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Thursday, March 26, 2015

अभिव्यक्ति पर बहस तो अब शुरू होगी

सुप्रीम कोर्ट के 66ए के बाबत फैसले के बाद यह धारा तो खत्म हो गई, पर इस विषय पर विमर्श की वह प्रक्रिया शुरू हुई है जो इसे तार्किक परिणति तक ले जाएगी। यह बहस खत्म नहीं अब शुरू हुई है। धारा 66ए के खत्म होने का मतलब यह नहीं कि किसी को कुछ भी लिख देने का लाइसेंस मिल गया है। ऐसा सम्भव भी नहीं। हमारे संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और उसकी सीमाएं अच्छी तरह परिभाषित हैं। यह संवैधानिक व्यवस्था सोशल मीडिया पर भी लागू होगी। पर उसके नियमन की जरूरत है। केंद्र सरकार ने इस मामले की संवेदनशीलता को देखते हुए इससे हाथ खींच लिया था। उसकी जिम्मेदारी है कि वह अब नियमों को स्पष्ट करने में पहल करे।


सन 2008 में 66ए को पास करते वक्त संसद ने विचार-विमर्श किया होता तो शायद यह नौबत नहीं आती। जिस वक्त इसे पेश किया जा रहा था तब कहा गया था कि इसका उद्देश्य महिलाओं को भद्दे, अश्लील मोबाइल संदेश भेजने वालों को पकड़ना था। पर हुआ क्या? विश्वविद्यालय के प्रोफेसर, लेखक, कार्टूनिस्ट, छात्र-छात्राएं और राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी तक इस कानून के दायरे में आ गए। इसका मतलब है कि कानून अपने उद्देश्य से भटक गया। न्यायमूर्ति जे चेलमेश्वर और न्यायमूर्ति आर एफ नरीमन के पीठ ने कहा, धारा 66 ए से लोगों के जानने का अधिकार सीधे तौर पर प्रभावित होता है।

अदालत की नजर में धारा की शब्दावली अस्पष्ट है जिसकी अलग-अलग व्याख्याएं की जा सकती हैं। ‘चिढ़ाने वाला’, ‘असहज करने वाला’ और ‘बेहद अपमानजनक’ जैसे शब्द अस्पष्ट हैं। कानून लागू करने वाली एजेंसियों और दूसरों के लिए इस बात पर फैसला करना कठिन होता होगा कि क्या अपमानजनक है और क्या बेहद अपमानजनक है...कोई चीज किसी एक व्यक्ति के लिए अपमानजनक हो सकती है तो दूसरे के लिए हो सकता है कि वह अपमानजनक नहीं हो।

इस धारा के रद्द होने के बाद ज्यादातर लोगों का कहना है कि यह कानून अनुचित था। मतलब यह भी नहीं है कि सोशल मीडिया पर किसी को भी अपमानित किया जा सकता है या अश्लील-अभद्र सामग्री परोसी जा सकती है। साम्प्रदायिक विद्वेष को भड़काने वाली बातें लिखीं जा सकती हैं। इसके विपरीत सूचना प्रौद्योगिकी (संशोधन) अधिनियम 2008 का उद्देश्य अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर रोक लगाना भी नहीं था। जब उसे पास किया जा रहा था तब यह सोचा नहीं गया कि इसका दुरुपयोग होगा। यह कानून सन 2000 में बना था। विषय नया था। कम्प्यूटर और इंटरनेट के दुरुपयोग के मामले सामने आने लगे थे। इसलिए कानून में समयानुकूल बदलाव करने की जरूरत महसूस की जा रही थी।

सन 2000 के कानून की धारा 66 मूल रूप में हैकिंग के अपराध के खिलाफ है। 66ए जोड़ने का उद्देश्य भद्दे संदेशों के खिलाफ कार्रवाई करने का था। इसमें असुविधा, खतरा, बाधा, अपमान, चोट, आपराधिक अवरोध, शत्रुता, नफरत आदि शामिल थे। इसमें ई-मेल और दूसरे इलेक्ट्रॉनिक माध्यम शामिल किए गए। उसके पहले ऐसे अपराधों के खिलाफ कार्रवाई करने की व्यवस्था नहीं थी। ई-मेल हैकिंग, फेक प्रोफाइल, चाइल्ड पोर्नोग्राफी वगैरह के लिए व्यवस्थाएं नहीं थीं। इन संशोधनों से कोई उल्टा असर भी हो सकता है इसपर विचार नहीं हुआ।

26 नवम्बर 2008 को मुम्बई में हुए आतंकवादी हमले के बाद देश में कई तरह के कानूनों को पास करने की हड़बड़ी में इस कानून की बारीकियों पर विचार भी नहीं हो पाया। 22 दिसम्बर 2008 को लोकसभा में यह विधेयक और तीन अन्य विधेयक केवल आधा घंटे में पास हो गए। बगैर बहस के। इसके अगले रोज राज्यसभा ने इन्हें बगैर बहस किए पास कर दिया। इन दोनों दिन महाराष्ट्र एटीएस के प्रमुख हेमंत करकरे को लेकर एआर अंतुले की एक टिप्पणी को लेकर दोनों सदनों में हंगामा हो रहा था।

अपने उद्देश्य के विपरीत यह कानून पुलिस के हाथों में चला गया। इस मुद्दे पर पहली जनहित याचिका 2012 में कानून की छात्रा श्रेया सिंघल ने दायर की थी। सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश अल्तमस कबीर की अदालत में यह मामला पहुँचा तो उन्होंने इस बात पर विस्मय व्यक्त किया कि किसी ने अभी तक इसे चुनौती क्यों नहीं दी है। यह जनहित याचिका दो लड़कियों शाहीन ढाडा और रीनू श्रीनिवासन को महाराष्ट्र में ठाणे जिले के पालघर में गिरफ्तार करने के बाद दायर की गई थी। एक ने शिवसेना नेता बाल ठाकरे के निधन के बाद मुंबई में बंद को लेकर टिप्पणी की थी और दूसरी लड़की ने उसे लाइक किया था।

इसके पहले भी प्रताड़ित करने और गिरफ्तारी की कई शिकायतें सामने आईं थीं। अन्ना आंदोलन से जुड़े असीम त्रिवेदी को फेसबुक पर एक कार्टून पोस्ट करने के बाद गिरफ्तार किया गया। 'भ्रष्टमेव जयते' शीर्षक वाले इस कार्टून को लेकर पुलिस ने देशद्रोह का मामला भी दर्ज किया था। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के खिलाफ एक कार्टून पोस्ट करने पर पुलिस ने जाधवपुर विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अंबिकेश महापात्रा को गिरफ्तार कर लिया। पी चिदंबरम के बेटे कीर्ति चिदंबरम के खिलाफ ट्वीट करने पर पुदुच्चेरी के एक व्यापारी की गिरफ्तारी हुई। कवि और लेखक कंवल भारती को फेसबुक पर पोस्टिंग के कारण गिरफ्तार किया गया।

उत्तर प्रदेश में इस कानून का इस्तेमाल काफी हुआ है। एक मीडिया रिपोर्ट के अनुसार प्रदेश में दो साल में इस धारा के इस्तेमाल के 399 मामले हुए। इनमें सबसे ज्यादा 58 मामले गाजियाबाद जिले के हैं। अकेले 23 मामले इंदिरापुरम थाने के हैं। रामपुर में 13 केस दायर हुए जिनमें से 10 मामले इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के एक वरिष्ठ पत्रकार के खिलाफ हैं। बहरहाल देशभर में हाहाकार के बाद सुप्रीम कोर्ट ने 16 मई 2013 को परामर्श जारी किया कि आपत्तिजनक टिप्पणियां पोस्ट करने के आरोपी को आईजी या डीसीपी जैसे वरिष्ठ अधिकारियों से अनुमति हासिल किए बिना पुलिस गिरफ्तार न करे। पिछले महीने 26 फरवरी को सुप्रीम कोर्ट में इस मसले फैसला सुरक्षित रखे जाने के बाद भी 18 मार्च को उत्तर प्रदेश में एक छात्र को गिरफ्तार किया गया।

अब 66ए के हट जाने का मतलब यह नहीं है कि किसी को भी किसी के खिलाफ कुछ भी लिख देने का लाइसेंस मिल गया। हर आज़ादी की सीमा होती है। पर हर सीमा की भी सीमा होती है। हमारे संविधान ने जब अनुच्छेद 19(1)(क) के तहत व्यक्ति को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार दिया था, तब सीमाओं का उल्लेख नहीं किया गया था। पर 1951 में संविधान के पहले संशोधन में इस स्वतंत्रता की युक्तियुक्त सीमाएं भी तय कर दी गईं। पिछले 65 वर्ष में सुप्रीम कोर्ट के अनेक फैसलों से इस स्वतंत्रता ने प्रेस की स्वतंत्रता की शक्ल ली। अन्यथा ‘प्रेस की स्वतंत्रता’ शब्द संविधान में नहीं था और न है। उसकी ज़रूरत भी नहीं।

संविधान निर्माताओं ने इस अधिकार पर पाबंदियों के बारे में नहीं सोचा था। पर 1951 में हुए पहले संविधान संशोधन के माध्यम से इन स्वतंत्रताओं पर अनुच्छेद 19(2) के अंतर्गत युक्तियुक्त पाबंदियाँ भी लगाईं गईं। ये पाबंदियाँ अलग-अलग कानूनों के रूप में मौज़ूद हैं। भारत की प्रभुता और अखंडता, राज्य की सुरक्षा, विदेशी राज्यों के साथ रिश्तों, लोक-व्यवस्था, शिष्टाचार और सदाचार, अश्लीलता, न्यायालय की अवमानना, मानहानि और अपराध उद्दीपन को लेकर कानून बने हैं। उन कानूनों की रोशनी में 66ए के हट जाने के बावजूद सोशल मीडिया पर पोस्ट की गई कोई भी सामग्री कानूनी निगरानी के दायरे में रहेगी। किसी का अपमान करने, अश्लीलता परोसने, कानून-व्यवस्था को बिगाड़ने या साम्प्रदायिक माहौल को बिगाड़ने का अधिकार किसी को नहीं है। अलबत्ता विचार की सीमा भी समय के साथ बदलती है। हमारे मन का दायरा भी समय के साथ बढ़ता है।

असीम त्रिवेदी के बहाने चली बहस का फायदा यह हुआ कि तकरीबन डेढ़ सौ साल पुराने देशद्रोह कानून पर विचार शुरू हुआ। यह विचार अभी जारी है। विडंबना है कि तमिलनाडु में कुडनकुलम में नाभिकीय बिजली घर लगाने के विरोध में आंदोलन चला रहे लोगों के खिलाफ देशद्रोह के आरोप लगाए गए। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, शासन के प्रति विरोध और विद्रोह में काफी महीन रेखा है। संविधान नागरिकों को अपनी बात कहने का अधिकार देता है। भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए में उन गतिविधियों के तीन स्पष्टीकरण हैं, जिन्हें देशद्रोह माना जा सकता है। इन स्पष्टीकरणों के बाद भी केदारनाथ बनाम बिहार राज्य के मामले में 1962 में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि जब तक सशस्त्र विद्रोह या हिंसा के इस्तेमाल की अपील न हो तब तक कुछ भी राजद्रोह नहीं है। मोटे तौर पर राष्ट्र-राज्य से असहमति को देशद्रोह नहीं मानना चाहिए।

राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित

2 comments:

  1. जब बेचारी पार्टी को ही पता नहीं कि उसके उपाध्यक्ष कहाँ हैं तो प्रवक्ता क्या बताएँगे कांग्रेस पार्टी में तो नेहरू गांधी परिवार के बारे में वैसे भी लोह आवरण रहता है मजे की बात यह है कि पार्टी के बूढ़े बूढ़े नेता भी मिमियाते रहते हैं, डरे डरे से सकुचाये से देखते सुनते रहते हैं अब राहुल की अनुपस्थिति में उनके गुप्तवास से सन्देश आ रहे हैं व उनके अनुसार जब कार्यवाही पूरी हो जाएगी तब राहुल बाबा प्रकट होंगे व उनका राजतिलक किया जायेगा तकिपार्टय के अंतिम क्रियाकर्म किया जा सके

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  2. कुछ भी हो कुछ लाभ तो मिलेगा ही, आजमखान,ममता जैसे तुनकमिजाज नेताओं व शिवसैनिकों जैसे अनुयायियों उन्माद के खिलाफ व्यक्ति अपना आक्रोश तो व्यक्त कर सकेगा , हालाँकि इस से होने वाले परिणाम की तो कोई गारंटी नहीं है

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