जिस समय देश कोरोना वायरस से लड़ाई लड़ रहा है, उसके सामने आर्थिक मंदी और
दूसरी तरफ राष्ट्रीय सुरक्षा और विदेश नीति से जुड़े कुछ बड़े सवाल खड़े हो रहे हैं।
अगले कुछ महीनों में भारत-अमेरिका और चीन के सम्बंधों को लेकर कुछ और विवाद सामने
आएं तो विस्मय नहीं होना चाहिए। विश्व स्वास्थ्य संगठन और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा
परिषद में चीन की भूमिका को लेकर कुछ झगड़े खड़े हो ही चुके हैं। इनके समांतर
अफगानिस्तान में तालिबान के साथ हुए समझौते के निहितार्थ भी सामने आएंगे। इसमें भी
चीन और रूस की भूमिका है, जो अभी नजर नहीं आ रही है। भारत के संदर्भ में कश्मीर की
स्थिति को देखते हुए यह समझौता बेहद महत्वपूर्ण है।
इसी रोशनी में हमें नेपाल के साथ कालापानी को लेकर खड़े हुए झगड़े को भी देखना
चाहिए। यह बात इन दिनों नेपाल की राजनीति में जबर्दस्त ऊँचाइयों को छू रही है।
भारत की विदेश नीति के लिहाज से मोदी सरकार की ‘नेबरहुड फर्स्ट पॉलिसी’ के लिए यह गम्भीर चुनौती है। सन 2015 के बाद से भारत
के नेपाल के साथ रिश्ते लगातार डगमग डोल हैं। कोविड-19 की परिघटना ने वैश्विक मंच
पर जो धक्का पहुँचाया है, उसके कारण चीन ने हाल में अपनी गतिविधियों को बढ़ा दिया
है।
वैश्विक महाशक्ति के रूप में वह अपनी महत्वाकांक्षाओं को पक्के तौर पर स्थापित
करना चाहता है। दक्षिण चीन सागर में चीन और अमेरिका दोनों की बढ़ती सक्रियता में
इस बात को देखा जा सकता है। इतना ही नहीं हाल में चीनी पोतों ने हिंद महासागर में
अंडमान निकोबार के नजदीक आकर युद्धाभ्यास किया है। संयोग से जिस वक्त कालापानी को
लेकर नेपाल के राजनयिक विरोध की खबरें आईं, उसी समय सिक्किम और लद्दाख में भारतीय
और चीनी सेनाओं के बीच टकराव की खबरें भी आईं। इन्हें बड़ी घटना न भी मानें, पर
इन्हें एक साथ जोड़कर देखा जाना चाहिए।
बढ़ता चीनी प्रभाव
भारत इन दिनों लिपुलेख में जो सड़क बना रहा है, वह सन 2015 में चीन के साथ हुए
एक समझौते के तहत बनाई जा रही है। पाँच साल बाद इस विवाद का उठना कोई संकेत दे रहा
है। यह सिर्फ संयोग नहीं है कि इसी महीने चीनी राजदूत ने नेपाल के सभी राजनीतिक
दलों के नेताओं के साथ मुलाकात की है। छह महीने पहले अक्तूबर 2019 में चीनी
राष्ट्रपति शी चिनफिंग नेपाल की यात्रा पर आए थे। चीनी राष्ट्रपति की नेपाल जैसे
छोटे देश की यात्रा के राजनयिक महत्व को भी हमें समझना चाहिए। इसलिए जरूरी है कि
नेपाल के साथ खड़े हुए विवाद को जल्द से जल्द निपटाया जाए।
भारत के
उत्तराखंड के सुदूर सीमांत क्षेत्र में पिछले कई महीनों से कालापानी क्षेत्र में
सीमा निर्धारण को लेकर विवाद चल रहा है, जो पिछले हफ्ते कैलाश मानसरोवर की ओर जाने
वाली एक नई सड़क के निर्माण के कारण और ज्यादा भड़क गया है।वस्तुतः इसे नई सड़क
कहना भी सही नहीं है, क्योंकि यह पहले से बनी हुई है। अब केवल इसे मोटर रोड बनाया
जा रहा है। यह सड़क उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले को भारत-चीन-नेपाल सीमा पर स्थित
लिपुलेख दर्रे से जोड़ती है, जो कैलाश-मानसरोवर यात्रा का परम्परागत मार्ग है।
नेपाल का दावा है कि यह सड़क हमारी जमीन पर बनाई जा रही है।
भारतीय राजनयिकों का कहना है कि यह विवाद इतना बड़ा नहीं है, जितना दर्शाया जा
रहा है। लिपुलेख का जिक्र दोनों देशों के बीच हुई संधियों में है और भारत के
यात्री इस मार्ग से कैलाश मानसरोवर जाते रहे हैं। भारतीय सूत्रों का कहना है कि इस
मामले की मदद से नेपाल की आंतरिक राजनीति में राष्ट्रवादी भावनाएं भड़काई जा रही
हैं। माओवादी नेतृत्व की सरकार बनने के बाद से चीन की भूमिका भी बढ़ी है। इसी संदर्भ
में गत 15 मई को दिल्ली में रक्षा थिंकटैंक,
'मनोहर पर्रिकर आईडीएसए' द्वारा आयोजित एक
वेबिनार में जनरल भारत के सेनाध्यक्ष मनोज मुकुंद नरवणे ने चीन का बिना नाम लिए
कहा कि नेपाल 'किसी के इशारे' पर आपत्ति जता रहा है। उनके इस बयान पर तीखी प्रतिक्रियाएं हुईं हैं, पर इस
आयाम पर रोशनी भी पड़ी है।
सीमांकन नहीं
भारत-नेपाल के बीच करीब-करीब 97 प्रतिशत क्षेत्र का स्पष्ट सीमांकन हो चुका
है। अलबत्ता इस क्षेत्र का सीमांकन नहीं हुआ है। खासतौर से यह स्पष्ट नहीं है कि
कालापानी नदी कहाँ से निकलती है। चूंकि कई धाराएं मिलकर मुख्यधारा को बनाती हैं,
इसलिए भ्रम की स्थिति है। कालापानी स्वयं काली नदी की एक धारा है। इस क्षेत्र से
नेपाल के बड़े आर्थिक, सामरिक या सामाजिक हित नहीं जुड़े हैं।
रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने गत 8 मई को लिपुलेख पास से होकर गुजरने वाली इस
सड़क का उद्घाटन किया था। इस मार्ग पर अभी अंतिम चार किलोमीटर का काम पूरा होना
बाकी है। सड़क के उद्घाटन का समाचार मिलने के बाद नेपाल में भारत विरोधी आंदोलन भड़क
उठा। संसद में यह मामला उठाया गया है और सड़कों पर विरोध प्रदर्शन भी हो रहे हैं। प्रधानमंत्री
केपी शर्मा ओली ने एक सर्वदलीय बैठक बुलाई थी जिसमें पूर्व प्रधानमंत्रियों ने भी
हिस्सा लिया था।
सन 2014 में तय हुआ था कि भविष्य में समय-समय पर दोनों देशों के बीच विदेश
मंत्री स्तर की वार्ताएं होंगी। ये वार्ताएं हुईं नहीं। भारत के विदेश मंत्री एस
जयशंकर इन दिनों कोरोना समस्या को देखते हुए काफी व्यस्त हैं। अलबत्ता दोनों देशों
ने राजनयिक स्तर पर सम्पर्क स्थापित कर लिया है। पर इतना तय है कि प्रधानमंत्री
नरेंद्र मोदी की ‘नेबरहुड फर्स्ट’ नीति को धक्का लगा है।
इस मामले को लेकर दोनों देशों के बीच तल्खी इसी महीने की बात नहीं है। पिछले
साल अगस्त में जम्मू-कश्मीर राज्य के पुनर्गठन के सिलसिले में भारत सरकार ने गत 2 नवंबर को जो नक्शा जारी किया था, उसे लेकर नेपाल में तबसे नाराजगी व्यक्त की
जा रही है। जम्मू-कश्मीर और लद्दाख के दो केंद्र शासित प्रदेश बनाने के बाद भारत
ने यह नया नक्शा जारी किया था। उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले में 35 वर्ग किलोमीटर का कालापानी क्षेत्र है। उत्तराखंड की नेपाल से 80.5 किलोमीटर सीमा लगती है और 344 किलोमीटर चीन से। काली नदी का
उद्गम स्थल कालापानी ही है। भारत ने इस नदी को भी नए नक्शे में शामिल किया है।
उस नक्शे के जारी होने के बाद नेपाल सरकार ने आधिकारिक बयान में कहा था कि
नेपाल के पश्चिमी इलाके में स्थित कालापानी उसके देश की सीमा में है। नेपाली
मीडिया के अनुसार कालापानी नेपाल के धारचूला जिले का हिस्सा है, जबकि भारत के मानचित्र में इसे उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले का हिस्सा दिखाया
गया है। इस हिस्से को कालापानी नदी के किनारे दिखाया गया है, जो काली नदी की एक धारा है।
हल करने की कोशिशें
कालापानी गांव, नदी के जिस किनारे पर है, वह नेपाल की ओर पड़ता है। भारत इस पर
कोई दावा नहीं करता है, पर नेपाल पूरी कालापानी नदी पर
दावा करता है। भारत और नेपाल के अधिकारी सन 1998 से इस मसले को दूसरे सीमा विवादों
के साथ हल करने की कोशिश कर रहे हैं। भारत का कहना है कि नेपाल से लगी सीमा पर
भारत के नए नक्शे में कोई छेड़छाड़ नहीं की गई है।
नेपाली प्रधानमंत्री ने कहा कि हम पड़ोसी के साथ शांति से रहना चाहते हैं। हमें
किसी और की जमीन नहीं चाहिए। हमारे पड़ोसी भी हमारी जमीन से सैनिकों को वापस
बुलाएं। एक सच यह भी है कि नेपाली प्रधानमंत्री के राजनीतिक विरोधी उनपर दबाव बना
रहे हैं कि वे कालापानी के मसले पर कुछ बोल नहीं रहे हैं। इसपर ओली ने कहा, कुछ लोग इस मुद्दे का इस्तेमाल ख़ुद को हीरो और कुछ लोग ख़ुद को ज्यादा देशभक्त
दिखाने के लिए कर रहे हैं।
हालांकि नेपाल सरकार ने पहले अपनी तरफ से कोई नक्शा जारी नहीं किया। देश की राष्ट्रपति बिद्या देवी भंडारी
ने शुक्रवार 15 मई को कहा था कि सरकार अगले वित्त वर्ष में अपना नक्शा जारी करेगी। इसके बाद काठमांडू से एक समाचार पोर्टल ने खबर दी है कि वहाँ की भूमि प्रबंधन मंत्री
पद्मा अर्याल ने कहा कि हम अपना नक्शा कैबिनेट के सामने रखेंगे। अंततः नया नक्शा
कैबिनेट के सामने पेश कर भी दिया गया। नक्शा पेश करने के अलावा प्रधानमंत्री ओली ने भारत केसंदर्भ में जो बातें कहीं, वे ओछी मनोवृत्ति का परिचय देती हैं। इसके पहले 10 मई को देश की संसद में विदेश
मंत्री प्रदीप कुमार ज्ञावली ने बताया कि हमने भारत सरकार से कहा है कि वह नेपाली
सीमा के भीतर किसी भी निर्माण कार्य को न करे। साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि हम इस
विवाद का राजनयिक हल निकालना चाहते हैं।
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