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Saturday, June 20, 2020

कुछ ज्यादा ही जोश में है चीनी पहलवान


यह मध्यांतर है, अंत नहीं। भारत-चीन टकराव का फौरी तौर पर समाधान निकल भी जाए, पर यह पूरा समाधान नहीं होगा। यह दो प्राचीन सभ्यताओं की प्रतिस्पर्धा है, जिसकी बुनियाद में हजारों साल पुराने प्रसंग हैं। दूर से इसमें पाकिस्तान हमें दिखाई नहीं पड़ रहा है, पर वह है। वह भी हमारे ही अंतर्विरोधों की देन है। साजिश में नेपाल भी शामिल है। गलवान में जो हुआ, उसके पीछे चीन की हांगकांग, ताइवान, वियतनाम और जापान से जुड़ी प्रतिस्पर्धा भी काम कर रही है। लगता है कि चीनी पहलवान कुछ ज्यादा ही जोश में है और सारी दुनिया के सामने ताल ठोक रहा है। यह जोश उसे भारी पड़ेगा।

गलवान टकराव पर 6 जून की बातचीत शुरू होने के ठीक पहले चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग ने अपनी पश्चिमी थिएटर कमांड के प्रमुख के रूप में लेफ्टिनेंट जनरल शु छीलिंग को भेजा था, जो उनके सबसे विश्वस्त अधिकारी है। पता नहीं वे टकराव को टालना चाहते थे या बढ़ाना, पर टकराव के बाद दोनों देशों जो प्रतिक्रिया है, उसे देखते हुए लगता है कि फिलहाल लड़ना नहीं चाहते।

टकराव होगा, पर कहाँ?

दोनों की इस झिझक के बावजूद ऐसे विशेषज्ञों की कमी नहीं, जो मानते हैं कि भारत-चीन के बीच एक बार जबर्दस्त लड़ाई होगी, जरूर होगी। युद्ध हुआ, तो न हमारे लिए अच्छा होगा और न चीन के लिए। चीन के पास साधन ज्यादा हैं, पर हम इतने कमजोर नहीं कि चुप होकर बैठ जाएं। हमारी फौजी ताकत इतनी है कि उसे गहरा नुकसान पहुँचा दे। हमारा जो होगा, सो होगा। जरूरी नहीं कि टकराव अभी हो और यह भी जरूरी नहीं कि हिमालय में हो।



दोनों देशों के बीच तीन मोर्चों पर लड़ाई है। पहला सामरिक मोर्चा, दूसरा डिप्लोमेसी और तीसरा आर्थिक, जो पहले दोनों मोर्चों को बुनियादी ताकत देता है। दोनों देशों के टकराव की बात होती है, तो हिमालय की बर्फीली पहाड़ियाँ दिमाग में आती हैं। सीमा रेखा पर विवाद हैं, पर आने वाले समय में टकराव हिंद महासागर में होगा। चीनी पोत अतीत में व्यापार के लिए दक्षिण भारत तक आते थे। पन्द्रहवीं सदी में मिंग साम्राज्य की नौसेना ने श्रीलंका में राजा अलकेश्वर को परास्त किया था। वास्को डि गामा के पहले चीनी व्यापारी झेंग हे की मालाबार यात्रा का विवरण भी इतिहास में दर्ज है। उसकी कब्र कोझीकोड में है। उसके बेड़े में 60 से ज्यादा पोत थे और 20,000 से ज्यादा लोग उनपर सवार होकर आते थे।

दूसरी तरफ भारतीय व्यापारी सुदूर चीन सागर तक की यात्रा करते थे। पूरा दक्षिण पूर्व एशिया इस सांस्कृतिक प्रतिस्पर्धा का गवाह है। पिछले साल अक्तूबर में शी चिनफिंग की यात्रा के ठीक पहले मामल्लापुरम को लेकर चर्चा थी। ईसा की पहली-दूसरी सदी से चीन के तमिलनाडु के साथ रिश्ते थे। छठी-सातवीं सदी में पल्लव राजाओं ने चीन में अपने दूत भेजे थे। सातवीं सदी में प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग इस इलाके में भी आए थे। वह सांस्कृतिक संपर्कों की बात थी, अब सामरिक स्पर्धा है।

हिंद महासागर


पिछले नवंबर में फ्रांस के नौसेना प्रमुख एडमिरल क्रिस्टोफे प्राजुक भारत आए। उन्होंने भारतीय नौसेना के प्रमुख एडमिरल करमबीर सिंह के साथ मुलाकात के बाद बताया कि अगले वर्ष से दोनों देशों की नौसेनाएं हिंद महासागर में संयुक्त रूप से गश्त लगाने का काम करेंगी। पिछले कुछ वर्षों से भारत की रक्षा-योजना के केंद्र में हिंद महासागर है। इसके दो कारण हैं। दुनिया का ज्यादातर विदेशी-व्यापार समुद्र के रास्ते से होता है। रास्तों को निर्बाध बनाने की जिम्मेदारी हमारी है। दूसरा कारण है चीन की बढ़ती उपस्थिति। उसे रोकने की जिम्मेदारी भी हमारी है। इस भूमिका का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है मलक्का की खाड़ी। चीनी पनडुब्बियाँ इसी रास्ते से हिंद महासागर में प्रवेश कर सकती हैं। उनकी पहचान वहीं हो जाए, तो फिर उनका पीछा करना आसान होगा।

हिंद-प्रशांत सुरक्षा अवधारणा के साथ अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया और भारत के बीच चतुष्कोणीय सुरक्षा संवाद भी चल रहा है। भारत और अमेरिका की नौसेनाओं बीच शुरू हुए युद्धाभ्यास मालाबार में अब जापान भी शामिल है, शायद ऑस्ट्रेलिया भी शामिल हो जाए। दूसरे विश्व युद्ध के बाद जापान ‘शत्रु देश’ घोषित हो गया। सांविधानिक व्यवस्थाओं ने उसे निष्क्रिय देश बना दिया। पर सांविधानिक बदलावों के बाद जापान अब सक्रिय रूप से इस व्यवस्था में शामिल है।

चीन को लेकर भारत के मन में अंतर्द्वंद्व है। वह खुद को किसी एक समूह के साथ जोड़ना नहीं चाहता, पर हिंद प्रशांत रक्षा-व्यवस्था में भी शामिल है। दक्षिण चीन सागर की प्राकृतिक सम्पदा के दोहन को लेकर चीन और उस क्षेत्र के देशों के बीच विवाद है। वियतनाम के लिए भारत वहाँ तेल और गैस की खोज कर रहा है। चीन को इस पर आपत्ति है। भारत को अपने हितों की रक्षा के लिए दक्षिण चीन सागर तक अपनी समुद्री गश्त का दायरा बढ़ाना पड़ा है। इस काम के लिए भारत ने अमेरिका से पी-8आई विमानों को खरीदा है। हमारी नौसेना दक्षिण पूर्व में मलक्का की खाड़ी के उस सँकरे समुद्री मार्ग की निगरानी भी कर रही है, जहाँ से होकर पोत गुजरते हैं।

सैनिक अड्डे

आपको विस्मय होगा कि अपने देश से हजारों किलोमीटर दूर फ्रांस की दिलचस्पी हिंद महासागर और दक्षिण चीन सागर में क्यों है। वह सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य है और उसकी भी वैश्विक घटनाक्रम में दिलचस्पी है। एशिया और अफ्रीका के देशों में उसके सैनिक अड्डे पहले से हैं। अगस्त 2017 में हिंद महासागर से लगे उत्तरी अफ्रीका के छोटे से देश जिबूती में चीन ने अपना सैनिक अड्डा बनाया। अमेरिका, फ्रांस, इटली और जापान के अड्डे उसके पहले से थे।

चीनी महत्वाकांक्षाएं स्पष्ट हैं। नया दादा। पुराने चीनी साम्राज्य को फिर से जगाने की कामना। हाल में एक चीनी विशेषज्ञ ने दावा किया कि लद्दाख की गलवान घाटी पर हमारा कब्जा छिंग साम्राज्य के समय का है। जुलाई 2013 में चीनी भाषा के अखबार वेनवीपो में छपे एक लेख में कहा गया कि प्राचीन गौरव की वापसी के लिए चीन को अगले पचास वर्षों में छह युद्ध लड़ने ही होंगे। इनमें ताइवान, दक्षिण चीन सागर के द्वीप, बाहरी मंगोलिया और रूस में शामिल जमीन के अलावा दक्षिणी तिब्बत को वापस लेना है, जो भारत के पास है। चीन के थिंकटैंक गाहे-बगाहे भारत के तीस-चालीस टुकड़े-टुकड़े करने की योजनाएं बनाते रहते हैं।

चीन के लिए हिंद महासागर में प्रभावी शक्ति बन पाना आसान नहीं होगा। पिछले साल प्रकाशित अपनी किताब ‘द कॉस्टलिएस्ट पर्ल’ में स्वीडन के सामरिक विशेषज्ञ बर्टिल लिंटनर ने लिखा है कि चीन छोटे देशों के सामने आर्थिक मदद का चारा फेंक रहा है। चीनी कंपनियाँ जिन देशों में काम करती हैं, वहाँ अर्जित पैसे को उस देश में भी खर्च करती हैं।

विकास की कहानी

चीन ने पिछले कई दशकों में जिस तरह से अपनी विकास की कहानी लिखी है, वैसा ही कुछ भारत को भी करना होगा। चीन 15 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था है और हम अगले पाँच साल में पाँच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनना चाहते हैं। भारत ने फार्मास्युटिकल्स, चिकित्सा, आईटी और अंतरिक्ष अनुसंधान के क्षेत्र में काफी प्रगति की है, पर इतना काफी नहीं। संयोग से संधिकाल फिर बन रहा है। अपनी स्वतंत्र विदेश नीति को स्थापित करने के लिए हमें समर्थ देश बनना होगा, पर कैसे?

सत्तर के दशक में चीन ने पलटी खाई थी। देंग श्याओ पिंग ने माओवादी रास्ते को त्यागा। उसे अमेरिका का सहारा मिला। ताकत पाकर वह अमेरिका का प्रतिस्पर्धी बन बैठा है। उसे बैलेंस करने के लिए अमेरिका हमें खड़ा करना चाहता है। सन 1998 के नाभिकीय परीक्षणों के बाद दोनों देशों के संबंध बहुत खराब हो गए थे। अमेरिकी प्रतिबंधों के कारण हमारे तमाम कार्यक्रम ठप पड़ गए। राष्ट्रपति जॉर्ज बुश जूनियर के कार्यकाल में भारत-अमेरिका रक्षा-संबंधों की बुनियाद पड़ी। इसमें दो बातों की भूमिका थी। 9/11 को हुआ आतंकी हमला और चीनी बेरुखी।

उसी दौर में भारत-अमेरिका रक्षा समझौता और फिर नाभिकीय समझौता हुआ। बुश के बाद बराक ओबामा और अब डोनाल्ड ट्रंप भी उसी रणनीति पर चल रहे हैं। ये रिश्ते सामरिक कारणों से ही विकसित हुए हैं और इनके व्यापारिक आयाम विकसित होने का मौका आ रहा है। इस दौरान अमेरिका ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत को स्थायी सदस्य बनाने का समर्थन किया। नाभिकीय शक्ति से जुड़ी चार संस्थाओं की सदस्यता दिलाने का भरोसा दिलाया। ये हैं न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप, मिसाइल टेक्नोलॉजी कंट्रोल रेजीम, 41 देशों का वासेनार अरेंजमेंट और ऑस्ट्रेलिया ग्रुप।

एनएसजी की सदस्यता चीनी प्रतिरोध के नहीं मिल पाई है। सुरक्षा परिषद में भी चीनी अवरोध है। ये अवरोध और चीन की पाकिस्तान नीति हमें अमेरिका की ओर धकेल रही है। चीन जो चाहता है, उसका विपरीत होता जा रहा है।





3 comments:

  1. जनता इस सब से दूर चीनी झालर की बिक्री बंद करवाने के जुगाड़ फैला रही है।

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    1. चीनी झालर की बिक्री बढ़ने या घटने से कुछ होने वाला नहीं है.

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  2. उन्होंने सब योजनाबद्ध तरीके से किया है ये देख कर की अपने चीन की आबदी ज्यादा है तो कैसे उनके पेट भरने के लिये इंतजाम किये जायें। इन सब के दौरान हम भारतीय नैतिक रूप से गिर कर भ्रष्टाचार में लिप्त रहे।

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