अपनी सरकार की पहली
वर्षगाँठ के समांतर हो रही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चीन यात्रा के अनेक
निहितार्थ हैं. सरकार महंगाई, किसानों की आत्महत्याओं और बेरोजगारी की वजह से दबाव
में है वहीं वह विदेशी मोर्चे पर अपेक्षाकृत सफल है. चीन यात्रा को वह अपनी पहली
वर्षगाँठ पर शोकेस करेगी. देश के आर्थिक रूपांतरण में भी यह यात्रा मील का पत्थर
साबित हो सकती है. वैश्विक राजनीति तेजी से करवटें ले रही है. हमें एक तरफ पश्चिमी
देशों के साथ अपने रिश्तों को परिभाषित करना है वहीं चीन और रूस की विकसित होती
धुरी को भी ध्यान में रखना है.
मोदी की चीन यात्रा के ठीक
पहले राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की रूस यात्रा की ओर भी एक नज़र डालनी चाहिए. द्वितीय
विश्वयुद्ध में नाज़ी जर्मनी पर मित्र राष्ट्रों की विजय की 70वीं वर्षगाँठ के
मौके पर हुई विशाल परेड में वे विशेष अतिथि थे. भारतीय सेना का एक दस्ता भी उस परेड
में शामिल हुआ. भारत के अलावा चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग भी उस परेड में विशेष
अतिथि थे. पश्चिमी देशों का कोई बड़ा राष्ट्रीय नेता इस परेड का अतिथि नहीं था. भारतीय
सेना की टुकड़ी के अलावा चीन के एक फौजी दस्ते ने भी परेड में हिस्सा लिया. यह
पहला मौका था जब भारतीय सेना ने रूसी और चीनी सेना के साथ कबायद की.
इस परेड के दौरान उभरते ‘रूस-भारत-चीन’ त्रिकोण की तरफ
अंतरराष्ट्रीय पर्यवेक्षकों का ध्यान गया है. अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा का इस
साल 26 जनवरी की परेड में शामिल होना जहाँ एक महत्वपूर्ण घटना थी, वहीं मोदी की
चीन यात्रा दूसरी महत्वपूर्ण घटना साबित होने वाली है. चीन यात्रा के बाद वे मंगोलिया
और दक्षिण कोरिया जाएंगे. जुलाई में वे ब्रिक्स शिखर सम्मेलन में शामिल होने के
लिए रूस जाएंगे. दिसम्बर में फिर रूस जाएंगे.
अमेरिका और जापान
की कोशिश है कि भारत को रूसी-चीनी घेराबंदी से अलग रखा जाए. जबकि मॉस्को चाहता है
कि दिल्ली और पेइचिंग मतभेदों को भुलाकर सहयोगी बनें. भारत और चीन के बीच ब्रिक्स, शंघाई सहयोग संगठन और ’रूस-भारत-चीन’ जैसे मंचों पर आपस में
सहयोग बढ़ता जा रहा है. इन गर्मियों में भारत को शंघाई सहयोग संगठन में शामिल कर
लिया जाएगा.
भारत की विदेश
नीति धीमी गति से चलती है और उसमें निरंतरता रहती है. वह अचानक पलटी नहीं खाती. साथ
ही किसी खास धुरी में शामिल नहीं होती. फिलहाल इतना लगता है कि भारत सरकार आर्थिक
समीकरणों का फायदा उठाने की कोशिश करेगी. और इसके लिए क्षेत्रीय संगठनों में शामिल
होगी. पिछले हफ्ते अमेरिकी साप्ताहिक ‘टाइम’ के साथ इंटरव्यू में मोदी ने कहा कि हम चीन के
साथ सहयोग बढ़ाना चाहेंगे.
पिछले साल
सितम्बर में शी चिनफिंग की यात्रा के बाद जारी संयुक्त वक्तव्य में कहा गया था कि
अब दोनों सरकारों का ध्यान सीमा के मसलों को सुलझाने पर केंद्रित होगा. भारत-चीन
सीमा-वार्ता का अठारहवाँ दौर मार्च के महीने में दिल्ली में हुआ है. दोनों देश
चाहते हैं कि वास्तविक नियंत्रण रेखा को परिभाषित करके समाधान के दूसरे चरण की ओर
बढ़ा जाए.
दोनों के रिश्तों
में पाकिस्तान के कारण भी भ्रम पैदा होता है. मोदी-यात्रा के दौरान उससे जुड़े
सवाल भी उठेंगे. मुम्बई हमले तथा अन्य आतंकवादी गतिविधियों के बाबत भारत अपनी राय
चीन के सामने रखेगा. हाल में चीन ने पाकिस्तान में कश्मीर होते हुए ग्वादर तक एक
लम्बे राजमार्ग का समझौता किया है. भारत को इस समझौते के आर्थिक लाभ को लेकर
आपत्ति नहीं है, पर कश्मीर में निर्माण को लेकर आपत्ति है. इसी तरह भारत और चीन के
बीच स्टैपल्ड वीजा को लेकर विवाद है.
चीन एक दशक बाद
यानी 2024 के आसपास दुनिया की नम्बर एक अर्थ-व्यवस्था बन जाएगा. उसके अगले एक दशक
में भारत की अर्थ व्यवस्था भी चीन के पीछे-पीछे तेजी से प्रगति करेगी. जरूरी है कि
भारत जल्द से जल्द अपनी संवृद्धि दर को डबल डिजिट में लाए. इसके लिए भारत को पूँजी
निवेश और नवीनतम तकनीक चाहिए. साथ ही अपने राष्ट्रीय हितों की रक्षा के लिए ऐसी
नीतियाँ जो दक्षिण एशिया से प्रशांत क्षेत्र तक शांति और स्थिरता कायम करें.
पिछले साल मालदीव,
श्रीलंका और भारत की यात्रा के दौरान चीनी राष्ट्रपति ने दक्षिणी चीन सागर और हिंद
महासागर को जोड़ने वाले नौवहन सिल्क रोड के विकास पर भी चर्चा की थी. शी ने खास तौर
से दक्षिणी सिल्क रोड को पुनर्जीवित करने में अपनी दिलचस्पी दिखाई जिसे बीसीआइएम
(बांग्लादेश, चीन, म्यांमार, भारत) कॉरिडोर के नाम से जाना जाता है. संयोग से इन्हीं
परंपरागत रास्तों से भारत की कपास और मसाले दुनिया के दूसरे देशों को जाते थे.
हाल में एक चीनी
पहल ने वैश्विक आर्थिक संरचना में अमेरिकी वर्चस्व को चुनौती दी है. अक्तूबर 2014
में चीन की पहल पर एशियन इंफ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेंट बैंक (एआईआईबी) के गठन की
घोषणा की गई थी. भारत भी इसके संस्थापक सदस्यों में से एक है. वस्तुतः यह बैंक
विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और एशियाई विकास बैंक के समांतर एक नई
संस्था के रूप में सामने आया है. इसमें अमेरिका, कनाडा और जापान को छोड़ दुनिया के
ज्यादातर देशों ने सदस्य बनने की अर्जी दी है.
भारत को अपने
आधार ढाँचे के विकास के लिए तकरीबन एक लाख करोड़ डॉलर (1 ट्रिलियन) की जरूरत है जिसे विश्व बैंक और
एडीबी पूरा नहीं कर सकते हैं. इस बैंक से भारत के लिए नए विकल्प खुलेंगे. चीनी
पूँजी के निवेश के लिए दूसरे देशों के मुकाबले भारतीय अर्थ-व्यवस्था सुरक्षित और
स्थिर साबित होगी. बावजूद इसके भारत अपनी भावी रक्षा रणनीति के मद्देनज़र
अमेरिका-जापान और ऑस्ट्रेलिया के सम्पर्क में बना रहेगा. भारत अणु शक्ति चालित
विमानवाहक पोत का निर्माण अमेरिका की मदद से करना चाहता है. साथ ही वह चाहता है कि
भारत का निजी क्षेत्र पश्चिमी देशों के साथ हाई टेक्नॉलजी पर आधारित रक्षा सामग्री
के भारत में ही निर्माण के समझौते करे.
बराक ओबामा के
पहले पिछले साल जापानी प्रधानमंत्री शिंजो अबे गणतंत्र परेड में मुख्य अतिथि थे.
सन 2002 के बाद से भारत, जापान और अमेरिका
के बीच त्रिपक्षीय सामरिक संवाद चल रहा है. सन 2007 में शिंजो एबे
की पहल पर अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया और भारत के
बीच ‘क्वाड्रिलेटरल डायलॉग’ शुरू हुआ. जिस वक्त यह संवाद शुरू हुआ ऑस्ट्रेलिया में
जॉन हावर्थ प्रधानमंत्री थे. उनके बाद प्रधानमंत्री बने केविन रड, जिनके कार्यकाल में सामरिक चतुष्कोणीय संवाद की पहल धीमी
पड़ गई. लगता है अब चतुष्कोणीय संवाद फिर से शुरू होगा. रक्षा मामलों में पश्चिम
से और आर्थिक मामलों में चीन से सम्पर्क भारत की स्वतंत्र नीति का परिचायक भी है.
हमारे फैसले राष्ट्रीय हित में होने चाहिए.
आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (15.05.2015) को "दिल खोलकर हँसिए"(चर्चा अंक-1976) पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, चर्चा मंच पर आपका स्वागत है।
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