालयों को दान मिलने में हैरत की बात नहीं है, पर विश्वविद्यालय से जुड़े बौद्धिक वर्ग की राजनीतिक भूमिका को लेकर संशय होता ही है। शिक्षा और शोध के राजनीतिक निहितार्थ के अलावा बौद्धिक संपदा की चोरी के भी अनेक प्रकरण हैं। यहाँ तक कि कोविड-19 के वायरस को भी की बौद्धिक संपदा की चोरी के साथ जोड़ा गया है। चीन के पास जो उच्चस्तरीय तकनीक है, उसमें से काफी या तो चोरी की है या रिवर्स इंजीनियरी की देन है।

झपटा हुआ रसूख

धन-बल और छल-बल से वैश्विक राजनीति में चीन ने अपना रसूख बड़ी तेजी से स्थापित किया है। जनसंख्या के अनुपात और लोकतांत्रिक व्यवस्था को देखते हुए भारत को जो स्थान मिलना चाहिए, उससे हम वंचित हैं। चीन संरा सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य है। हमें स्थायी सदस्यता देने का विरोधी भी। उसकी कोशिश है कि न्यूयॉर्क स्थित संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय के बाद एक दफ्तर चीन में भी स्थापित किया जाए। चीन ने हाल में अमेरिकी डॉलर के मुकाबले अपनी मुद्रा को वैश्विक मुद्रा बनाने की मुहिम भी छेड़ी है।

हाल में चीन ने भारतीय कंपनियों के अधिग्रहण की कोशिशें तेज की हैं। इसे लेकर भारत सरकार की चिंताएं बढ़ी हैं। पैसे की ताकत देश की व्यवस्था के भीतर घुसने का मौका देती है। अमेरिकी थिंकटैंक कौंसिल ऑन फॉरेन रिलेशंस की विशेषज्ञ एलिसा आयर्स ने हाल में लिखा है कि चीनी प्रभाव को रोकना है, तो उसके पूँजी निवेश पर नजर रखनी चाहिए। वैसे ही जो काम अमेरिका में कमेटी ऑन फॉरेन इनवेस्टमेंट (सीएफआईयूएस) करती है। हाल में भारत सरकार ने पड़ोसी देशों से होने वाले निवेश की प्रक्रिया पर पुनर्विचार शुरू किया है। टेलीकॉम सेक्टर में उसकी तकनीक को रोकने की कोशिशें शुरू हुई हैं। शायद 5-जी कार्यक्रम में चीनी तकनीक पर रोक लगे।

चीनी पूँजी कितने रास्तों से देश में आती है, इसका पता लगाना आसान नहीं है। अमेरिकी रिसर्च ग्रुप ब्रुकिंग्स के एक पेपर में अनंत कृष्णन ने लिखा है कि प्रत्यक्ष निवेश के अलावा परोक्ष निवेश भी होता है। उदाहरण के लिए चीन की दूरसंचार कंपनी शाओमी ने सिंगापुर स्थित अपनी सहायक कंपनी की ओर से 50.4 करोड़ (3,500 करोड़ रुपये) का जो निवेश किया, उसका जिक्र सरकारी दस्तावेजों में नहीं होगा। पूँजी प्रवाह के बाद एक और खतरा कम्प्यूटर हैकिंग का है। अर्थव्यवस्था ऑनलाइन हो रही है, ऐसे में सायबर सुरक्षा बेहद जरूरी है।





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