कोरोना संकट और
लॉकडाउन के बीच कई राज्यों में शराब की बिक्री शुरू होने से एक नया संकट पैदा हो
गया। हजारों-लाखों की संख्या में लोग शराब खरीदने के लिए निकल पड़े। चालीस दिन के
लॉकआउट के बाद बिक्री शुरू होने और भविष्य के अनिश्चय को देखते हुए इस भीड़ का
निकलना अस्वाभाविक नहीं था। लगभग ऐसी ही स्थिति लॉकडाउन शुरू होने के ठीक पहले
जरूरी वस्तुओं के बाजारों की थी। मार्च के अंतिम सप्ताह में दिल्ली में प्रवासी
मजदूरों के बाहर निकल आने से भी ऐसी ही स्थिति पैदा हुई थी। अनिश्चय और भ्रामक
सूचनाओं के कारण ऐसी अफरातफरी जन्म लेती है। प्रवासी मजदूरों की परेशानी और
सामान्य उपभोक्ताओं की घरेलू सामान की खरीदारी समझ में आती है, शराबियों की
अफरातफरी का मतलब क्या है?
शराबियों के नाम
पर चुटकुलों और कॉमेडी फिल्मों की भरमार है, पर वास्तव में हम नशाखोरी की सामाजिक
कीमत का हिसाब नागरिकों तक पहुँचा नहीं पाए हैं। इसके साथ सामाजिक-सांस्कृतिक मसले
जुड़े हैं। नशे की राजनीतिक भूमिका भी है। बहरहाल इस हफ्ते शराब की बिक्री रोकने
के लिए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की गई थी, जिसे शुक्रवार को
खारिज कर दिया गया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह राज्यों का नीतिगत मसला है और वे
होम डिलीवरी या ऑनलाइन व्यवस्था कर रहे हैं।
इधर दिल्ली सरकार
ने एक टोकन व्यवस्था शुरू की है, जिसके तहत खरीदार को पहले से खरीद की तारीख और
समय की सूचना दे दी जाएगी। बुनियादी तौर पर ऐसा सोशल डिस्टेंसिंग के लिए किया जा
रहा है। दिल्ली सरकार ने शराब पर टैक्स भी काफी बढ़ा दिया है, पर खरीदारों के
उत्साह में कमी नहीं है। वॉट्सएप पर इन दिनों ऐसे चुटकुलों की भरमार है, जो साबित
करते हैं कि कोरोना दौर में ध्वस्त होती अर्थव्यवस्था को शराबियों ने बचा लिया है।
शराब और पेट्रोल ये दो ऐसे उत्पाद हैं जिन पर राज्य सरकारें अपनी ज़रूरत के हिसाब
से टैक्स लगाकर सबसे ज़्यादा राजस्व वसूलती हैं। राज्यों की अर्थव्यवस्था इनसे
चलती है। अकेले उत्तर प्रदेश में सालाना 25,000 करोड़ रुपये से ज्यादा का राजस्व
शराब से आता है।
वस्तुतः यह आमदनी
नहीं, एक नए खर्च का इंतजाम है। बेंगलुरु के प्रसिद्ध मनोविज्ञान संस्थान निमहैंस
ने कई साल पहले शराबखोरी के शिकार 113 मरीजों का एक अध्ययन किया था। ये लोग हर
महीने जितना कमाते, उसका दुगना नशे पर खर्च करते थे। इसके लिए कर्जा लेते। उनका
खर्च उनके परिवार के दूसरे लोग उठाते। मसलन पत्नी, पिता, पुत्र या पुत्रियाँ।
अक्सर 14-15 साल के बच्चों को काम करना पड़ता। उधर सरकार को जो राजस्व मिल रहा था,
उसका दुगना अस्पतालों और अन्य सामाजिक सुविधाओं पर खर्च करना पड़ रहा था। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार दुनिया में 5.3 प्रतिशत मौतों के पीछे शराब
होती है। इतना ही नहीं 20 से 39 साल की उम्र के बीच होने वाली 13 फीसदी मौतों के
पीछे शराब होती है।
स्वतंत्रता के
बाद नशाबंदी हमारे राष्ट्रीय कार्यक्रम का महत्वपूर्ण हिस्सा था। संविधान के
नीति-निर्देशक तत्वों में मद्यनिषेध भी शामिल है। भारत सरकार ने कोशिश की थी कि
देश में समान रूप से मद्यनिषेध लागू किया जाए। अनुभव बताता है कि पूर्ण मद्यनिषेध
अव्यावहारिक है। आज भी कुछ राज्यों में मद्यनिषेध है, जैसे कि बिहार, परिणामतः
दूसरे अपराध बढ़ते हैं। शराब की तस्करी बढ़ती है, जहरीली शराब का चलन बढ़ता है और
मद्यनिषेध लागू कराने वाली एजेंसियों का भ्रष्टाचार बढ़ता है।
व्यक्तिगत रूप से
शराब जीवन की आवश्यकता नहीं है। खान-पान और मनोरंजन के रूप में इसकी जितनी जरूरत
है, उससे सैकड़ों गुना इसका उपभोग होता है। यह हमारे जीवन में बहुत गहराई तक
प्रवेश कर गई है। इसके आर्थिक निहितार्थों से ज्यादा इसके राजनीतिक और सांस्कृतिक
निहितार्थ हैं। भारत में चुनाव के दौरान शराब का इस्तेमाल जिस तरह से होता है, वह
बताने की जरूरत नहीं। यह सांस्कृतिक मेल-जोल का प्रतीक बन गई है। आंध्र प्रदेश,
कर्नाटक और उत्तराखंड जैसे राज्यों में जहरीली शराब से मौतों तथा परिवारों की
बदहाली बढ़ने के कारण महिलाओं ने आंदोलन छेड़े, पर हल कोई नहीं निकलता।
कानूनी शराबबंदी
इसका हल नहीं है। पिछले कुछ वर्षों में हमने महिलाओं पर होने वाली हिंसा के खिलाफ
उग्र आंदोलन देखे हैं। उन आंदोलनों की दिशा भी भटकी हुई है। शराब का सेवन और
स्त्रियों पर हिंसा मनोवृत्ति का दोष है। दोनों एक-दूसरे को प्रेरित करते हैं। बच्चे
के मन में जिस बात के लिए कुत्सा जागनी चाहिए, वह प्रेरणा बनती है। इसी हफ्ते
स्कूली बच्चों के एक सोशल मीडिया चैट की खबर आई है, जिसमें लड़के कुछ लड़कियों के
गैंगरेप की योजना बना रहे हैं। यह हमारी सांस्कृतिक-शिक्षा का दुष्परिणाम है। बच्चों
के अभिभावकों और परिवारों का दोष है। ला ट्रोब विश्वविद्यालय की इंग्रिड विल्सन और
एंजेला टैफ्ट का एक अध्ययन है कि ऑस्ट्रेलिया में यौन हिंसा के 50 फीसदी और
निकट-मित्रों पर यौन-आक्रमण करने के 73 फीसदी मामलों के पीछे शराब की भूमिका होती
है।
भारतीय संदर्भों में यह ‘बड़ा आदमी’ बनने और खुद को ‘बड़ा’ साबित करने के मानकों का दोष है। शराब कई प्रकार के अपराधों
को जन्म देती है। इसके ठेकों की आड़ में तमाम तरह के अपराध होते हैं, जिनका सीधा
रिश्ता राजनीति और प्रशासन से है। इसके साथ एक बड़ी पाखंडी संस्कृति का जन्म होता
है। हालांकि हम अपनी तमाम बीमारियों के लिए पश्चिम को दोष देते हैं, पर सच यह है
कि जैसी शराबखोरी हमारे यहाँ है, वैसी पश्चिम में नहीं है।
हाल में प्रतिष्ठित समाज-विज्ञानी प्रताप भानु मेहता ने
लिखा है कि उच्चभ्रू (इलीट) संस्कृति में शराब विचारधारा का रूप ले चुकी है।
उन्होंने लिखा है कि विदेश से वापस आने वाले मेरे ज्यादातर ‘नॉन-ड्रिंकिंग’ मित्र मानते हैं कि अमेरिका में
बगैर पिए सामाजिक सम्पर्क बनाना, मुकाबले दिल्ली के कहीं ज्यादा आसान है, जहाँ
पीना प्रगतिशीलता और न-पीना प्रतिक्रियावादी जैसा हो गया है। यह इस समस्या का
सांस्कृतिक पहलू है। गरीबों की शराबखोरी एक दूसरी समस्या की ओर इशारा करती है। यह
एक प्रकार का पलायन है। यदि हम बच्चों के सामने अच्छे संस्कारों के सुपरिणामों के
उदाहरण पेश करेंगे, तो सम्भव है, उन्हें बेहतर रास्ता समझ में आए। पर हम तो अच्छे
संस्कारी व्यक्तियों का मजाक उड़ाना चाहते हैं, उन्हें दब्बू, पिछड़ा और घटिया
साबित करना चाहते हैं। ऐसे में उन्हें शराब पीकर बड़ा आदमी बनने की प्रेरणा क्यों
नहीं मिलेगी?
सटीक विश्लेषण। खुले या बंद हो दोनों के बीच कुछ नहीं होता है। हम मध्यमार्गी हैं। गुजरात और बिहार उदाहरण हैं। लॉक डाउन के बीच जो कमायी हुई है शराब कारोबारियों की वो जगजाहिर है।
ReplyDeleteबहुत सही लिखा है, नमन है आपके लेखनी को l
ReplyDeletehttps://yourszindgi.blogspot.com/?m=0
सटीक लेखन....
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