बुधवार को दो खराब खबरें एक
साथ मिलीं। राजस्थान से आए किसान गजेंद्र
सिंह की आत्महत्या और भारतीय मौसम विभाग का इस साल के मॉनसून को लेकर
पूर्वानुमान। गाँवों के लिए दोनों खबरें दहशत पैदा करने वाली हैं। हमारी 60 फीसदी फसलें
पूरी तरह बारिश के पानी पर निर्भर हैं। गजेंद्र सिंह की आत्महत्या के बारे में राय
व्यक्त करने के पहले समझना होगा कि वे हालात क्या थे जिनमें उनकी मौत हुई। क्या वे
सिर्फ धमकी देना चाहते थे? या फिर उनका इस्तेमाल किया
गया? क्या वे दुर्घटना के शिकार हुए? अफसोस इस बात का है कि मीडिया के लिए यह एक सनसनीखेज घटना
से ज्यादा बड़ी बात नहीं थी और राजनीति अपना पॉइंट स्कोर करने के लिए इस बात का इस्तेमाल करना चाहती है।
विस्मय की बात है कि जिस देश के तीन चौथाई
किसान खेती छोड़ देना चाहते हैं वहाँ इसके पीछे के कारणों पर गहरी चर्चा नहीं
होती। गाँव, गरीब और किसान को
लेकर जो बहस राजनीति और मीडिया में होनी चाहिए थी वह पीछे चली गई है। बहस है भी तो
राजनीति के कारण, जिसकी दिलचस्पी गाँव को 'वोट बैंक' बनाने के आगे नहीं जाती। उधर हमारा
सुस्त और अस्त-व्यस्त शहरीकरण भी गाँवों की बदहाली की वजह है। देश की लगभग 30
फीसदी आबादी शहरों में रह रही है। जबकि चीन में 53 फीसदी शहरों में आ गई है।
विकसित देशों में 80 से 90 फीसदी तक आबादी शहरों में रह रही है।
गाँव की समस्या क्या है? खेती की जोत छोटी
होते जाने, तकनीक का विस्तार न हो पाने, तकरीबन 60 फीसदी खेती मौसम के भरोसे होने,
फसल बीमा जैसी सुविधाएं न होने और ग्रामीण क्षेत्रों में आधारभूत सुविधाओं का
विकास न हो पाने के कारण ये समस्याएं पैदा हुईं हैं। यह हमारे विकास की समस्या है।
गाँव का जीवन दूभर होता जा रहा है। वहाँ रहने वाले जल्द से जल्द गाँव छोड़ देना
चाहते हैं। हम इस बात की अनदेखी कर रहे हैं। गाँव में जिस स्तर के पूँजी निवेश की
जरूरत है वह हुआ नहीं है। खेती की तकनीक और उपकरणों के रूपांतरण की जरूरत है। राजनीति
और मीडिया दोनों ने इस रूपांतरण की जरूरत को समझने के बजाय भावनाओं और आवेशों पर
ज्यादा ध्यान देना शुरू कर दिया है।
नेशनल सैंपल
सर्वे-2010 के सर्वे के मुताबिक देश में 15-32 वर्ष आयु वर्ग के लगभग 74 फीसदी
युवा पलायन करते हैं। पलायन के लिए बताए गए कई कारणों में से प्रमुख हैं रोज़गार, शिक्षा और शादी। तीनों के लिए मुकम्मल जगह शहर
हैं। पिछले साल मार्च में प्रकाशित सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसायटीज़
(सीएसडीएस) के एक सर्वे ने देश की आँखें खोली थीं। 18 राज्यों के 137 जिलों के
किसानों के बीच किए गए इस सर्वे में 76 फीसदी किसानों ने कहा कि हम खेती का काम
छोड़ देना चाहते हैं। 60 फीसदी किसान चाहते हैं कि उनके बच्चे शहरों में जाकर
पढ़ाई करें। सरकारें जोर-शोर से किसानों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा
करती हैं। इस सर्वे में शामिल 62 फीसदी किसानों ने कहा कि हमें ऐसी किसी योजना की
जानकारी नहीं।
बेशक हमारा समाज
खेतिहर है, पर हम ज्यादा समय तक केवल खेती के भरोसे नहीं रह सकते। हमें औद्योगिक
समाज के रूप में बदलना होगा। सन 1970 के आसपास हमारी जीडीपी में खेती का हिस्सा 43
फीसदी था। सन 1991-92 में घटकर यह 29.4 फीसदी हो गया और 2011 में 14 फीसदी। इसमें
लगातार गिरावट आएगी। मतलब यह नहीं है कि अन्न उत्पादन घट गया है, बल्कि अर्थ-व्यवस्था
में सेवा क्षेत्र, औद्योगिक उत्पादन और गैर-कृषि कारोबार बढ़ा है। यह ज्यादातर
कारोबार शहरों में केंद्रित है।
खेती हमारी ताकत
है और इस ताकत को बनाए रखने की जरूरत है। पर उसके सहारे जो काफी बड़ी जनसंख्या है
उसे वैकल्पिक रोजगार देने की जरूरत भी है। दुनिया में दूसरे नम्बर की खेती लायक
जमीन हमारे पास है। हम कई तरह की खाद्य सामग्री के उत्पादन में दुनिया के पहले या
दूसरे नम्बर पर हैं। पर प्रति एकड़ उत्पादकता में हम चीन और ब्राज़ील जैसे देशों
से पीछे हैं। हमें एक और हरित क्रांति की जरूरत है। छोटे और साधनहीन किसान की
उत्पादकता ज्यादा नहीं हो सकती। देश में उपभोक्ता कृषि उत्पाद की जो कीमत देता है
उसका बीस फीसदी ही किसान को मिलता है। शेष रकम बिचौलियों, ढुलाई, चुंगी और खराब
मौसम की भेंट चढ़ती है। इसके विपरीत यूरोप में उपभोक्ता द्वारा दी गई कीमत में से
तकरीबन 65 फीसदी तक किसान को मिलता है।
किसानों की
आत्महत्या के आँकड़ों का इस्तेमाल हमने सनसनी फैलाने में तो किया, विकल्प बताने में
नहीं। राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो के अनुसार देश में होने वाली सभी आत्महत्याओं में
किसानों का प्रतिशत 11.2 फीसदी है। अभी इसका विवेचन करना बाकी है कि क्या यह
अनुपात सामान्य है या असाधारण। क्या आत्महत्याओं का चलन नई बात है? क्या किसान पहले परेशान
नहीं था? पिछले कुछ साल से आर्थिक उदारीकरण का विरोध करने के लिए किसानों की आत्महत्या
के मामलों को उठाया गया है। और अब भूमि अधिग्रहण कानून के विरोध में भी आत्महत्या
का इस्तेमाल किया गया है।
प्रोफेसर अमर्त्य
सेन जैसे विचारकों का मत है कि खेती की ज़मीन का व्यावसायिक और औद्योगिक इस्तेमाल
रोकना आत्मघाती होगा। अलबत्ता यह देखा जाना चाहिए कि जिस कृषि भूमि का औद्योगिक
इस्तेमाल किया जा रहा है क्या उसके कारण खेती से होने वाले उत्पाद के मुकाबले
औद्योगिक उत्पाद कई गुना हो। अमर्त्य सेन की सलाह है कि जहाँ कहीं भी बेहतर
औद्योगिक उत्पादन की सम्भावनाएं हों, बाजार की जरूरत हो, अच्छे मैनेजर उपलब्ध हों
और अकुशल श्रमिकों को रोजगार मिलने की अच्छी सम्भावना हो वहाँ जमीन का गैर-कृषि
उपयोग गलत नहीं है। इस औद्योगिक विकास के कारण शिक्षा, स्वास्थ्य तथा अन्य
इंफ्रास्ट्रक्चर का विकास भी होता है।
ग्रामीण
क्षेत्रों में रहने वाले सभी लोग भूस्वामी नहीं हैं। मोटे तौर पर 60 फीसदी लोग
ग्रामीण मजदूर हैं। 28 फीसदी छोटे किसान हैं, जिनके पास 0.01 से 0.40 हेक्टेयर तक
जोतने लायक जमीन है। इस तरह से तकरीबन 12 फीसदी किसानों के पास मझोली और बड़ी जोत
लायक ज़मीन है। यह वर्ग मुखर भी है और राजनीतिक लिहाज से प्रभावशाली भी। ज्यादातर खेत
मजदूर या तो दिहाड़ी पर काम करने वाले हैं या बटाई पर खेती करने वाले। औद्योगीकरण
से इन मजदूरों के एक हिस्से को भी रोजगार मिलेगा।
यह भी सच है कि
देश में भू-माफिया भी सक्रिय है। स्पेशल इकोनॉमिक ज़ोन (सेज़) का उद्देश्य
औद्योगीकरण था। पर लोगों ने ज़मीन के बैंक बना लिए। उद्योग नहीं लगे। भूमि
अधिग्रहण कानून को लेकर भी यही चिंता है कि कहीं इसका उद्देश्य भी ज़मीन पर कब्ज़ा
करने का तो नहीं है। पर ज़मीन की कमी के कारण औद्योगिक योजनाएं रुकेंगी तब उस
इलाके के लोगों का ही नुकसान होगा। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई)
के एक सर्वे में बताया गया है कि तकरीबन एक सौ परियोजनाओं में से एक-तिहाई के
अटकने की वजह जमीन अधिग्रहण से जुड़ी दिक्कतें हैं। इन मसलों पर भी तो बात होनी
चाहिए।
No comments:
Post a Comment