पिछले मंगलवार को राष्ट्र के नाम अपने संबोधन
के माध्यम से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक पुरानी बहस को एक नए नाम से फिर से
शुरू कर दिया है। उन्होंने कहा कि कोविड-19 संकट ने हमें स्थानीय उत्पादन और
सप्लाई चेन के महत्व से परिचित कराया है। अब समय आ गया है कि हम ‘आत्मनिर्भरता’ के महत्व को स्वीकार करें। उनका
नया नारा है ‘वोकल फॉर लोकल।’ प्रधानमंत्री ने अपने इस संदेश में बीस लाख
करोड़ रुपये के एक पैकेज की घोषणा की, जिसका विवरण वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने
चार दिनों में दिया।
क्या यह पैकेज पर्याप्त है, उपयोगी है और क्या
हम इसके सहारे डांवांडोल नैया को मँझधार से निकाल पाएंगे? ऐसे तमाम सवाल हैं, पर बुनियादी सवाल है कि क्या हम इस आपदा
की घड़ी को अवसर में बदल पाएंगे, जैसाकि प्रधानमंत्री कह रहे हैं? क्या वैश्विक मंच पर भारत के उदय का समय आ गया है? दुनिया एक बड़े बदलाव के चौराहे पर खड़ी है। चीन की आर्थिक
प्रगति का रथ अब ढलान पर है। कुछ लोग पूँजीवादी व्यवस्था का ही मृत्यु लेख लिख रहे
हैं। अमेरिकी अर्थव्यवस्था का भी ह्रास हो रहा है। इस बीच जापान ने घोषणा की है कि
बड़ी संख्या में उसकी कम्पनियाँ चीन में अपना निवेश खत्म करेंगी। चीन में सबसे
ज्यादा जापानी कम्पनियों की सहायक इकाइयाँ लगी हैं। अमेरिकी कम्पनियाँ भी चीन से
हटना चाहती हैं। सवाल है कि क्या यह निवेश भारत आएगा? जिस तरह सत्तर के दशक में चीन ने दुनिया की पूँजी को अपने
यहाँ निमंत्रण दिया, क्या वैसा ही भारत के साथ अब होगा?
इन सवालों का जवाब बहुत आसान नहीं है। पूँजी
निवेश बच्चों का खेल नहीं है। निवेशक अपने हितों को अच्छी तरह देख लेने के बाद ही
निवेश करते हैं। भारत को यदि इस प्रतियोगिता में शामिल होना है, तो हमें अपनी
सामर्थ्य को स्थापित करना होगा। प्रधानमंत्री ने अपने संदेश में बताने का प्रयास
किया है कि कोरोना संकट ने हमें सिखाया कि हम अपनी सप्लाई चेन को विकसित करें।
संकट की शुरुआत में हमारे पास न तो पीपीई (स्वास्थ्यकर्मियों की सुरक्षा के लिए
पहनावा और उपकरण) पर्याप्त संख्या में थे और न टेस्टिंग किट। हम उन्हें बनाते भी
नहीं थे। पिछले तीन-चार महीनों में हमने इस क्षेत्र में जबर्दस्त प्रगति की है। सब
ठीक रहा तो शायद कोरोना पर दुनिया की पहली वैक्सीन भी भारतीय कम्पनी बाजार में उतारेगी।
यह पहला मौका नहीं है, जब मोदी सरकार ने भारत
को वैश्विक विनिर्माण क्षेत्र का हब बनाने की सम्भावनाओं को जताया है। मोदी सरकार
बनने के पहले साल ही प्रधानमंत्री ने अपने 15 अगस्त 2014 के भाषण में
‘मेड इन इंडिया’ को बढ़ावा देने के अलावा दुनिया से ‘मेक इन इंडिया’ का आह्वान
किया था। यानी दुनिया भर के उद्योगपतियों आओ, भारत में बनाओ। इस मुहिम की शुरुआत 25 सितंबर 2014 से हुई थी। यूरोप की विमान बनाने वाली कम्पनी
एयरबस, कार बनाने वाली जर्मन
कम्पनी मर्सिडीज़, कोरिया की उपभोक्ता
सामग्री बनाने वाली कम्पनी सैमसंग और जापानी कार कम्पनी होंडा के सीईओ समेत दुनिया
की तमाम कम्पनियों के सर्वोच्च अधिकारी दिल्ली आए। पिछले छह वर्षों में इस दिशा
में काफी काम हुआ। सन 2014 से पहले भारत में मोबाइल फोन बनाने का काम केवल दो
कम्पनियाँ करती थीं, आज डेढ़ सौ के आसपास हैं। इनमें एपल और सैमसंग जैसी कम्पनियाँ
शामिल हैं।
‘मेक इन इंडिया’ कार्यक्रम का सबसे बड़ा असर
हमें अब रक्षा के क्षेत्र में नजर आएगा। रक्षा-तकनीक बेहद जटिल होती है और वह
आसानी से मिलती भी नहीं। एक बार को यह तकनीक हमारे पास आ जाती है, तो उसका
इस्तेमाल कई प्रकार की उपभोक्ता सामग्रियों में भी किया जा सकता है। इसके दो पहलू हैं।
या तो हम तकनीक खुद विकसित करें या उसे हासिल करें। हम दोनों या तीनों काम कर सकते
हैं। हमारा रक्षा अनुसंधान संस्थान (डीआरडीओ) तकनीक विकसित कर रहा है, साथ ही हम
विदेशी कम्पनियों के साथ सहयोग का स्ट्रैटेजिक पार्टनर कार्यक्रम चला रहे हैं। हाल
में टाटा को इलेक्ट्रिक बस बनाने के लिए बैटरी की जिस तकनीक की जरूरत थी, वह भारत
में उपलब्ध नहीं थी। हमारे अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन ने वह तकनीक टाटा को उपलब्ध
कराई। जरूरत है कि हम ज्ञान और कौशल को बढ़ावा दें। इसके लिए हम अनुसंधान विकास के
काम से जुड़ी कम्पनियों को भी भारत में आमंत्रित कर सकते हैं।
इन बातों में सफलता तभी मिलेगी, जब हमारे पास
बेहतर आधार ढाँचा हो, कुशल कर्मी हों, कारोबार को बढ़ावा देने वाली प्रशासनिक
मशीनरी हो और काम का माहौल हो। क्या ऐसा है? चीन ने सत्तर-अस्सी के
दशक में अपनी अर्थ व्यवस्था को खोलने के पहले इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार किया था।
बुनियादी क्षेत्र यानी बिजली, तेल, गैस, पेट्रोल, परिवहन और अन्य निर्माण के अलावा सामाजिक क्षेत्र यानी
पेयजल, स्वास्थ्य और शिक्षा पर
भी हमें भारी निवेश की जरूरत है। एक मामले में हम चीन से बेहतर हैं। चीन की
अर्थव्यवस्था वैश्विक माँग पर निर्भर थी। हमारी घरेलू माँग ही काफी है। यदि हमें
वैश्विक बाजार में जगह मिल गई, तो फिर क्या कहना। भारत की निर्णय प्रक्रिया समय
लेती है। पर अब शायद हम बड़े निर्णय करने की स्थिति में आ गए हैं। मोदी ने आत्मनिर्भर
भारत के संकल्प को सिद्ध करने के लिए लैंड, लेबर, लिक्विडिटी और लॉज़ पर जोर
दिया है। बड़े पैमाने पर सुधार के लिए उन्होंने पाँच स्तम्भों का
उल्लेख किया है। इकोनॉमी, इंफ्रास्ट्रक्चर,
सिस्टम, डेमोग्राफी और डिमांड।
हमारे स्वतंत्रता आंदोलन के समय से ही 'स्वदेशी' एक अवधारणा है। पर मोदी ने
'स्वदेशी' शब्द का उल्लेख नहीं किया। उन्होंने आत्मनिर्भर बनने की बात
कही है। आज दुनिया एक गाँव जैसी है, पूरी तरह जुड़ी हुई। अलग-अलग समाजों की
समृद्धि उनके कौशल से जुड़ी है। हम किसी पर निर्भर न रहें, बल्कि दुनिया के साथ
मिलकर विकास करें। विश्व से कटकर और आधुनिक तकनीक की उपेक्षा करके भी नहीं जी
सकते। संयोग है कि आर्थिक संकटों की वजह से 1991-92 में हमारी अर्थव्यवस्था
ने दुनिया के लिए अपने दरवाज़े खोले। चीन उसके दो दशक पहले यह काम कर चुका था। कोरोना
संकट अर्थव्यवस्था को नया आयाम देने का सुझाव दे रहा है। इसके मूल में है भारतीय
उद्यमिता पर भरोसा। आशा है भारतीय कौशल वैश्विक कसौटी पर खरा उतरेगा और हम कामयाब
होंगे।
No comments:
Post a Comment