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Friday, January 9, 2015

रोमन हिन्दी को लेकर असगर वजाहत का एक पुराना लेख

“रोमन” हिंदी खिल रही है, “नागरी” हिंदी मर रही है

यह लेख मार्च 2010 में जनसत्ता में छपा था। इसे यहाँ फिर से लगाया है ताकि सनद रहे। इस सिलसिले में मैं कुछ और सामग्री खोजकर यहाँ लगाता जाऊँगा। 

मुंबई से फिल्म निर्देशक का फोन आया कि फिल्म के संवाद रोमन लिपि में लिखे जाएं। क्यों? इसलिए कि अभिनेताओं में से कुछ हिंदी बोलते-समझते हैं लेकिन नागरी लिपि नहीं पढ़ सकते। कैमरामैन गुजरात का है। वह भी हिंदी समझता-बोलता है लेकिन पढ़ नहीं सकता… इसी तरह… फिल्म से जुड़े हुए तमाम लोग हैं। फिल्मी दुनिया में गहरी पैठ रखने वालों ने बाद में बताया कि फिल्म उद्योग में तो हिंदी आमतौर पर रोमन लिपि में लिखी और पढ़ी जाती है। एनडीटीवी के हिंदी समाचार विभाग में बड़े ओहदे पर बरसों काम कर चुके एक दोस्त ने बताया कि टीवी चैनलों पर हिंदी समाचार आदि रोमन लिपि में लिखे जाते हैं। वजह केवल यह नहीं है कि समाचार पढ़ने वाला नागरी लिपि नहीं जानता है बल्कि यह भी है कि समाचार की जांच-पड़ताल करने वाले नागरी लिपि के मुकाबले रोमन लिपि ज्यादा सरलता से पढ़ सकते हैं।

मोबाइल फोन इस्तेमाल करने वाले, जिनकी तादाद कुछ ही साल बाद लाखों से बढ़ कर करोड़ों तक पहुंच जाएगी, अच्छी तरह जानते हैं कि निजी और कारोबारी किस्म के एसएमएस हिंदी में आते और जाते हैं। इसकी पहली वजह यह है कि कारोबारी एसएमएस भेजने वाले जानते हैं कि आमतौर पर लोग हिंदी समझते हैं या अंग्रेजी के मुकाबले हिंदी अच्छी तरह और जल्दी समझ लेते हैं लेकिन उनमें बहुत बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है जो हिंदी लिपि नहीं पढ़ सकते या पढ़ने में कठिनाई महसूस करते हैं। विज्ञापन जगत बहुत जागरूक, चतुर और चालाक है जो संचार के नियमों से परिचित है और उसका पूरा उपयोग करता है। संचार का एक मोटा सिद्धांत यह है कि संप्रेषण सीधा हो, उसमें जटिलता या प्रभावी वर्ग के लिए असुविधा न हो।

एसएमएस के बाद या पहले ई-मेल का नंबर आता है। हिंदी जानने-बोलने और समझने वाले एक दूसरे को ई-मेल हिंदी में भेजते हैं लेकिन प्राय: लिपि रोमन होती है। इसके कारण भी वही हैं जो रोमन लिपि में एसएमएस भेजने के हैं।

महत्त्वपूर्ण बात यह है कि यह सब किसी योजना या आंदोलन या समझी-बूझी राजनीति के बगैर हो रहा है। इसका सीधा मतलब यही है कि यह लोगों को सुविधाजनक लगता है और लोग स्वभाव से ही सुविधा-प्रेमी होते हैं। यही वजह है लैनटैज्न को लालटैन और लांग क्लाथ को लंगकिलाट बना दिया गया था।

विज्ञापन जगत के गुरु मानते हैं और उसके लिए आंकड़े उपलब्ध हैं कि पिछले पचीस-तीस सालों में हिंदी समझने वालों की संख्या में बहुत तेजी से बढ़ोतरी हुई है लेकिन नागरी लिपि का ज्ञान उतनी तेजी से नहीं बढ़ा है। मतलब यह कि हिंदी जानने-समझने और बोलने वालों की बड़ी संख्या नागरी लिपि नहीं जानती। ऐसा नहीं है कि नागरी लिपि जानने और समझने वालों की संख्या नहीं बढ़ रही है, लेकिन उन लोगों की तुलना में, जो हिंदी समझते-बोलते हैं मगर नागरी लिपि नहीं जानते, यह संख्या बहुत नहीं बड़ी है। यही वजह है कि विज्ञापन जगत का हिंदी प्रेम जाग रहा है। आज अंग्रेजी विज्ञापनों में जितने हिंदी शब्द आ रहे हैं उतने पहले कभी नहीं आए। लेकिन विज्ञापन जगत में हिंदी भाषा का आगमन नागरी लिपि में नहीं बल्कि रोमन लिपि में हो रहा है।
हिंदी के माध्यम से हिंदी के बाजार को ‘मुट्ठी’ में कर लेने की कोशिश लगातार बढ़ती रहेगी और हिंदी के लिए रोमन लिपि का प्रयोग भी बढ़ता रहेगा। आजादी से पहले राष्ट्रीय आंदोलन के दौर में, भारतीय भाषाओं को निकट लाने और मुद्रण संबंधी कठिनाइयों के संदर्भ में लिपि के सवाल पर बहुत चर्चा की गई थी।

कभी-कभी तमाम भारतीय भाषाओं के लिए नागरी के प्रचलन से लेकर रोमन लिपि तक को स्वीकार करने के आग्रह किए गए थे। यह वह जमाना था जब बुद्धिजीवी भाषा और लिपि के सवाल पर सोचते थे। भाषा की भूमिका को नए आयाम देने की कोशिश करते थे। राष्ट्रीय एकता के मद्देनजर भाषाओं को निकट लाने के प्रयास किए जाते थे। हिंदी लिपि की चर्चा करने से पहले आज हिंदी भाषा के स्वरूप और क्षेत्र पर बात करना जरूरी है। आजादी के बाद आधी शताब्दी से अधिक समय बीत गया है। हिंदी को अकादमिक, प्रशासनिक, राजनयिक और विज्ञान-तकनीक के क्षेत्र में स्थान मिलने के दावे खोखले साबित हो चुके हैं।

आज ज्ञान-विज्ञान के किसी भी क्षेत्र या व्यावहारिक प्रशिक्षण पाठ्यक्रमों की उच्च शिक्षा में हिंदी माध्यम नहीं बन सकी है। करोड़ों-अरबों रुपया खर्च कर दिए जाने के बाद भी हिंदी विश्वस्तर की भाषा नहीं कही जा सकती। उदाहरण के लिए, हिंदी में न तो अन्य विश्वस्तरीय भाषाओं जैसी ज्ञानविज्ञान के पठन-पाठन की सामर्थ्य है और न समुचित ज्ञान भंडार है। विदेशी भाषाओं से हिंदी में किए गए अनुवादों आदि को छोड़ भी दें और केवल भारतीय भाषाओं की रचनाओं के हिंदी अनुवाद की बात करें तो निराशा ही हाथ लगती है। प्रतिवर्ष गिनती की पुस्तकें प्रकाशित होती हैं जो प्रकाशकों की रुचियों या व्यावसायिक समीकरणों से बंधी होती हैं।

हिंदी प्रकाशन जगत की स्थिति लेखकों के दृष्टिकोण से बहुत उत्साहवर्धक नहीं है। सरकारी खरीद का लाभ कम और नुकसान अधिक हुआ है; आज बड़े-बड़े प्रकाशक खुल कर कहते हैं कि वे किताब का पहला संस्करण तीन सौ प्रतियों का छापते हैं। स्कूली शिक्षा के माध्यम के रूप में हिंदी की स्थिति बहुत चिंतनीय है। हिंदी स्कूलों की स्थिति लगातार गिर रही है और अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों के प्रति जनता का उत्साह बढ़ रहा है। हिंदी माध्यम स्कूल अब सिर्फ गरीबों के बच्चों के लिए रह गए हैं जो हिंदी माध्यम में शिक्षा पाकर प्राय: (अपवादों को छोड़ दें) गरीब ही बने रहते हैं। हिंदी में अंग्रेजी की तुलना में न तो अच्छी पाठ्यपुस्तकें उपलब्ध हैं और न पढ़ने-पढ़ाने की विकसित तकनीक ही है।

राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय व्यापार और वाणिज्य की भाषा के रूप में भी हिंदी की स्थिति अच्छी नहीं है। पचास करोड़ से अधिक लोगों द्वारा बोली जाने वाली हिंदी की आज जितनी दुर्दशा है उतनी दुर्दशा पांच और दस करोड़ लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषाओं जैसे पोलिश, चेक, हंगेरियन, फिनिश आदि की भी नहीं है। हिंदी भाषा की इस दुर्दशा की जिम्मेदारी हम दूसरों पर नहीं डाल सकते। इसके लिए हम ही जिम्मेदार हैं, हमारी सरकार जिम्मेदार है। लेकिन बोलने वाले लोगों की संख्या के आधार पर विश्व की दूसरी सबसे बड़ी भाषा हिंदी ने मीडिया के क्षेत्र में जो कीर्तिमान स्थापित किए हैं वे संभवत: अतुलनीय हैं।

आज विश्व में हिंदी फिल्मों के दर्शक सौ करोड़ से भी अधिक हैं। इन दर्शकों में वे भी सम्मिलित हैं जिनकी मातृभाषा हिंदी नहीं है और वे भी शामिल हैं जो हिंदी बोल और पढ़ नहीं, केवल समझ सकते हैं। हिंदी के सीरियल पूरे भारत के हिंदी और अहिंदी क्षेत्रों और विदेशों में भी देखे जाते हैं। उसके माध्यम से हिंदी समझने वालों की संख्या में बड़ी तेजी से गुणात्मक परिवर्तन आया है। हिंदी रेडियो और विशेष रूप से हिंदी फिल्मों के गानों ने हिंदी और गैर-हिंदी भाषी लोगों के बीच जो लोकप्रियता अर्जित की है वह अद्वितीय है। हिंदी फिल्मों के गानों ने भाषा, भूगोल और समझ की सीमाओं को तोड़ दिया है। इसके साथ-साथ हिंदी के समाचार पत्रों की प्रसार संख्या लगातार बढ़ रही है और पाठकों की संख्या के आधार पर अब भारत में ही नहीं, विश्व के अख़बारों में हिंदी के समाचार पत्रों का स्थान बनता है।

मीडिया के संदर्भ में जब हम हिंदी की बात करते हैं तो तीन बातें सामने आती हैं। पहली यह कि मीडिया के कारण हिंदी समझने वालों की संख्या में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। दूसरी यह कि हिंदी मीडिया क्षेत्र लगातार व्यापक होेता जा रहा है और तीसरी बात यह कि हिंदी की सामान्य स्वीकृति है और देश तथा विदेश में उसका प्रचलन बढ़ रहा है।

भारतीय विज्ञापन व्यवसाय तेरह हजार करोड़ रुपए का उद्योग है। यह व्यवसाय मुख्य रूप से अंग्रेजी भाषा केंद्रित रहा है। प्राय: अंग्रेजी में विज्ञापन बनते और प्रसारित होते थे। लेकिन अब विज्ञापन जगत के ‘अंग्रेजी दुर्ग’ में हिंदी की सुरंग लग गई है। विज्ञापन जगत के मठाधीशों ने यह मान लिया है कि आज भारत का उपभोक्ता हिंदी समझने लगा है। यही वजह है कि विज्ञापन की भाषा (कापी) तेजी से बदल रही है। आज विज्ञापनों की भाषा में जितने हिंदी शब्दों का प्रयोग हो रहा है उतना पहले कभी नहीं हुआ। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि विज्ञापन की भाषा में हिंदी तो आई है लेकिन नागरी लिपि नहीं आई। विज्ञापन की हिंदी रोमन लिपि में ही सामने आती है।

इसी तरह हिंदी फिल्मों के पोस्टर अब प्राय: हिंदी में नहीं बनते। नाम के लिए ही नागरी लिपि में छोटा-सा कोने में फिल्म का नाम लिख दिया जाता है। बात कुछ यह है कि हिंदी भाषा को समझने वाले तो बढ़ रहे हैं लेकिन उसकी तुलना में नागरी लिपि को समझने वाले नहीं बढ़ रहे हैं।

ऐसी स्थिति में हिंदी की लिपि की तरफ हिंदी जगत दो रवैए अपना सकता है। पहला तो यह कि वस्तुस्थिति पर कोई प्रतिक्रिया न की जाए और हिंदी और रोमन लिपि के संबंध को जंगल की लताओं की तरह बढ़ने के लिए छोड़ दिया जाए। दूसरा दृष्टिकोण यह हो सकता है कि हिंदी को रोमन लिपि में लिखने के फायदे-नुकसान को जांचा-परखा जाए और उसके प्रति एक वैज्ञानिक रवैया अपनाया जाए। इस बात से कौन इनकार कर सकता है कि मानव समाज में भाषा और लिपि को बदलने का काम बहुत कठिन, जटिल और बहुपक्षीय होता है। बहुत-से देश इसका प्रयास ही नहीं करते क्योंकि यह एक तरह से जन-भावनाओं से छेड़छाड़ करने वाला काम माना जाता है।

आधुनिक इतिहास में लिपि परिवर्तन का एक बड़ा काम तुर्की में हुआ; लोकप्रिय जननेता कमाल अतातुर्क (1881-1938) ने 1928 में यह निर्णय लिया था कि तुर्की भाषा की हजारों सालों से प्रचलित अरबी लिपि के स्थान पर रोमन लिपि का प्रयोग किया जाना चाहिए। उन्होंने विशेषज्ञों से पूछा था कि यह काम कितने समय में हो सकता है? विशेषज्ञों ने कहा था कि इस काम में कम से कम पांच साल लगेंगे। कमाल अतातुर्क ने जवाब दिया था कि हम इसे पांच महीने में करेंगे। और बीसवीं शताब्दी के तीसरे दशक के शुरू होते-होते तुर्की ने रोमन लिपि को अपना लिया। यह एक अत्यंत कठिन काम था लेकिन परिस्थितियों, जन-आकांक्षाओं और प्रभावशाली नेतृत्व ने इसे संभव कर दिया था।

लिपि परिवर्तन के साथ-साथ तुर्की भाषा में अरबी और फारसी भाषा की जटिल और मध्यकालीन अभिव्यक्तियों पर भी विचार किया गया था और कुछ खारिज कर दिया गया था। विदेशी भाषाओं और प्राचीन तुर्की के कुछ शब्दों को स्वीकृति दी गई, कुछ पुराने शब्दों का नवीनीकरण किया गया था। इन प्रयासों का तुर्की भाषा पर बड़ा प्रभाव पड़ा था। पहले जहां तुर्की में अस्सी फीसद अरबी और फारसी भाषा के शब्द हुआ करते थे वहां अब ये केवल दस प्रतिशत बचे थे। ((जारी)) ((जनसत्ता से साभार))


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हिन्दी को रोमन लिपि की कोई जरूरत नहीं

हिंदी को रोमन लिपि की कोई जरूरत नहीं
आलेख: डॉं- परमानंद पांचाल  ; स्थान: नई दिल्ली दिनांक: 23 जुलाई 2010  ; समय: 12:44

पिछले दिनों ‘जनसत्ता‘ में प्रकाशित एक लेख में हिंदी के एक विद्वान प्रोफेसर ने हिंदी की लोकप्रियता में देवनागरी लिपि को बाधक मानते हुए उसके स्थान पर रोमन लिपि को अपनाने का सुझाव दिया था। उन्होंने हिंदी की व्यापकता को तो स्वीकारा, किंतु उसकी सर्वाधिक वैज्ञानिक और ध्वन्यात्मक लिपि को उपयुक्त नहीं मानते हुए उसके स्थान पर रोमन लिपि अपनाने की सलाह दे डाली।
प्रोफेसर महोदय को शायद याद नहीं होगा कि अंग्रेजी के अनेक ख्याति प्राप्त विद्वान स्वयं रोमन लिपि से त्रस्त हैं और वे उसके दोषों से मुक्त होना चाहते हैं। जार्ज बनार्ड शा जैसे अंग्रेजी के प्रसिद्ध विद्वान को रोमन लिपि की अवैज्ञानिकता से खिन्न होकर यह वसीयत करनी पड़ी थी कि अंग्रेजी भाषा में होने वाले 42 उच्चारणों के लिए जो व्यक्ति 42 अक्षरों की एक पूरी वर्णमाला तैयार कर दे, उसे वे अपनी सम्पत्ति का एक भाग देने को तैयार हैं। हिंदी की वर्णमाला के सम्बन्ध में आशुलिपि के प्रवर्तक सर ईसाक पिटमेन ने कहा था, ‘यदि संसार में कोई भी वर्णमाला सर्वाधिक पूर्ण है, तो वह हिंदी की वर्णमाला ही है।‘ एक नहीं अनेक विदेशी विद्वानों ने रोमन लिपि की अपूर्णता का रोना रोया है।
सर विलियम जॉन्स (1740-1794) यद्यपि रोमन लिपि के पक्षधर थे, किंतु वे देवनागरी लिपि की प्रशंसा किए बगैर नहीं रह सके। उन्हीं के शब्दों में देवनागरी लेखन प्रणाली अपने वर्तमान स्वरूप में किसी भी अन्य प्रणालियों से अधिक सुव्यवस्थित है। लज्ज़ा की बात है कि हमारी अंग्रेजी वर्णमाला और वर्तनी निहायत अपूर्ण और हास्यास्पद है।‘ यही नहीं, डॉ- आर्थर मेक्डानल ने संस्कृत साहित्य के इतिहास में लिखा है कि ‘400 ई- पूर्व में पाणिनी के समय भारत ने लिपि को वैज्ञानिकता से समृद्ध कर विकास के उच्चतम सोपान पर प्रतिष्ठित किया, जबकि हम यूरोपियन लोग इस वैज्ञानिक युग में 2500 वर्ष बाद भी उस वर्णमाला को गले लगाए हुए हैं, जिसे ग्रीकों ने पुराने सेमेटिक लोगों से अपनाया था, हम तो हमारी भाषाओं के समस्त ध्वनि समुच्चय का प्रकाशन करने में असमर्थ हैं। हम तीन हज़ार साल पुराने अवैज्ञानिक स्वर-व्यंजन मिश्रण का बोझ अब भी पीठ पर लादे हुए हैं। एफएस ग्राउसु, व्यूलर हार्नले, हुक्स मैक्डानल थामस, जॉन शोर तथा आइजेक टेलर जैसे विद्वानों ने भी जी खोलकर नागरी लिपि की प्रशंसा की है।
"Devanagari system which as it is more natuaraly arranged than any others .... Our English alphabets and orthography as disgracefully and most rediculously imperfect." -- विलियम जॉन्स
ये उदाहरण मैंने इसलिए दिए हैं कि हिंदी के लिए जिस रोमन लिपि की सिफारिश विद्वान लेखक ने की है, उसकी हकीकत रोमन के प्रयोक्ताओं के मुंह से ही सुन ली जाए। भारत के संविधान निर्माता इतने नासमझ नहीं थे कि वे बिना सोचे समझे नागरी लिपि को राजभाषा हिंदी की अधिकृत लिपि स्वीकार करते। पर्याप्त विचार-मंथन के बाद ही नागरी को अपनाने का निर्णय लिया गया था। यह देश का दुर्र्भाग्य ही माना जाएगा कि उनके उत्तराधिकारी देश के कर्णधारों ने उसे सच्चे मन से कार्यान्वित करने में विशेष रूचि नहीं दिखाई और शिक्षा पद्धति में तदनुसार परिवर्तन नहीं किया गया। समय-समय पर गठित शिक्षा आयोग कहते रहे कि शिक्षा का माध्यम भारतीय भाषाओं को बनाया जाए और बच्चे की प्राथमिक शिक्षा उसकी मातृ भाषा में ही दी जाए, किंतु गुलामी की मानसिकता में पले और दीक्षित हुए सरकारी तंत्र के नौकरशाहों ने भी अपनी ढुलमुल कार्यप्रणाली के तहत इसे लागू ही नहीं होने दिया।
स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़े देश भक्त लोग धीरे-धीरे विदा होते गए और वह भावना भी मंद पड़ती गई जो राष्ट्र की एकता के लिए राष्ट्र भाषा हिंदी और भारतीय भाषाओं को समीप लाने वाली लिपि, देवनागरी को आवश्यक मानते थे। कहना न होगा कि बाद की पीढ़ी के नेता स्वार्थवश क्षेत्रीय राजनीति और संर्कीण मानसिकता के शिकार होते गए। फलत: एकता के स्थान पर अलगाव के स्वर सुनाई देने लगे और राष्ट्रीय मुद्दे हाशिये पर चले गए। समाज में अपना वर्चस्व बनाए रखने की मानसिकता ने ब्रिटिश राज की दोहरी शिक्षा प्रणाली को ही जारी रखा। अंग्रेजी माध्यम के प्राइवेट स्कूलों की बाढ़ सी आई। शिक्षा एक उद्योग में तब्दील हो गई। अंग्रेजी माध्यम के निजी स्कूलों में अपने बच्चों को पढ़ाना सामाजिक प्रतिष्ठा का प्रतीक बन गया। फलत: अंग्रेजी और रोमन लिपि ही सर्वत्र छाती चली गई।
श्री सेम पित्रोदा की अध्यक्षता में गठित ज्ञान आयोग की सिफारिश ने तो रही सही कमी को और पूरा कर दिया। अंग्रेजी को पहली कक्षा से अनिवार्य रूप से पढ़ाए जाने की सिफारिश ने बच्चों को मातृभाषा से बिल्कुल विमुख ही कर दिया। वे पहली और नर्सरी कक्षा से ही अंग्रेजी और रोमन लिपि सीख कर हिंदी और देवनागरी जैसी श्रेष्ठ वैज्ञानिक लिपि से दूर होने लगे। यही कारण है कि रोमन लिपि के अभ्यस्त छात्रों को नागरी लिपि पराई लगने लगी और रोमन सुविधाजनक। परिणामत: एसएमएस पर उलटी सीधी हिंदी रोमन लिपि में लिखी जाने लगी, क्योंकि उन्हें नागरी का अभ्यास ही नहीं रह गया था। इसके लिए नागरी लिपि की कमजोरी नहीं, हमारी शिक्षा नीति उत्तरदायी है।
सबसे बड़ी बात यह है कि शिक्षा के प्रत्येक स्तर पर पहली कक्षा से ही शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी बनाया जा रहा है, जो सर्वथा अनुचित और अस्वाभाविक है। अंग्रेजी भाषा की शिक्षा के हम विरोधी नहीं, हम शिक्षा माध्यम के रूप में किसी विदेशी भाषा के प्रयोग को उचित नहीं मानते। गांधी जी तो अंग्रेजी माध्यम के बिल्कुल विरुद्ध थे। जो भाषा शिक्षा का माध्यम नहीं होती, वह एक बोली और कविता, कहानी आदि की भाषा के रूप में ही सीमित रह जाती है। ज्ञान-विज्ञान, प्रौद्योगिकी राजनय और व्यापार की भाषा वह नहीं बन पाती। अंग्रेजी माध्यम के कारण ही रोमन लिपि का प्रचलन बढ़ा है। इसे रोमन लिपि की श्रेष्ठता नहीं कहा जा सकता। क्या इसीलिए हिंदी को भी रोमन लिपि अपना लेनी चाहिए।
विद्वान लेखक ने तुर्की के डिक्टेटर कमाल पाशा का उदाहरण देकर रोमन लिपि को हिंदी पर भी थोपने का परामर्श दिया है। वह भूल जाते हैं कि भारतवर्ष तुर्की नहीं, वह विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक गणराज्य है। यहां कोई भी निर्णय जनता पर थोपा नहीं जा सकता। ऐसे में, तुर्की का संदर्भ यहां कैसे जायज ठहराया जा सकता है? दूसरी बात यह है कि कमाल पाशा एक क्रांतिकारी तानाशाह था। उसने लिपि को ही नहीं बदला, अनेक सामाजिक और धार्मिक रीति रिवाजों को भी जबरन बदल दिया। तीसरे तुर्की, यूरोप का एक पिछड़ा देश था, जिसे ‘सिकमैन ऑफ यूरोप‘ कहा जाता था। उसके समीपवर्ती देशों की भाषाओं की लिपि रोमन थी, इसलिए भी उसे मुख्यधारा से जोड़ने के लिए यह कदम उठाना पड़ा। भारत की भौगोलिक स्थिति उससे भिन्न है। यहां के पड़ोसी देशों की भाषाओं की लिपि रोमन नहीं है, बल्कि देखा जाए तो इन देशों की भाषाओं की लिपियां भी (उर्दू को छोड़) नागरी लिपि की भांति ब्राह्ममी लिपि परिवार की ही लिपियां हैं।
विश्व के विद्वान अब यह मानने लगे हैं कि अपने ध्वन्यात्मक और वैज्ञानिक गुणों के आधार पर नागरी लिपि विश्व की सर्वोत्तम लिपि है, जो नए परिवर्तनों, परिवर्धनों के साथ एक ‘विश्व लिपि‘ बनने की क्षमता रखती है। लिप्यन्तरण और प्रतिलेखन की दृष्टि से सबसे उपयुक्त देवनागरी लिपि ही है, रोमन और फारसी आदि नहीं। कहने को रोमन लिपि मेें 26 अक्षर हैं, किंतु उनके ‘कैपिटल‘ और ‘स्मॉल‘ अक्षर दो प्रकार होने से 26 4-104 प्रकार के अक्षर सीखने होते हैं। क्या यह कम पेचीदा काम है?
प्रश्न हिंदी की लिपि बदलने का नहीं है। संविधान की आठवीं अनुसूची में सम्मिलित हिंदी के साथ संस्कृत, नेपाली, बोडो, मराठी, मैथिली और डोगरी की आधिकारिक लिपि भी नागरी लिपि है। इनके अतिरिक्त कोंकणी, सिंधी और संथाली जैसी भाषाएं भी नागरी लिपि को अपना रही हैं। उर्दू साहित्य भी नागरी लिपि में अधिक लोकप्रिय हो रहा है। इस प्रकार नागरी लिपि एक सम्पर्क लिपि के रूप में प्रचलित हो रही है।
सभी जानते हैं कि आज विश्व में हिंदी का प्रचलन बढ़ रहा है और इसे विश्व की दूसरी सबसे बड़ी भाषा माना जाता है। यह भी एक तथ्य है कि विश्व में हिंदी जहां गई, अपने साथ अपनी लिपि देवनागरी भी लेती गई। इस प्रकार अब नागरी लिपि विश्व के क्षितिज पर ‘विश्व नागरी‘ के रूप में उभर रही है। देखा जाए तो देवनागरी लिपि भारत की एक पहचान भी है। क्या हम अपनी इस पहचान को मिटा देें?
सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि क्या रोमन में हिंदी की ध्वनियों को सुरक्षित रखा जा सकता है? क्या हिंदी के शब्दों का रोमन लिपि में सही उच्चारण भी हो सकता है? यदि नहीं, तो फिर ऐसी लिपि को ओढ़ने से क्या लाभ है? डॉ- सुनीति कुमार चाटर्ज्या जैसे विद्वानों ने भी ऐसा सुझाव एक बार दिया अवश्य था, किंतु वह किसी के भी गले नहीं उतरा। नागरी लिपि में एक ध्वनि के लिए एक ही लिपि चिह्‌न है, इसमें जैसा लिखा जाता है वैसा ही पढ़ा जाता है। यह विशेषता रोमन और फारसी आदि लिपियों में हरगिज़ नहीं है। नागरी एक विकासशील लिपि है। आवश्यकतानुसार इसमें नए लिपि चिह्‌न भी शामिल होते रहे हैं। रोमन में आज तक वही 26 वर्ण हैं, जबकि देवनागरी में इसके दुगने चिह्‌न हैंं। नागरी लिपि की वर्णमाला बड़ी वैज्ञानिक है। इसमें ह्‌स्व और दीर्ध मात्राओं का भेद सुस्पष्ट है। रोमन में लिखे शब्द केएएमएएल को आप ही पढ़कर बताइए क्या कहेंगे? ‘कमल‘, ‘कामल‘ या कमाल। पिछले दिनों इल्मी मजलिस (लंदन) के अध्यक्ष महोदय का पत्र आया था। उन्होंने मुझे ‘दक्खिनी हिंदी‘ पर भाषण देने के लिए आमंत्रित किया था। उनका नाम रोमन लिपि में (एसएचएक्यूईबी) लिखा था। हम उसे अन्दाज़े से डॉ- शकेब या शाकेब ही पढ़ते रहे। काफी पूछताछ करने पर पता चला कि वह शब्द ‘शाकिब‘ है।
जहां तक भारतीय विज्ञापन का प्रश्न है अब विज्ञापन की भाषा की धीरे-धीरे हिंदी बन रही है। उसमें अंग्रेजी के शब्दों का बाहुल्य अवश्य बढ़ा है, किंतु वह नागरी में ही अंग्रेजी शब्दों को स्वीकार करता है, जैसे यह ‘दिल मांगे मोर‘ यहां ‘मोर‘ नागरी में ही लिखा जाता है। रोमन में नहीं। हिंदी के सभी समाचार पत्रों की यही स्थिति है। भले ही अंग्रेजी अखबार हिंदी शब्दों को रोमन में लिखते हो। अंग्रेजी के मुट्‌ठी भर समाचार पत्रों की आवश्यकता के कारण हिंदी लिपि को नहीं बदला जा सकता। हिंदी के समाचार पत्र अंग्रेजी की अपेक्षा कई गुणा अधिक हैं। उनकी पाठक संख्या भी अंग्रेजी से बहुत ज्यादा है।
आज यूरोप और अमेरीका आदि देशों में कम्प्यूटर साफ्टवेयर के विकास में जो शोधकार्य हो रहा है, उसने भी नागरी लिपि की वैज्ञानिकता के प्रति विशेषज्ञों का ध्यान आकृष्ट किया हैं। डॉ- रिग ब्रिग्स, डॉं- व्यास हूस्टन और डॉ- डेविड लेविन आदि विद्वानों ने व्यापक रूप से लिखा है कि नए युग की आशाएं नागरी और संस्कृत की ओर प्रवृत होती दिखाई देती हैं। यहां तक कहा जाता है ‘यदि कम्प्यूटर की भाषा सीखना चाहते हैं तो संस्कृत और नागरी सीखिए‘ विदेशी कम्पनियों का बढ़ता बाज़ार अपने स्वार्थ और माल की बिक्री के कारण हिंदी के बाजार पर नियंत्रण करना चाहता है। वह करोड़ों लोगों की भाषा हिंदी को तो बदल नहीं सकता, उसकी लिपि को बदलने के लिए अपना प्रभाव मीडिया के माध्यम से अवश्य डालना चाहता है। यहां रोमन लिपि का वातावरण बनाना चाहता है। हिंदी में अंग्रेजी के शब्दों की अनावश्यक भरमार से हिंदी का स्वरूप ही बदलने के प्रयास हो रहे हैं। इसका उदाहरण आप एक हिंदी दैनिक की इस भाषा में देख सकते है।- ‘कैपस ऑफ ओपन लर्निंग ने बनाया डिग्री कोर्स का प्रपोजल‘ इसमें एक वाक्य के 10 शब्दों में से 7 शब्द अंग्रेजी के हैं। इसी प्रकार ओर भी बानगी देखिए- 1- बैंक करते हैं रिकवरी टूल की तरह यूज़ 2- डबल स्ट्राइक का ट्रबल गेम्स (नवभारत टाइम्स- 11 मई 2010)
इस बहाने यह प्रभाव बनाने का प्रयत्न किया जा रहा है कि इन्हें रोमन में लिखना सरल होगा। इसलिए हिंदी को रोमन अपना लेनी चाहिए। प्रश्न यह उठता है कि यदि हिंदी को रोमन में लिखा जाए तो क्या वह हिंदी रह जाएगी? वह तो हिंग्लिश जैसी एक नई भाषा बन जाएगी। इतिहास साक्षी है कि जब हिंदी (हिन्दवी) को फारसी लिपि में लिखा जाने लगा तो वह ‘उर्दू‘ बन गई। अब आप ही बताइए कि क्या हिंदी को अपनी श्रेष्ठ लिपि छोड़कर रोमन जैसी अपूर्ण लिपि अपना लेनी चाहिए?

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“लिवे देबते” क्या होता है? – मामला लिप्यांतरण का
अगस्त 28, 2013
लिवे देवते टीवी तस्वीर
लिवे देवते टीवी तस्वीर

श्रीमतीजी टेलीविजन पर कार्यक्रम देख रही थीं, और मैं कमरे के एक कोने में कुर्सी पर बैठा अखबार के पन्ने पलट रहा था । अचानक उन्होंने ने आवाज दी, “अरे भई, ये ‘लिवे देबते’” क्या होता है ?

“‘लिवे देबते’ ? देखूं, कहां लिखा है ?” कहते हुए मैं उनकी ओर मुखातिब हुआ । उन्होंने टीवी की ओर इशारा किया । मैंने उस ओर नजर घुमाई तो पता चला कि वे समाचार चैनलों पर कूदते-फांदते ‘एबीपी न्यूज’ पर आ टिकी हैं । पर्दें पर चैनल नं., समय, कार्यक्रम, आदि की जानकारी अंकित थी । चैनल बदलने पर इस प्रकार की जानकारी हिंदी में हमारे टीवी के पर्दे पर 2-4 सेकंड के लिए सदैव प्रकट होती है । उस विशेष मौके पर, राजनेता, पत्रकार तथा विशेषज्ञों के 5-6 जनों के जमावड़े के बीच किसी मुद्दे को लेकर बहस चल रही थी ।

मैंने पाया कि टीवी पर्दें पर उपलब्ध जानकारी में वास्तव में ‘लिवे देबते’ भी शामिल था । उसे देख एकबारगी मेरा भी माथा चकराया । इस ‘लिवे देबते’ का मतलब क्या हो सकता है ? अपने दिमाग का घोड़ा सरपट दौड़ाते हुए मैं उसकी खोज में मन ही मन निकल पड़ा । मेरे दिमाग में यह बात कौंधी कि यह तो हिंदी के कोई शब्द लगते नहीं । स्वयं से सवाल किया कि ये कहीं किसी अन्य भाषा के शब्द तो नहीं जो अंगरेजी के रास्ते यहां पहुंचे हों ! रोमन में ये कैसे लिखे जाएंगे यह जिज्ञासा भी मन में उठी और मुझे तुरंत बुद्धत्व प्राप्त हो गया । समझ गया कि यह तो ‘LIVE DEBATE’ है जो उस कार्यक्रम का सार्थक शीर्षक था । वाह! वाह रे चैनल वालो, कार्यक्रम को हिंदी में ‘जीवंत बहस’ या इसी प्रकार के शब्दों में लिख सकते थे । अथवा इसे ‘लाइव डिबेट’ लिख देते । न जाने किस मशीनी ‘ट्रांसलिटरेशन’ (Transliteration) प्रणाली का उन्होंने प्रयोग किया कि यह ‘लिवे देबते’ बन गया । ध्यान दें कि रोमन अक्षरों के लिए L = ल, I = ई, V = व, E = ए, D = द, B = ब, A = अ, T = त, का ध्वन्यात्मक संबंध स्वीकारने पर उक्त लिप्यांतरण मिल जाता है । परंतु अंगरेजी में रोमन अक्षरों की घ्वनियां इतनी सुनिश्चित नहीं होतीं यह संबंधित लोग भूल गये ।
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देवनागरी लिपि विरूद्ध रोमन लिपि हिन्दी

हिंदी की लगातार बढ़ती लोकप्रियता ने तथा इंटरनेट तथा एसएमएस के बढ़ते जाल ने हिंदी की देवनागरी लिपि को चुनौती देना आरम्भ कर दिया है। यह चुनौती है रोमन लिपि में हिंदी लिखने की प्रक्रिया की शुरूआत। प्राय: इंटरनेट और मोबाइल द्वारा रोमन लिपि में हिंदी लिखने का चलन दिखलाई पड़ने लगा है। लिखित हिंदी की यह समस्या यद्यपि अभी अपने आरम्भिक चरण में है किन्तु चिंताजनक बात यह है कि रोमन लिपि का उपयोग हिंदी लिखने की शैली युवा पीढ़ी में तेज़ी के साथ प्रसारित हो रही है। यदि इस दिशा में सामाजिक, व्यापारिक तथा प्रौद्यौगिकी स्तर पर पहल नहीं की गई तो यह संभावना प्रतीत हो रही है कि भविष्य में देवनागरी लिपि के संग रोमन लिपि की हिंदी अपनी जड़ें जमाना शुरू कर दे। आखिरकार भाषा की जीवंतता उसकी उपयोगिता पर भी निर्भर करती है।

1 comment:

  1. मेरा मानना हैं. कि हर भाषा को एक समय आने पर अपने को रूपांतरित करना ही पड़ता हैं... और ऐसा हिंदी के साथ भी हो रहा हैं... जैसे वैदिक संस्कृत से संस्कृत का, संस्कृत से पाली और पाली से पराकृत और प्राकृत से हिंदी का उदगमन हुआ हैं. वेसे ही हिंदी का मूल स्वरुप का शायद बदलने का समय आ गया हैं... अगर हमे हिंदी को बनाये रखना हैं.. तो हमें हिंदी का शब्दकोष भडाना होगा... अंग्रेजी का लोकप्रिय होने का कारण अंग्रेजी कि सरलता नहीं अंग्रेजी का बढ़ता हुआ शब्दकोष हैं. जिसमे लगभग 10 लाख से ज्यादा शब्द हैं. वही हिंदी में मात्र 1 लाख...

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